अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 21/ मन्त्र 1
न्यू॒षु वाचं॒ प्र म॒हे भ॑रामहे॒ गिर॒ इन्द्रा॑य॒ सद॑ने वि॒वस्व॑तः। नू चि॒द्धि रत्नं॑ सस॒तामि॒वावि॑द॒न्न दु॑ष्टु॒तिर्द्र॑विणो॒देषु॑ शस्यते ॥
स्वर सहित पद पाठनि । ऊं॒ इति॑ । सु । वाच॑म् । प्र । म॒हे । भ॒रा॒म॒हे॒ । गिर॑: । इन्द्रा॑य । सद॑ने । वि॒वस्व॑त: ॥ नु । चि॒त् । हि । रत्न॑म् । स॒स॒ताम्ऽइ॑व । अवि॑दत् । न । दु॒:ऽस्तु॒ति: । द्र॒वि॒ण॒:ऽदेषु॑ । श॒स्य॒ते॒ ॥२१.१॥
स्वर रहित मन्त्र
न्यूषु वाचं प्र महे भरामहे गिर इन्द्राय सदने विवस्वतः। नू चिद्धि रत्नं ससतामिवाविदन्न दुष्टुतिर्द्रविणोदेषु शस्यते ॥
स्वर रहित पद पाठनि । ऊं इति । सु । वाचम् । प्र । महे । भरामहे । गिर: । इन्द्राय । सदने । विवस्वत: ॥ नु । चित् । हि । रत्नम् । ससताम्ऽइव । अविदत् । न । दु:ऽस्तुति: । द्रविण:ऽदेषु । शस्यते ॥२१.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 21; मन्त्र » 1
विषय - परमेश्वर और राजा।
भावार्थ -
हम लोग (महे) उस महान् परमेश्वर के लिये (वाचं) सुन्दर वाणी का (नि सु प्र भरामहे) नित्य पूजा के लिये प्रयोग करें। (विवस्वतः) ईश्वर की उपासना करने वाले (सदने) गृह में (इन्द्राय गिरः) परम ऐश्वर्यवान् परमेश्वर के लिये वाणियां कही जाती हैं। (ससताम्) सोने वालों के (रत्नं) उत्तम सुन्दर धनको (इव) जिस प्रकार चोर चुरालेता है उस प्रकार वह परमेश्वर सोते हुए आलसी लोगों के (रत्नं) रमण योग्य धन को भी (नू चित् हि) बहुत शीघ्र (अविदत्) हर लेता है। और उत्तम परोपकारी पुरुषों को देता है और (द्रविणोदेषु) धनैश्वर्य के दाता पुरुषों के लिये (दुष्टुतिः) निन्दा वचन (न शस्यते) नहीं कहा जाता। राजा भी आलसी प्रमादियों का ही धन हरे, उत्तम कर्मण्य पुरुषों को प्रदान करे।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - सव्य आंगिरस ऋषिः। इन्द्रो देवता। १-९ जगन्यः। १०, ११ त्रिष्टुभौ। एकादशर्चं सूक्तम्॥
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