यजुर्वेद - अध्याय 10/ मन्त्र 27
ऋषिः - शुनःशेप ऋषिः
देवता - यजमानो देवता
छन्दः - पिपीलिकामध्या विराट् गायत्री,
स्वरः - षड्जः
1
निष॑साद धृ॒तव्र॑तो॒ वरु॑णः प॒स्त्यास्वा। साम्रा॑ज्याय सु॒क्रतुः॑॥२७॥
स्वर सहित पद पाठनि॒। स॒सा॒द॒। धृ॒तव्र॑त॒ इति॑ धृ॒तऽव्र॑तः। वरु॑णः। प॒रत्या᳖सु। आ। साम्रा॑ज्या॒येति॑ साम्ऽरा॑ज्याय। सु॒क्रतु॒रि॒ति॑ सु॒ऽक्रतुः॑ ॥२७॥
स्वर रहित मन्त्र
निषसाद घृतव्रतो वरुणः पस्त्यास्वा । साम्राज्याय सुक्रतुः ॥
स्वर रहित पद पाठ
नि। ससाद। धृतव्रत इति धृतऽव्रतः। वरुणः। परत्यासु। आ। साम्राज्यायेति साम्ऽराज्याय। सुक्रतुरिति सुऽक्रतुः॥२७॥
विषय - सम्राट् वरुण ।
भावार्थ -
( धृतव्रतः ) व्रत, प्रजा पालन के शुभ व्रत और राज्य- व्यवस्था को धारण करनेवाला ( सुक्रतुः) उत्तम क्रियावान् प्रज्ञावान् ( वरुणः ) सर्वश्रेष्ठ राजा ( पस्त्यासु ) न्याय गृहों में और प्रजाओं के के बीच में ( साम्राज्याय ) साम्राज्य के स्थापन और उसके सञ्चालन के लिये (आ नि- ससाद ) अधिष्ठाता रूप से विराजमान हो ॥ ५। ४ । ४ । ५ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -
शुनःशेप ऋषिः । वरुणो देवता । पिपीलिका मध्या विराड् गायत्री । षड्जः ॥
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