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  • यजुर्वेद - अध्याय 10/ मन्त्र 12
    ऋषिः - वरुण ऋषिः देवता - यजमानो देवता छन्दः - आर्षी अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    प्र॒तीची॒मारो॑ह॒ जग॑ती त्वावतु वैरू॒पꣳ साम॑ सप्तद॒श स्तोमो॑ व॒र्षाऽऋ॒तुर्विड् द्रवि॑णम्॥१२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र॒तीची॑म्। आ। रो॒ह॒। जग॑ती। त्वा॒। अ॒व॒तु॒। वै॒रू॒पम्। साम॑। स॒प्त॒द॒श इति॑ सप्तऽद॒शः। स्तोमः॑। व॒र्षाः। ऋ॒तुः। विट्। द्रवि॑णम् ॥१२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रतीचीमारोह जगती त्वावतु वैरूपँ साम सप्तदश स्तोमो वर्षाऽऋतुविड्द्रविणमुदीचीमा रोह ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    प्रतीचीम्। आ। रोह। जगती। त्वा। अवतु। वैरूपम्। साम। सप्तदश इति सप्तऽदशः। स्तोमः। वर्षाः। ऋतुः। विट्। द्रविणम्॥१२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 10; मन्त्र » 12
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    शब्दार्थ -
    शब्दार्थ - हे राजपुरुष, (त्वा) तुम्हाला (जगती) जगती नावाच्या छंदात सांगितलेला अर्थ आणि (वैरुपम्) विविध रुपांचा (साम) सामवेदातील भाग (सप्तदश:) पाच कर्मेन्द्रियें, पाच विषय-शब्द, स्पर्श, रुप, रस, गंध, पंचमहाभूत अर्थात सूक्ष्मभूत, कार्य आणि कारण, असा एकूण अतरांचा पूर्ण करणारा (स्तोम:) स्तुतींचा समूह (वर्षाऋतु:) वर्षाऋतु (द्रविणम्) द्रव्य आणि (विट्) वैश्यजन (अवतु) प्राप्त होवोत. (या सर्वांनी समृद्ध होऊन तुम्ही (प्रतीचीम्) पश्चिम दिशेवर (आसेह) आरुढ होऊन (त्या दिशेतील शत्रूंना जिंकून) धन-संपदा प्राप्त करा ॥12॥

    भावार्थ - भावार्थ - जे राजपुरूष राजनीतीचा योग्य व सत्य उपयोग करीत वैश्यजनांची उन्नती करतात, तेच लक्ष्मी (म्हणजे धन-संपदेला) प्राप्त करतात. ॥12॥

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