यजुर्वेद - अध्याय 14/ मन्त्र 11
ऋषिः - विश्वेदेवा ऋषयः
देवता - इन्द्राग्नी देवते
छन्दः - भुरिगनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
1
इन्द्रा॑ग्नी॒ऽ अव्य॑थमाना॒मिष्ट॑कां दृꣳहतं यु॒वम्। पृ॒ष्ठेन॒ द्यावा॑पृथि॒वीऽ अ॒न्तरि॑क्षं च॒ विबा॑धसे॥११॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रा॑ग्नी॒ इतीन्द्रा॑ग्नी। अव्य॑थमानाम्। इष्ट॑काम्। दृ॒ꣳह॒त॒म्। यु॒वम्। पृ॒ष्ठेन॑। द्यावा॑पृथि॒वी इति॒ द्यावा॑ऽपृथि॒वी। अ॒न्तरि॑क्षम्। च॒। वि। बा॒ध॒से॒ ॥११ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्राग्नीऽअव्यथमानामिष्टकान्दृँहतँयुवम् । पृष्ठेन द्यावापृथिवी अन्तरिक्षञ्च विबाधसे ॥
स्वर रहित पद पाठ
इन्द्राग्नी इतीन्द्राग्नी। अव्यथमानाम्। इष्टकाम्। दृꣳहतम्। युवम्। पृष्ठेन। द्यावापृथिवी इति द्यावाऽपृथिवी। अन्तरिक्षम्। च। वि। बाधसे॥११॥
विषय - राजा सेनापति या पुरोहित का कर्तव्य प्रजापालन।
भावार्थ -
हे ( इन्द्राग्नी ) इन्द्र और अग्नि सेनापति और राजा या राजा और पुरोहित ! ( युवम् ) तुम दोनों ( अव्यथमानाम् ) पीड़ा को प्राप्त न होती हुई ( इष्टकाम् ) ऐश्वर्यों को प्रदान करने वाली प्रजा को ( दृंहतम् ) दृढ़ करो। हे प्रजे ! तू ( पृष्ठेन ) अपनी पृष्ट से ( द्यावापृथिवी ) द्यौ, पृथिवी और ( अन्तरिक्षं च ) अन्तरिक्ष तीनों लोकों को, ( विबाधसे ) प्राप्त होती है । सब स्थानों के भोग्य पदार्थों को प्राप्त होती है॥ शत० ८ । ३ । १ । ८ ॥
अथवा – हे इन्द्र और अग्नि के समान तेजस्वी स्त्री पुरुषो ! तुम दोनों अपीड़ित, इष्ट बुद्धि को प्राप्त होकर गृहस्थाश्रम को दृढ़ करो। वह गृहस्थाश्रम आकाश, पृथिवी, और अन्तरिक्ष माता पिता और पति तीनों की सेवा करती है।
टिप्पणी -
१ बाधृ विलोडने भ्वादि: । अथ तृतीया चितिः ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विश्वकर्मा ऋषि । इन्द्राग्नी देवता भुरिगनुष्टुप् । गांधारः ॥
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