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  • यजुर्वेद - अध्याय 14/ मन्त्र 30
    ऋषिः - विश्वदेव ऋषिः देवता - जगदीश्वरो देवता छन्दः - स्वराड् ब्राह्मी जगती, ब्राह्मी पङ्क्तिः स्वरः - निषादः, पञ्चमः
    1

    न॒व॒द॒शभि॑रस्तुवत शूद्रा॒र्य्याव॑सृज्येतामहोरा॒त्रेऽ अधि॑पत्नीऽ आस्ता॒म्। एक॑विꣳशत्यास्तुव॒तैक॑शफाः प॒शवो॑ऽसृज्यन्त॒ वरु॒णोऽधि॑पतिरासी॒त्। त्रयो॑विꣳशत्यास्तुवत क्षु॒द्राः प॒शवो॑ऽसृज्यन्त पू॒षाधि॑पतिरासी॒त्। पञ्च॑विꣳशत्यास्तुवताऽऽर॒ण्याः प॒शवो॑ऽसृज्यन्त वा॒युरधि॑पतिरासीत्। स॒प्तवि॑ꣳशत्यास्तुवत॒ द्यावा॑पृथि॒वी व्यै॑तां॒ वस॑वो रु॒द्रोऽ आ॑दि॒त्याऽ अ॑नु॒व्यायँ॒स्तऽ ए॒वाधि॑पतयऽ आसन्॥३०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न॒व॒द॒शभि॒रिति॑ नवऽद॒शभिः॑। अ॒स्तु॒व॒त॒। शू॒द्रा॒र्य्यौ। अ॒सृ॒ज्ये॒ता॒म्। अ॒हो॒रा॒त्र इत्य॑हो॒रा॒त्रे। अधि॑पत्नी॒ इत्यधि॑ऽपत्नी। आ॒स्ता॒म्। एक॑विꣳश॒त्येक॑ऽविꣳशत्या। अ॒स्तु॒व॒त॒। एक॑शफा॒ इत्येक॑ऽशफाः॒। प॒शवः॑। अ॒सृ॒ज्य॒न्त॒। वरु॑णः। अधि॑पति॒रित्यधि॑ऽपतिः। आ॒सी॒त्। त्रयो॑विꣳश॒त्येति॒ त्रयः॑ऽविंशत्या। अ॒स्तु॒व॒त॒। क्षु॒द्राः। प॒शवः॑। अ॒सृ॒ज्य॒न्त॒। पू॒षा। अधि॑पति॒रित्यधि॑ऽपतिः। आ॒सी॒त्। पञ्च॑विꣳश॒त्येति॒ पञ्च॑ऽविꣳशत्या। अ॒स्तु॒व॒त॒। आ॒र॒ण्याः। प॒शवः॑। अ॒सृ॒ज्य॒न्त॒। वा॒युः। अधि॑पति॒रित्यधि॑ऽपतिः। आ॒सी॒त्। स॒प्तविं॑ꣳश॒त्येति॑ स॒प्तऽविं॑ꣳशत्या। अ॒स्तु॒व॒त॒। द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ द्यावा॑पृथि॒वी। वि। ऐ॒ता॒म्। वस॑वः। रु॒द्राः। आ॒दि॒त्याः। अ॒नु॒व्या᳖य॒न्नित्य॑नु॒ऽव्या᳖यन्। ते। ए॒व। अधि॑पतय॒ इत्यधि॑ऽपतयः। आ॒स॒न् ॥३० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नवदशभिरस्तुवत शूद्रार्यावसृज्येतामहोरात्रेऽअधिपत्नीऽआस्तामेकविँशत्यास्तुवतैकशफाः पशवोसृज्यन्त वरुणो धिपतिरासीत्त्रयोविँशत्यास्तुवत क्षुद्राः पशवोसृज्यन्त पूषाधिपतिरासीत्पञ्चविँशत्यास्तुवतारण्याः पशवोसृज्यन्त वायुरधिपतिरासीत्सप्तविँशत्यास्तुवत द्यावापृथिवी व्यैताँवसवो रुद्राऽआदित्याऽअनुव्यायँस्तऽएवाधिपतय आसन्नवविँशत्यास्तुवत ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    नवदशभिरिति नवऽदशभिः। अस्तुवत। शूद्रार्य्यौ। असृज्येताम्। अहोरात्र इत्यहोरात्रे। अधिपत्नी इत्यधिऽपत्नी। आस्ताम्। एकविꣳशत्येकऽविꣳशत्या। अस्तुवत। एकशफा इत्येकऽशफाः। पशवः। असृज्यन्त। वरुणः। अधिपतिरित्यधिऽपतिः। आसीत्। त्रयोविꣳशत्येति त्रयःऽविंशत्या। अस्तुवत। क्षुद्राः। पशवः। असृज्यन्त। पूषा। अधिपतिरित्यधिऽपतिः। आसीत्। पञ्चविꣳशत्येति पञ्चऽविꣳशत्या। अस्तुवत। आरण्याः। पशवः। असृज्यन्त। वायुः। अधिपतिरित्यधिऽपतिः। आसीत्। सप्तविंꣳशत्येति सप्तऽविंꣳशत्या। अस्तुवत। द्यावापृथिवी इति द्यावापृथिवी । वि। एेताम्। वसवः। रुद्राः। आदित्याः। अनुव्यायन्नित्यनुऽव्यायन्। ते। एव। अधिपतय इत्यधिऽपतयः। आसन्॥३०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 14; मन्त्र » 30
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    भावार्थ -
    १०. ( नव दशभि: अस्तुवत) दश हाथों की अंगुलियां और शरीर गत ६ प्रारण ये १६ जिस प्रकार शरीर की रक्षा करते हैं और उसको चेतन बनाये रखते हैं उसी प्रकार १६ धारक और पालक बल विश्व को थामे हैं, उन १६ शक्तियों के वर्णन द्वारा भी उसी परमेश्वर की रचना कोशल की विद्वान् गण स्तुति करते हैं उन १६ अभ्यन्तर और बाह्य अंगों के समान ही ( शूद्रार्यौ असज्येताम् ) शूद्र और आर्य, श्रमजीवी और स्वामी लोगों के परस्पर संघों की रचना हुई है। शूद्र बाहर के हाथों की अंगुलियों के समान और आर्य या श्रेष्ठ स्वामी गए समाज के भीतरी प्राणों के समान रहें। उनके ( अहोरात्रे अधिपत्नी आस्ताम् ) दिन, रात ये दो ही अधिपति या पालक हैं अर्थात् दिन, प्रकाशमान और रात्रि अन्धकारमय है । इसी प्रकार शूद्र कर्म कर ज्ञान रहित और आये ज्ञानवान् हैं । अहोरात्र का सम्मिलित स्वरूप उभयविध ज्ञान-कर्ममय प्रजापति ही शूद आर्य दोनों का पालक है । ११. . ( एकविंशत्या अस्तुवत ) १० हाथ की और १० पैर की अंगुलियां हैं और आत्मा २१ वां हैं। उसी प्रकार विश्व में भी उत्तर और अधर लोकों की १०, १० कार्यकारिणी और पालनकारिणी शक्तियां काम कर रहीं है । उनको देखकर उन द्वारा भी विद्वान्जन प्रजाति की स्तुति करते उसकी रचना के गुणों का दर्शन करते और उसका अनुकरण करते हैं। उसके अनुकूल ( एकशफाः पशवः असृज्यन्त ) एक खुर वाले पशुओं की रचना हुई । अर्थात् हाथ की दशों अंगुलियों के समान १० दिशागामी १० दिशाओं में दश सेनाएं और उनके सहायतार्थ घोड़े, खच्चर आदि उपयोगी पशु पैदा किये जाते है। उनका ( अधिपतिः वरुणः आसीत् ) अधिपति 'वरुण' और सर्वश्रेष्ठ सब शत्रुओं को वारक सेनापति पुरुष है । १२. ( त्रयोविंशत्या ) अस्तुवत १० हाथ की और १० पैर की अंगुलियां दो पैर और २३ व आत्मा देह में विद्यमान है । उसी प्रकार ब्रह्माण्ड में २३ महान् शक्तियां कार्य कर रही हैं। उन २३ स्वरूपों से ही विद्वान् गण परमेश्वर की स्तुति करते हैं । ( वृद्राः पशवः सृज्यन्त ) उक्त अंगों की शक्तियों द्वारा वृद पशुओं की रचना हुई है। उन सब का ( पूषा अधिपतिः ) अधिपति पूषा, अन्नमय अन्नदात्री पृथिवी ही है । १३. (पञ्चविंशत्या अस्तुवत ) हाथों, पैरों की दश दश अंगुलियां, दो बाहु, दो पैर और २५ व आत्मा ये देह के घटक हैं। इसी प्रकार सृष्टि रचना के भी घटक ये ही पदार्थ हैं, उनके द्वारा विद्वान् विधाता की स्तुति करते हैं । उन घटक अवयवों से ही (अरण्याः पशवः असृज्यन्त) जंगली पशु रचे गये हैं । ( वायुः अधिपतिः आसीत् ) तीव्र गतिशील वायु के समान, वेगवान् पालक ही उनका अधिपति है । १४ ( सप्तविंशत्या अस्तुवत) हाथों पैरों की दस २ अंगुलियां २ बाहु और २ टांगें, दो चरण एक आत्मा ये सत्ताईस शरीर के घटक हैं। इन सत्ताईस घटक अंगों के सञ्चालक महती शक्तियों के द्वारा ही विद्वान् पुरुष विधाता की स्तुति करते हैं । उनके द्वारा ही ( द्यावापृथिवी व्यैताम् ) द्यौ और पृथिवी दोनों व्याप्त होते हैं और उनमें ही ( वसवः ) आठ वसु, ( रुद्रा : ) ११ प्राण और ( आदित्याः ) १२ मास ( अनु-वि -द्ययन् ) उनके भी भीतर व्यास है । ( त एव ) वे ही उन दोनों आकाश और पृथिवी के ( अधिपतयः आसन् ) अधिपति या पालक हैं ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - १-ब्राह्मी जगती । निषादः । २ ब्राह्मी पंक्तिः । पञ्चमः ॥

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