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  • यजुर्वेद - अध्याय 6/ मन्त्र 2
    ऋषिः - शाकल्य ऋषिः देवता - सविता देवता छन्दः - निचृत् गायत्री,स्वराट् पङ्क्ति, स्वरः - षड्जः, धैवतः
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    अ॒ग्रे॒णीर॑सि स्वावे॒शऽउ॑न्नेतॄ॒णामे॒तस्य॑ वित्ता॒दधि॑ त्वा स्थास्यति दे॒वस्त्वा॑ सवि॒ता मध्वा॑नक्तु सुपिप्प॒लाभ्य॒स्त्वौष॑धीभ्यः। द्यामग्रे॑णास्पृक्ष॒ऽआन्तरि॑क्षं॒ मध्ये॑नाप्राः पृथि॒वीमुप॑रेणादृꣳहीः॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्रे॒णीः। अ॒ग्रे॒नीरित्य॑ग्रे॒ऽनीः। अ॒सि॒। स्वा॒वे॒श इति॑ सुऽआवे॒शः। उ॒न्ने॒तॄ॒णामित्यु॑त्ऽनेतॄ॒णाम्। ए॒तन्य॑। वि॒त्ता॒त्। अधि॑। त्वा॒। स्था॒स्य॒ति॒। दे॒वः। त्वा॒। स॒वि॒ता। मध्वा॑। अ॒न॒क्तु॒। सु॒पि॒प्प॒लाभ्य॒ इति॑ सुऽपिप्प॒लाभ्यः॑। त्वा॒। ओष॑धीभ्यः। द्याम्। अग्रे॑ण। अ॒स्पृ॒क्षः॒। आ। अ॒न्तरि॑क्षम्। मध्ये॑न। अ॒प्राः॒। पृ॒थि॒वीम्। उ॑परेण। अ॒दृ॒ꣳहीः॒ ॥२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्रेणीरसि स्वावेशऽउन्नेतऋृणामेतस्य वित्तादधि त्वा स्थास्यति देवस्त्वा सविता मध्वनक्तु सुपिप्पलाभ्यस्त्वौषधीभ्यः । द्यामग्रेणास्पृक्ष आन्तरिक्षम्मध्येनाप्राः पृथिवीमुपरेणादृँहीः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्रेणीः। अग्रेनीरित्यग्रेऽनीः। असि। स्वावेश इति सुऽआवेशः। उन्नेतॄणामित्युत्ऽनेतॄणाम्। एतन्य। वित्तात्। अधि। त्वा। स्थास्यति। देवः। त्वा। सविता। मध्वा। अनक्तु। सुपिप्पलाभ्य इति सुऽपिप्पलाभ्यः। त्वा। ओषधीभ्यः। द्याम्। अग्रेण। अस्पृक्षः। आ। अन्तरिक्षम्। मध्येन। अप्राः। पृथिवीम्। उपरेण। अदृꣳहीः॥२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 6; मन्त्र » 2
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    भावार्थ -

    हे राजन् ! हे सभाध्यक्ष ! तू ( अग्रेणी: असि ) तू शिष्यों को गुरु के समान आगे ले चलनेवाला अग्रणी है। तू (उत् नेतृणाम् ) ऊपर ऊंचे मार्ग में ले चलनेवाले, उत्तम कोटि के नेताओं को भी ( स्वावेशः ) उत्तम रीति से सन्मार्ग में ले चलने और स्थापित करनेवाला है । तू ( एतस्य ) इस महान् राष्ट्र के पालन कार्य को ( वित्तात् ) भली प्रकार जान या प्राप्त कर । ( देवः सविता ) सबका प्रेरक महान् देव, राजा या परमेश्वर ( त्वा अधि स्थास्यति ) तेरे पर भी अधिष्ठाता के रूप में विद्यमान रहेगा । और वही (त्वा) तुझको ( मध्वा ) मधुरगुण या मधुविद्या, ज्ञान से ( आनक्तु ) आओ, चमकावे विद्वान् करे । और वही ( त्वा ) तुझको ( सुपिप्पलाभ्यः) उत्तम फलवती ( ओषधीभ्यः ) दाहजनक सामर्थ्य को धारण करने और दोषों को नाश करने वाली क्रियाओं से भी ( आनक्तु ) प्रकाशित करे । तू ( अग्रेण ) अपने अग्रगामी यश या सर्वोत्कृष्ट 
    गुण से ( द्याम् अस्पृचः) द्यौलोक या सूर्य को या प्रजा के उत्कृष्ट भाग को वशकर, छू, स्पर्श कर, सूर्यलोक के समान बन। ( मध्येन ) अपने मध्य, बीच के साधारण कार्यों से ( अन्तरिक्षम् अप्राः ) अन्तरिक्ष को, प्रजा के मध्यम जनों को पूर्ण करें, पालन कर । और ( उपरेण ) अपने शेष नीचे के भाग से या उत्कृष्ट नियत व्यवस्था से ( पृथिवीम् ) पृथिवी लोक के, या प्रजा के तीसरी श्रेणी के लोगों को ( अदृंहीः )दृढ. कर॥ 
    अथवा अग्र से द्यौ अर्थात् विद्या और राजनीति को उन्नत कर, शेष बल से धर्म को और नियम से राज्य को पुष्ट कर ॥ 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    शकलं सविता चात्वालं, यूपश्च सविता वा देवता । ( १ ) निचृद् गायत्री । षड्जः । ( २ ) स्वराट् पंक्ति: । धैवतः ॥

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