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  • यजुर्वेद - अध्याय 5/ मन्त्र 27
    ऋषिः - औतथ्यो दीर्घतमा ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - ब्राह्मी जगती, स्वरः - निषादः
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    उद्दिव॑ꣳ स्तभा॒नान्तरि॑क्षं पृण॒ दृꣳह॑स्व पृथि॒व्यां द्यु॑ता॒नस्त्वा॑ मारु॒तो मि॑नोतु मि॒त्रावरु॑णौ ध्रु॒वेण॒ धर्म॑णा। ब्र॒ह्म॒वनि॑ क्षत्र॒वनि॑ रायस्पोष॒वनि॒ पर्यू॑हामि। ब्रह्म॑ दृꣳह क्ष॒त्रं दृ॒ꣳहायु॑र्दृꣳह प्र॒जां दृ॑ꣳह॥२७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत्। दिव॑म्। स्त॒भा॒न॒। आ। अ॒न्तरि॑क्षम्। पृ॒ण॒। दृꣳह॑स्व। पृ॒थि॒व्याम्। द्यु॒ता॒नः। त्वा॒। मा॒रु॒तः। मि॒नो॒तु॒। मि॒त्राव॑रुणौ। ध्रु॒वेण॑। धर्म॑णा। ब्र॒ह्म॒वनीति॑ ब्रह्म॒ऽवनि॑। त्वा॒। क्ष॒त्र॒वनीति॑ क्षत्र॒ऽवनि॑। रा॒य॒स्पो॒ष॒वनीति॑ रायस्पोष॒ऽवनि॑। परि॑। ऊ॒हा॒मि॒। ब्रह्म॑। दृ॒ꣳह॒। क्ष॒त्रम्। दृ॒ꣳह॒। आयुः॑। दृ॒ꣳह॒। प्र॒जामिति॑ प्र॒ऽजाम्। दृ॒ꣳह॒॑ ॥२७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उद्दिवँ स्तभानान्तरिक्षम्पृण दृँहस्व पृथिव्यान्द्युतानास्त्वा मारुतो मिनोतु मित्रावरुणौ धु्रवेण धर्मणा । ब्रह्मवनि त्वा क्षत्रवनि त्वा रायस्पोषवनि पर्यूहामि । ब्रह्म दृँह क्षत्रन्दृँहायुर्दृँह प्रजान्दृँह ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उत्। दिवम्। स्तभान। आ। अन्तरिक्षम्। पृण। दृꣳहस्व। पृथिव्याम्। द्युतानः। त्वा। मारुतः। मिनोतु। मित्रावरुणौ। ध्रुवेण। धर्मणा। ब्रह्मवनीति ब्रह्मऽवनि। त्वा। क्षत्रवनीति क्षत्रऽवनि। रायस्पोषवनीति रायस्पोषऽवनि। परि। ऊहामि। ब्रह्म। दृꣳह। क्षत्रम्। दृꣳह। आयुः। दृꣳह। प्रजामिति प्रऽजाम्। दृꣳह॥२७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 5; मन्त्र » 27
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    पदार्थ -

    दीर्घतमा को, जिसने गत मन्त्र में सब लोकों के शोधन की प्रार्थना की है, प्रभु प्रेरणा देते हैं कि— १. ( दिवं उत्स्तभान ) = तू अपने मस्तिष्क को ऊपर थाम। जैसे पर्वत के मेखलाप्रदेश में ही बादल उमड़ते हैं और उसका शिखर सूर्य के प्रकाश से दीप्त रहता है, उसी प्रकार तेरा मस्तिष्क भी ज्ञान की ज्योति से जगमगाता रहे। वह कभी भ्रमों व सन्देहों से न भर जाए। 

    २. ( अन्तरिक्षम् ) = तू अपने हृदयान्तरिक्ष को ( पृण ) = परिपूरण कर। अपने हृदय को वासनाओं के आक्रमण से सुरक्षित कर। 

    ३. ( पृथिव्यां दृंहस्व ) = इस शरीर में तू दृढ़ बन। शरीर ही पृथिवी है। जैसे पृथिवी दृढ़ है, उसी प्रकार तू दृढ़ शरीरवाला बन। 

    ४. ( द्युतानः ) = [ दिवं तनोति ] ज्ञान का विस्तार करनेवाला ( मारुतः ) = प्राण-साधना करनेवाला विद्वान् ( त्वा ) = तुझे ( मिनोतु ) = विषयों से परे फेंके, अर्थात् विषयवासना के संसार में उलझने न दे। 

    ५. ( मित्रावरुणौ ) = स्नेह की देवता तथा द्वेष-निवारण की देवता तुझे ( ध्रुवेण धर्मणा ) = ध्रुव धर्म से युक्त करें, अर्थात् स्नेह व अद्वेष तुझे धर्म के मार्ग पर दृढ़ करें। 

    ६. ( ब्रह्मवनि ) = ज्ञान का विजय करनेवाले ( त्वा ) = तुझे, ( क्षत्रवनि ) = बल का विजय करनेवाले, ( रायस्पोषवनि ) = धन के पोषण का विजय करनेवाले ( त्वा ) = तुझको ( पर्यूहामि ) = मैं अपने समीप प्राप्त कराता हूँ। वस्तुतः प्रभु को वही प्राप्त करता है जो ज्ञान के द्वारा अध्यात्म उन्नति का साधन करता है, बल के द्वारा शरीर की उन्नति का साधन करता है और धन से सांसारिक उन्नति को सिद्ध करता है। ज्ञान से ‘सत्य’, बल से ‘यश’ तथा धन से ‘शक्ति’ साधन करके हम प्रभु को प्राप्त करते हैं। 

    ७. अतः तू ( ब्रह्म दृंह ) = अपने ज्ञान को दृढ़ कर, ( क्षत्रं दृंह ) = बल को दृढ़कर, ( आयुः दृंह ) = अपनी आयु को दृढ़कर और ( प्रजाम् ) = प्रजा को ( दृंह ) = दृढ़ कर। वस्तुतः ज्ञान की दृढ़ता से जीवन की दृढ़ता होती है और बल की दृढ़ता से सन्तान की दृढ़ता सिद्ध होती है। ज्ञान से जीवन, बल से सन्तान उत्तम होते हैं।

    भावार्थ -

    भावार्थ — प्रभु को प्राप्त करने के लिए जहाँ ज्ञान और बल की आवश्यकता है, वहाँ जीवन व सन्तान को सुन्दर बनाना भी नितान्त आवश्यक है।

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