यजुर्वेद - अध्याय 14/ मन्त्र 31
ऋषिः - विश्वदेव ऋषिः
देवता - प्रजापतिर्देवता
छन्दः - निचृदतिधृतिः
स्वरः - षड्जः
1
नव॑विꣳशत्याऽस्तुवत॒ वन॒स्पत॑योऽसृज्यन्त॒ सोमोऽधि॑पतिरासी॒त्। एक॑त्रिꣳशताऽस्तुवत प्र॒जाऽ अ॑सृज्यन्त॒ यवा॒श्चाय॑वा॒श्चाधि॑पतयऽआस॒न्। त्रय॑स्त्रिꣳशताऽस्तुवत भू॒तान्य॑शाम्यन् प्र॒जाप॑तिः परमे॒ष्ठ्यधि॑पतिरासीत्॥३१॥
स्वर सहित पद पाठनव॑विꣳश॒त्येति॒ नव॑ऽविꣳशत्या। अ॒स्तु॒व॒त॒। वन॒स्पत॑यः। अ॒सृ॒ज्य॒न्त॒। सोमः॑। अधि॑पति॒रित्यधि॑ऽपतिः। आ॒सी॒त्। एक॑त्रिꣳश॒तेत्येक॑ऽत्रिꣳशता। अ॒स्तु॒व॒त॒। प्र॒जा इति॑ प्र॒ऽजाः। अ॒सृ॒ज्य॒न्त॒। यवाः॑। च॒। अय॑वाः। च॒। अधि॑पतय॒ इत्यधि॑ऽपतयः। आ॒स॒न्। त्रय॑स्त्रिꣳश॒तेति॒ त्रयः॑ऽत्रिꣳशता। अ॒स्तु॒व॒त॒। भू॒तानि॑। अ॒शा॒म्य॒न्। प्र॒जाप॑ति॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तिः। प॒र॒मे॒ष्ठी। प॒र॒मे॒ऽस्थीति॑ परमे॒ऽस्थी। अधि॑पति॒रित्यधि॑ऽपतिः। आ॒सी॒त् ॥३१ ॥
स्वर रहित मन्त्र
नवविँशत्यास्तुवत वनस्पतयोसृज्यन्त सोमोधिपतिरासीदेकत्रिँशतास्तुवत प्रजाऽअसृज्यन्त यवाश्चायवाश्चाधिपतयऽआसँस्त्रयस्त्रिँशतास्तुवत भूतान्यशाम्यन्प्रजापतिः परमेष्ठ्यधिपतिरासील्लोकन्ताऽइन्द्रम्॥ गलितमन्त्रा--- लोकम्पृण च्छिद्रम्पृणाथो सीद धु्रवा त्वम् । इन्द्राग्नी त्वा बृहस्पतिरस्मिन्योनावसीषदन् ॥ ताऽअस्य सूददोहसः सोमँ श्रीणन्ति पृश्नयः । जन्मन्देवानाँविशस्त्रिष्वा रोचने दिवः ॥ इन्द्रँविश्वाऽअवीवृधन्त्समुद्रव्यचसङ्गिरः रथीतमँ रथीनां वाजानाँ सत्पतिम्पतिम्॥
स्वर रहित पद पाठ
नवविꣳशत्येति नवऽविꣳशत्या। अस्तुवत। वनस्पतयः। असृज्यन्त। सोमः। अधिपतिरित्यधिऽपतिः। आसीत्। एकत्रिꣳशतेत्येकऽत्रिꣳशता। अस्तुवत। प्रजा इति प्रऽजाः। असृज्यन्त। यवाः। च। अयवाः। च। अधिपतय इत्यधिऽपतयः। आसन्। त्रयस्त्रिꣳशतेति त्रयःऽत्रिꣳशता। अस्तुवत। भूतानि। अशाम्यन्। प्रजापतिरिति प्रजाऽपतिः। परमेष्ठी। परमेऽस्थीति परमेऽस्थी। अधिपतिरित्यधिऽपतिः। आसीत्॥३१॥
विषय - नाना प्रकार की ब्रह्मशक्ति और राष्ट्र व्यवस्थाओं का देह की व्यवस्थानुसार वर्णन ।
भावार्थ -
१५. ( नवविंशत्या अस्तुवत ) देह में हाथों पैरों को दस २ अंगुलियां, ६ प्राण हैं उसी प्रकार २६ घटक शक्तियां विश्व को रच रही हैं। उन द्वारा विद्वान् जन विधाता प्रजापति की स्तुति करते हैं । ( वनस्पतयः असृज्यन्त ) उन घटक शक्तियों से ही वनस्पतियों को बनाया गया है । उनका ( सोम अधिपतिः आसीत् ) सोम अधिपति है ।
१६. ( एकत्रिंशता अस्तुवत ) हाथ पैर की दस २ अंगुलियां, १० प्राण और ३१ व आत्मा उन घटकों से समस्त शरीर बने हैं। उन शक्तियों द्वारा ही विद्वान् जन विधाता के कौशल का वर्णन करते हैं । इनसे ही ( प्रजाः असृज्यन्त ) समस्त प्रजा सृजी गयी है । उनके ( यवाः च अयवाः च अधिपतयः आसन् ) उनके पूर्व पक्ष और अपर पक्ष अथवा मिथुन भूत जोड़े अमैथुनी अथवा जन्तु शरीरों में होने वाले ऋतु धर्म सम्बन्धी पूर्वोत्तर पक्ष या ( यवाः ) पुरुष और ( अयवा ) स्त्रिये ही उनके अधिपति हैं ।
१७. ( त्रयः त्रिंशता अस्तुवन् ) हाथों पैरों की दस २ अंगुलियां, दश प्राण, २ चरण और ३३ वां आत्मा ये सब पूर्ण शरीर के मुख्य मुख्य घटक हैं, और उसी प्रकार ३३ ही ब्रह्माण्ड के भी घटक हैं उनके द्वारा ही परम विधाता की विद्वान स्तुति करते हैं। उनसे ही ( भूतानि ) समस्त प्राणि गण ( अशाम्यन् ) सुखी होते हैं। उन सब का ( परमेष्ठी प्रजापतिः अधिपतिः आसीत् ) परमेष्ठी सर्वोच्च पद पर प्रजापति परमात्मा ही सबका अधिपति है । ८। ४ । ३ । १-१६ ॥
राष्ट्र पक्ष में १, ३, ५, ७, ६, ११, १३, १५, १७, १६, २१, २३, २५, २७, २६, ३१, और ३३ इन भिन्न २ घटक अड्गों से बने राज्यों एवं राजाओं को परमेश्वर के बनाये देह के मुख्यांगों की रचना के अनुसार बनाना चाहिये और उनके अधिपति भी भिन्न २ योग्यता के पुरुषों को रखना चाहिये । और विद्वान् लोग उन घटक अवयवों का ही उत्तम रीति से ( अस्तुवत ) उपदेश करें और तदनुसार राज्यों की कल्पना करें । उन राष्ट्र के भिन्न २ भागों में प्रजापति ब्रह्मणस्पति, धाता, अदिति, आर्तव आदि नामधारी मुख्य पदाधिकारियों को नियत करें।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - स्वराड् ब्राह्मी जगती । निषादः ॥
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