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  • यजुर्वेद - अध्याय 10/ मन्त्र 34
    ऋषिः - शुनःशेप ऋषिः देवता - अश्विनौ देवते छन्दः - भूरिक पङ्क्ति, स्वरः - गान्धारः
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    पु॒त्रमि॑व पि॒तरा॑व॒श्विनो॒भेन्द्रा॒वथुः॒ काव्यै॑र्द॒ꣳसना॑भिः। यत्सु॒रामं॒ व्यपि॑बः॒ शची॑भिः॒ सर॑स्वती त्वा मघवन्नभिष्णक्॥३४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पु॒त्रमि॒वेति॑ पु॒त्रम्ऽइ॑व। पि॒तरौ॑। अ॒श्विना॑। उ॒भा। इन्द्र॑। आ॒वथुः॑। काव्यैः॑। द॒ꣳसना॑भिः। यत्। सु॒राम॑म्। वि। अपि॑बः। शची॑भिः। सर॑स्वती। त्वा॒ म॒घ॒व॒न्निति॑ मघऽवन्। अ॒भि॒ष्ण॒क् ॥३४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पुत्रमिव पितरावश्विनोभेन्द्रावथुः काव्यैर्दँसनाभिः । यत्सुरामँव्यपिबः शचीभिः सरस्वती त्वा मघवन्नभिष्णक् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    पुत्रमिवेति पुत्रम्ऽइव। पितरौ। अश्विना। उभा। इन्द्र। आवथुः। काव्यैः। दꣳसनाभिः। यत्। सुरामम्। वि। अपिबः। शचीभिः। सरस्वती। त्वा मघवन्निति मघऽवन्। अभिष्णक्॥३४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 10; मन्त्र » 34
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    भावार्थ -

    ( पितरौ पुत्रम् इव ) जिस प्रकार माता और पिता, पुत्र की रक्षा करते हैं उसी प्रकार ( अश्विनौ ) राष्ट्र में व्यापक शक्तिवाले समाध्यक्ष और सेनाध्यक्ष या रक्षक दो घुड़सवार अथवा राष्ट्र के नर और नारीगणा ( काव्यैः ) विद्वान् पुरुषों द्वारा रचे गये ( सनाभिः ) उपायोंऔर प्रयोगों द्वारा हे ( इन्द्र ) इन्द्र ! राजन् ! तेरी ( अवथुः ) रक्षा करें ।और ( यत् ) जब तू अपनी ( शचीभिः ) शक्तियों के बल से सुरामम् ) अति सुन्दर, रमणीय, सुख से स्मरण करने योग्य 'सोम' राज्यपद का (वि- अपिब: ) भोगकर रहा हो तब हे ( मघवन् ) ऐश्वर्यवन् राजन् ! ( सरस्वती ) विद्या या ज्ञानमयी वाणी के समान सुखप्रदा पत्नी भी (त्वा) तुझे ( अभिष्णक् ) प्राप्त हो, तुझे सुख प्रदान करे ॥ शत० ५। ५ । ४ । ५६ ॥ अर्थात् – सभाध्यक्ष, सेनाध्यक्ष राजा को अपने पुत्र के समान नाना उपायों से रक्षा करे और राजा की शक्तियों द्वारा सुरक्षित राष्ट्र रहने पर राजा विदुषी पत्नी से गृहस्थ का सुख भी ले ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    अश्विनौ देवते । भुरिक पंक्तिः । पञ्चमः ॥

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