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  • यजुर्वेद - अध्याय 30/ मन्त्र 13
    ऋषिः - नारायण ऋषिः देवता - ईश्वरो देवता छन्दः - कृतिः स्वरः - निषादः
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    ऋ॒तये॑ स्ते॒नहृ॑दयं॒ वैर॑हत्याय॒ पिशु॑नं॒ विवि॑क्त्यै क्ष॒त्तार॒मौप॑द्रष्ट्र्यायानुक्ष॒त्तारं॒ बला॑यानुच॒रं भूम्ने प॑रिष्क॒न्दं प्रि॒याय॑ प्रियवा॒दिन॒मरि॑ष्ट्याऽअश्वसा॒दꣳ स्व॒र्गाय॑ लो॒काय॑ भागदु॒घं वर्षि॑ष्ठाय॒ नाका॑य परिवे॒ष्टार॑म्॥१३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऋ॒तये॑। स्ते॒नहृ॑दय॒मिति॑ स्ते॒नऽहृ॑दयम्। वैर॑हत्या॒येति॒ वैर॑ऽहत्याय। पिशु॑नम्। विवि॑क्त्या॒ इति॒ विऽवि॑क्त्यै। क्ष॒त्तार॑म्। औप॑द्रष्ट्र्या॒येत्यौप॑ऽद्रष्ट्र्याय। अ॒नु॒क्ष॒त्तार॒मित्यनु॑ऽक्ष॒त्तार॑म्। बला॑य। अ॒नु॒च॒रमित्य॑नुऽच॒रम्। भू॒म्ने। प॒रिष्क॒न्दम्। प॒रि॒स्क॒न्दमिति॑ परिऽस्क॒न्दम्। प्रि॒याय॑। प्रि॒य॒वा॒दिन॒मिति॑ प्रियऽवा॒दिन॑म्। अरि॑ष्ट्यै। अ॒श्व॒सा॒दमित्य॑श्वऽसा॒दम्। स्व॒र्गायेति॑ स्वः॒ऽगाय॑। लो॒काय॑। भा॒ग॒दु॒घमिति॑ भागऽदु॒घम् वर्षि॑ष्ठाय। नाका॑य। प॒रि॒वे॒ष्टार॒मिति॑ परिऽवे॒ष्टार॑म् ॥१३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऋतये स्तेनहृदयँ वैरहत्याय पिशुनँविविक्त्यै क्षत्तारऔपद्रर्ष्ट्यायानुक्षत्तारम्बालायानुचरम्भूम्ने परिष्कन्दम्प्रियाय प्रियवादिनमरिष्ट्या अश्वसादँ स्वर्गाय लोकाय भागदुघँवर्षिष्ठाय नाकाय परिवेष्टारम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    ऋतये। स्तेनहृदयमिति स्तेनऽहृदयम्। वैरहत्यायेति वैरऽहत्याय। पिशुनम्। विविक्त्या इति विऽविक्त्यै। क्षत्तारम्। औपद्रष्ट्र्यायेत्यौपऽद्रष्ट्र्याय। अनुक्षत्तारमित्यनुऽक्षत्तारम्। बलाय। अनुचरमित्यनुऽचरम्। भूम्ने। परिष्कन्दम्। परिस्कन्दमिति परिऽस्कन्दम्। प्रियाय। प्रियवादिनमिति प्रियऽवादिनम्। अरिष्ट्यै। अश्वसादमित्यश्वऽसादम्। स्वर्गायेति स्वःऽगाय। लोकाय। भागदुघमिति भागऽदुघम् वर्षिष्ठाय। नाकाय। परिवेष्टारमिति परिऽवेष्टारम्॥१३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 30; मन्त्र » 13
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    पदार्थ -
    ८१. (ऋतये) = शत्रु सैन्य के लिए (स्तेनहृदयम्) = [हृदयस्य स्तेनः] हृदय को चुरा लेनेवाले को, अर्थात् उसके दिल की बात का पता लगानेवाले को [One who can draw out] नियत करें [ऋति = An army ] । ८२. (वैरहत्याय) = वैर व हत्या आदि कार्यों के लिए (पिशुनम्) = चुगलखोर को नियत करें, वह इधर की बातें उधर करके इन कार्यों को सुविधा से कर पाते हैं। ८३. (विविक्त्यै) = किसी कार्य के विवेक के लिए, उसके गुण-दोष के परीक्षण के लिए (क्षत्तारम्) = सुविश्लिष्ट विचारवाले मन्त्री को प्राप्त करे। ८४. (औपद्रष्ट्याय) = सब कार्यों के बारीकी से निरीक्षण के लिए (अनुक्षत्तारम्) = कर्मसचिव [ Secretary] को नियत करे। ८५. (बलाय) = सेना के लिए (अनुचरम्) = आज्ञानुसार कार्य करनेवाले को नियत करे । सैनिकों का कार्य आज्ञा मानना ही है, इसके औचित्य का विचार करना उनका कार्य नहीं। ८६. (भूम्ने) = बाहुल्य व सुख के लिए (परिष्कन्दम्) = चारों ओर भ्रमण करके दोषों को दूर करनेवाले अफसरों को नियत करे, अथवा सब स्थानों पर भ्रमण करके उचित 'कर' उगाहनेवाले को [स्कन्दयति to collect] नियत करे। ८७. (प्रियाय) = राष्ट्र में प्रेम के वर्धन के लिए (प्रियवादिनम्) = ऐसे अध्यक्षों को नियत करे जा कड़वा नहीं बोलते। ८८. (अरिष्ट्यै) = राष्ट्र की अहिंसा के लिए (अश्वसादम्) = घुड़सवार फ़ौज नियत करे। ८९. (स्वर्गाय लोकाय) = स्वर्गलोक के लिए (भागदुघम्) = अपने भाग का ही दोहन करनेवाले को प्राप्त करे। राजा को चाहिए कि प्रजाओं में अपने ही भाग के दोहन की प्रवृत्ति को पैदा करे। गौ का दोहन बछड़े का भाग छोड़कर ही करे, राजा भी प्रजा से कर का दोहन उचित भाग के रूप में ही करे। ९०. (वर्षिठाय नाकाय) = सर्वोत्तम स्वर्गलोक के लिए (परिवेष्टारम्) = परोसनेवाले को प्राप्त करे। जो स्वयं सारा नहीं खा जाता, अपितु औरों को परोसकर बचे हुए को खाता है, वह अवश्य सर्वोत्तम स्वर्गलोक को प्राप्त करता है।

    भावार्थ - भावार्थ- स्तेनहृदय लोगों का भी राष्ट्र के लिए सुन्दर उपयोग हो सकता है।

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