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  • यजुर्वेद - अध्याय 27/ मन्त्र 45
    ऋषिः - शंयुर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदभिकृतिः स्वरः - ऋषभः
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    सं॒व॒त्स॒रोऽसि परिवत्स॒रोऽसीदावत्स॒रोऽसीद्वत्स॒रोऽसि वत्स॒रोऽसि। उ॒षस॑स्ते कल्पन्तामहोरा॒त्रास्ते॑ कल्पन्तामर्द्धमा॒सास्ते॑ कल्पन्तां॒ मासा॑स्ते कल्पन्तामृ॒तव॑स्ते कल्पन्ता संवत्स॑रस्ते॑ कल्पताम्। प्रेत्या॒ऽएत्यै॒ सं चाञ्च॒ प्र च॑ सारय। सु॒प॒र्ण॒चिद॑सि॒ तया॑ दे॒वत॑याऽङ्गिर॒स्वद् ध्रु॒वः सी॑द॥४५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सं॒व॒त्स॒रः। अ॒सि॒। प॒रि॒व॒त्स॒र इति॑ परिऽवत्स॒रः। अ॒सि॒। इ॒दा॒व॒त्स॒र। इती॑दाऽवत्स॒रः। अ॒सि॒। इ॒द्व॒त्स॒र इती॑त्ऽवत्स॒रः। अ॒सि॒। व॒त्स॒रः। अ॒सि॒। उ॒षसः॑। ते॒। क॒ल्प॒न्ता॒म्। अ॒हो॒रा॒त्राः। ते॒ क॒ल्प॒न्ता॒म्। अ॒र्द्ध॒मा॒साऽइत्य॑र्द्धऽमा॒साः। ते॒। क॒ल्प॒न्ता॒म्। मासाः॑। ते॒। क॒ल्प॒न्ता॒म्। ऋ॒तवः॑। ते॒। क॒ल्प॒न्ता॒म्। सं॒व॒त्स॒रः। ते॒। क॒ल्प॒ता॒म्। प्रेत्या॒ इति॒ प्रऽइ॑त्यै। एत्या॒ऽ इत्याऽइ॑त्यै। सम्। च॒। अञ्च॑। प्र। च॒। सा॒र॒य॒। सु॒प॒र्ण॒चिदिति॑ सुपर्ण॒ऽचित्। अ॒सि॒। तया॑। दे॒वत॑याः। अ॒ङ्गि॒र॒स्वदित्य॑ङ्गिरः॒ऽवत्। ध्रु॒वः। सी॒द॒ ॥४५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सँवत्सरोसि परिवत्सरोसीदावत्सरोसीद्वत्सरोसि वत्सरोसि । उषसस्ते कल्पन्तामहोरात्रास्ते कल्पन्तामर्धमासास्ते कल्पन्ताम्मासास्ते कल्पन्तामृतवस्ते कल्पन्ताँ सँवत्सरस्ते कल्पताम् । प्रेत्याऽएत्यै सञ्चाञ्च प्र च सारय । सुपर्णचिदसि तया देवतयाङ्गिरस्वद्धरुवः सीद ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    संवत्सरः। असि। परिवत्सर इति परिऽवत्सरः। असि। इदावत्सर। इतीदाऽवत्सरः। असि। इद्वत्सर इतीत्ऽवत्सरः। असि। वत्सरः। असि। उषसः। ते। कल्पन्ताम्। अहोरात्राः। ते कल्पन्ताम्। अर्द्धमासाऽइत्यर्द्धऽमासाः। ते। कल्पन्ताम्। मासाः। ते। कल्पन्ताम्। ऋतवः। ते। कल्पन्ताम्। संवत्सरः। ते। कल्पताम्। प्रेत्या इति प्रऽइत्यै। एत्याऽ इत्याऽइत्यै। सम्। च। अञ्च। प्र। च। सारय। सुपर्णचिदिति सुपर्णऽचित्। असि। तया। देवतयाः। अङ्गिरस्वदित्यङ्गिरःऽवत्। ध्रुवः। सीद॥४५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 27; मन्त्र » 45
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    भावार्थ -
    हे (अग्ने) सूर्य के समान तेजस्विन्! सूर्य जिस प्रकार पांच वर्ष वाले युग में संवत्सर, परिवत्सर, इदावत्सर, इद्वत्सर और वत्सर इन पंचरूपों में परिवर्तित होता है इसी प्रकार तू भी (संवत्सरः असि) तेरे संग समस्त प्राणी आकर बसते हैं, तुझे अभिवादन व स्तुति करते हैं इसलिये तू 'संवत्सर' है । (परिवत्सरः असि) तेरे चारों ओर तेरी शरण में लोग आ बसते हैं, चारों ओर तू स्तुति, अभिवादन किया जाता है, 'इसलिये तू 'परिवत्सर' है । (इदावत्सर: असि) अन्न के द्वारा तू सबको बसाता है, इससे तू 'इदावत्सर' है । (इद्वत्सर: असि) तू इस लोक को बसाता है अथवा जल आदि से तू लोकों का पालन करता है इससे तू `इद्वत्सर' है । (वत्सरः असि) तू पुत्रों के समान सब को आनन्द प्रसन्न रखता उनको ऐश्वर्य प्रदान करता है इससे तू 'वत्सर' है । इस प्रकार राजा संवत्सर प्रजापति के समान है । ( ते उपसः कल्पन्ताम् ) वर्ष की ३६५ उषाएं होती हैं इसी प्रकार तेरी उषाएं, दुष्टों के दमन और राष्ट्र के व्यवहार प्रकाशक कार्य को समृद्ध करने वाली शक्तियां नित्य बढ़े ।( अहोरात्रा : ते कल्पन्ताम् ) वर्ष के दिनों और रातों के समान तेरे राज्य में स्त्री पुरुषों की वृद्धि हो । ( अर्धमासाः ते कल्पन्ताम् ) अर्ध मासों के समान तेरे राज्य में आह्लादकारी, समृद्ध विद्वानों की वृद्धि हो । ( मासा : ते कल्पन्ताम् ) वर्ष के मासों के समान तेरे राज्य में आदित्य के समान तेजस्वी विद्वान् बढ़े । (ऋतवः ते कल्पन्ताम् ) ऋतुओं के समान तेरे राष्ट्र में राजसभा के सदस्यों की वृद्धि हो । (संवत्सरः ते कल्पन्ताम् ) संवत्सर स्वरूप प्रजापति पद उन्नति को प्राप्त हो । (प्र- इत्य) आगे बढ़कर और (आ-इत्य च ) पुन: लौट लौट कर तू ( सम् अञ्च) अपनी शक्तियों को एकत्र कर और (प्रसारय च) आगे भी बढ़ा। तू (सुपर्णचित् असि ) आदित्य के समान उत्तम पालन करने वाले साधनों, एवं उत्तम पुष्टिकारी पदार्थों का संग्रह करने वाला है । अथवा — सुपर्ण, उत्तम बलवान् पक्षी जिस प्रकार आकाशमार्ग को भली प्रकार तय करने के लिये अपने पंखों को संकोच करता और फैलाता है और सुन्दर, सुखदायी किरणों वाला सूर्य जिस प्रकार अपनी किरणों को नित्य नियम से फैलाता और संकुचित करता है उसी प्रकार हे अग्ने ! राजन् ! सेनापते ! तू भी अपनी सेनाओं को (सम् अञ्च) संयुक्त कर, संकुचित कर और फिर ( प्रसारय च ) फैला । इस प्रकार तू ( सुपर्णचित् ) गरुड़ पक्षी और सूर्य के समान है । अथवा प्राण जिस प्रकार ( प्र इत्य आ इत्य च ) एक बार बाहर जाता फिर लौट कर आता है ( सम् अञ्च, प्रसारय च) इसी प्रकार तू भी राष्ट्र से एक बार विदेश प्रयाण कर एक बार पुनः अपने देश में आकर ( सम् अञ्च) धन को संग्रह कर और उसको राष्ट्र में विस्तारित कर । इस प्रकार शरीर में प्राण के समान राष्ट्र के बीच में तू राष्ट्र का प्रांण, जीवन होकर उसको चैतन्य किये रह । (तया देवतया) उस चित्स्वरूप देवता, आत्मा के समान रूप से तू (अंगिरस्वत्) अंग-अंग में रस रूप होकर राष्ट्र के प्रत्येक भाग में, बलरूप होकर (ध्रुवः) निश्चित, स्थिर होकर (सीद) विराज, सिंहासन पर बैठ । ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अग्निर्देवता । निचृदभिकृतिः । ऋषभः ॥

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