Loading...

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 30/ मन्त्र 4
    ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः देवता - सविता देवता छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः
    0

    वि॒भ॒क्तार॑ꣳ हवामहे॒ वसो॑श्चि॒त्रस्य॒ राध॑सः। स॒वि॒तारं॑ नृ॒चक्ष॑सम्॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒भ॒क्तार॒मिति॑ विऽभ॒क्तार॑म्। ह॒वा॒म॒हे॒। वसोः॑। चि॒त्रस्य॑। राध॑सः। स॒वि॒तार॑म्। नृ॒चक्ष॑स॒मिति॑ नृ॒ऽचक्ष॑सम् ॥४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विभक्तारँ हवामहे वसोश्चित्रस्य राधसः । सवितारन्नृचक्षसम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    विभक्तारमिति विऽभक्तारम्। हवामहे। वसोः। चित्रस्य। राधसः। सवितारम्। नृचक्षसमिति नृऽचक्षसम्॥४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 30; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    पदार्थ -
    १. गतमन्त्र में प्रार्थित दुरितों को दूर करने व भद्र के प्रापण का प्रकार यह है कि प्रभु धन का विभाग करते हैं। उस धन के केन्द्रित होने पर ही दोष उत्पन्न होते हैं। मनुष्य भी नासमझी व स्वार्थपरता के कारण धन पर केन्द्रित होने लगता है और सारा सामाजिक शरीर अस्वस्थ हो जाता है। २. अतः मन्त्र में कहते हैं कि हम (वसोः) = निवास के लिए आवश्यक धन के (विभक्तारम्) = विभागपूर्वक देनेवाले प्रभु को (हवामहे) = पुकारते हैं, अर्थात् हम प्रभु से प्रार्थना करते हैं कि वे हममें सदा उचित धन-विभाग की व्यवस्था किये रक्खें। हमारे राष्ट्र के राजा आदि को प्रभु की ऐसी प्रेरणा मिले कि वे प्रजा में धन को कहीं केन्द्रित न होने दें । ३. यह धन जहाँ [क] (वसु) = निवास के लिए आवश्यक साधनों का प्रापक है, वहाँ [ख] (चित्रस्य) = [चित्र] यह ज्ञान देनेवाला है, इसके द्वारा हम ज्ञानवर्धक ग्रन्थों का संग्रह कर पाते हैं। इस धन को हम सदा साधन के रूप में देखते हैं। यह साध्य बनकर हमें अभिभूत करके उल्लू नहीं बना देता। साथ ही [ ग ] (राधसः) = [ राध संसिद्धौ ] यह धन हमारे कार्यों का साधक है। यह धन कार्यों में सफलता प्राप्त करानेवाला है। यह स्पष्ट है कि इतना ही धन ठीक है जो 'वसु + चित्र व राधस्' है। ३. हम उस प्रभु को पुकारते हैं जो (सवितारम्) = सकल जगदुत्पादक हैं, वस्तुतः हमें भी उत्पादन करके ही धनार्जन करना चाहिए। ५. (नृचक्षसम्) = वे प्रभु सब मनुष्यों को देखनेवाले हैं [चक्षू = To look after ] हम भी सभी को देखनेवाले बनें, सभी का ध्यान करें। जब हम स्वार्थी बन जाते हैं तभी धन के केन्द्रीकरण की प्रवृत्ति बढ़ती है।

    भावार्थ - भावार्थ- प्रभु धन का विभाग करते हैं। यदि धन एक स्थान पर केन्द्रित होने लगता है तो दुरितों की वृद्धि हो जाती है, अतः 'मेधातिथि' समझदारी से चलनेवाला, धन को केन्द्रित नहीं होने देता।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top