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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 14

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 14/ मन्त्र 6
    सूक्त - भृगुः देवता - आज्यम्, अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - स्वर्ज्योति प्राप्ति सूक्त

    अ॒जम॑नज्मि॒ पय॑सा घृ॒तेन॑ दि॒व्यं सु॑प॒र्णं प॑य॒सं बृ॒हन्त॑म्। तेन॑ गेष्म सुकृ॒तस्य॑ लो॒कं स्व॑रा॒रोह॑न्तो अ॒भि नाक॑मुत्त॒मम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒जम् । अ॒न॒ज्मि॒ । पय॑सा । घृ॒तेन॑ । दि॒व्यम् । सु॒ऽप॒र्णम् । प॒य॒सम् । बृ॒हन्त॑म् । तेन॑ । गे॒ष्म॒ । सु॒ऽकृ॒तस्य॑ । लो॒कम् । स्व᳡: । आ॒ऽरोह॑न्त: । अ॒भि । नाक॑म् । उ॒त्ऽत॒मम् ॥१४.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अजमनज्मि पयसा घृतेन दिव्यं सुपर्णं पयसं बृहन्तम्। तेन गेष्म सुकृतस्य लोकं स्वरारोहन्तो अभि नाकमुत्तमम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अजम् । अनज्मि । पयसा । घृतेन । दिव्यम् । सुऽपर्णम् । पयसम् । बृहन्तम् । तेन । गेष्म । सुऽकृतस्य । लोकम् । स्व: । आऽरोहन्त: । अभि । नाकम् । उत्ऽतमम् ॥१४.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 14; मन्त्र » 6

    पदार्थ -

    १. (पयसा) = शक्तियों के आप्यायन  के द्वारा तथा (घृतेन) = ज्ञानदीप्ति के द्वारा (अजम्) = गति के द्वारा सब बुराईयों को परे फेकने वाले प्रभु को (अनज्मि) = मैं प्राप्त होता हूँ | उस प्रभु को जो (दिव्यम्) = सदा ज्ञान के प्रकश में निवास वाले हैं, (सुपर्णम्) = उत्तमता से हमारा पालन व पूरण करनेवाले हैं,, (पयसम्) = आप्यान - बर्धन के करण हैं , (बर्हन्तम्) = स्वयं सदा बढ़े हुए हैं | २. (तेन) = उस प्रभु ले द्वारा - प्रभु की उपासना द्वारा (सुकृतस्य लोकम्) = पुण्य के लोक को (गेष्म) = जाएँ। (स्वः आरोहन्तः) = उस स्वयं देदीप्यमान ज्योति की और आरोहण करते हुए हम (उत्तमं नाकम्) = दुःख-संस्पर्शशून्य उत्तम लोक की (अभि) = ओर जानेवाले हो | इसी नक्लोक से ऊपर उड़कर हम प्रभु को प्राप्त करेंगे।

    भावार्थ -

    प्रभु-प्राप्ति का मार्ग यही है कि हम इन्द्रियों की शक्ति का वर्धन करें और ज्ञान प्राप्ति में लगे रहें।

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