यजुर्वेद - अध्याय 27/ मन्त्र 40
ऋषिः - वामदेव ऋषिः
देवता - इन्द्रो देवता
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
1
कस्त्वा॑ स॒त्यो मदा॑नां॒ मꣳहि॑ष्ठो मत्स॒दन्ध॑सः।दृ॒ढा चि॑दा॒रुजे॒ वसु॑॥४०॥
स्वर सहित पद पाठकः। त्वा॒। स॒त्यः। मदा॑नाम्। मꣳहि॑ष्ठः। म॒त्स॒त्। अन्ध॑सः। दृ॒ढा। चि॒त्। आ॒रुज॒ऽइत्या॒ऽरुजे॑। वसु॑ ॥४० ॥
स्वर रहित मन्त्र
कस्त्वा सत्यो मदानाँ मँहिष्ठो मत्सदन्धसः । दृढा चिदारुजे वसु ॥
स्वर रहित पद पाठ
कः। त्वा। सत्यः। मदानाम्। मꣳहिष्ठः। मत्सत्। अन्धसः। दृढा। चित्। आरुजऽइत्याऽरुजे। वसु॥४०॥
विषय - इन्द्र नायक का वर्णन।
भावार्थ -
हे राजन् ! सेनापते ! ( मदानाम् ) इर्षजनक पदार्थों में से (मंहिष्ठः) सब से उत्तम ( अन्धसः) भोग्य योग्य राष्ट्र का (कः) कौनसा अंश या स्वरूप ( त्वा मत्सत् ) तुझे सब से अधिक सुखी करता है । जिससे (दृढा चित् ) दृढ (वसु) वास योग्य पुरों को भी (आरुजे) तोड़ने को समर्थ करता है, वही अंश मुझे भी प्राप्त हो ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वामदेव ऋषिः । इन्द्रो देवता । निचृद् गायत्री । षड्जः ॥
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