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  • यजुर्वेद - अध्याय 10/ मन्त्र 14
    ऋषिः - वरुण ऋषिः देवता - परमात्मा देवता छन्दः - भूरिक जगती, स्वरः - निषादः
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    ऊ॒र्ध्वामारो॑ह प॒ङ्क्तिस्त्वा॑वतु शाक्वररैव॒ते साम॑नी त्रिणवत्रयस्त्रि॒ꣳशौ स्तोमौ॑ हेमन्तशिशि॒रावृ॒तू वर्चो॒ द्रवि॑णं॒ प्रत्य॑स्तं॒ नमु॑चेः॒ शिरः॑॥१४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऊ॒र्ध्वाम्। आ। रो॒ह॒। प॒ङ्क्तिः। त्वा॒। अ॒व॒तु॒। शा॒क्व॒र॒रै॒वतेऽइति॑ शाक्वररै॒वते। साम॑नी॒ऽइति॑ सामनी। त्रि॒ण॒व॒त्र॒य॒स्त्रिꣳशौ। त्रि॒न॒व॒त्र॒य॒स्त्रि॒ꣳशाविति॑ त्रिनवऽत्रयस्त्रि॒ꣳशौ। स्तोमौ॑। हे॒म॒न्त॒शि॒शि॒रौ। ऋ॒तूऽइत्यृ॒तू। वर्चः॑। द्रवि॑णम्। प्रत्य॑स्त॒मिति॒ प्रति॑ऽअस्तम्। नमु॑चेः। शिरः॑ ॥१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऊर्ध्वामारोह पङ्क्तिस्त्वावतु शाक्वररैवते सामनी त्रिणवत्रयस्त्रिँशौ स्तोमौ हेमन्तशिशिरावृतू वर्चा द्रविणम्प्रत्यस्तन्नमुचेः शिरः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    ऊर्ध्वाम्। आ। रोह। पङ्क्तिः। त्वा। अवतु। शाक्वररैवतेऽइति शाक्वररैवते। सामनीऽइति सामनी। त्रिणवत्रयस्त्रिꣳशौ। त्रिनवत्रयस्त्रिꣳशाविति त्रिनवऽत्रयस्त्रिꣳशौ। स्तोमौ। हेमन्तशिशिरौ। ऋतूऽइत्यृतू। वर्चः। द्रविणम्। प्रत्यस्तमिति प्रतिऽअस्तम्। नमुचेः। शिरः॥१४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 10; मन्त्र » 14
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    शब्दार्थ -
    शब्दार्थ - हे राजा, आपणास (ऊर्ध्वाम्) वरच्या दिशेत (आरोह) कीर्तीप्राप्त व्हावी. (त्वा) आपणाला (पंक्ति:) पंक्तिनामक छंद आणि (शाक्वररैवते) शक्वरी व रेवती छंदांनी युक्त (सामनी) सामवेदाचे पूर्ण आणि उत्तर असे दोन भाग की ज्यांमध्ये (त्रिणवत्रयस्त्रिंशौ) तीन काल, नऊ अंकाची विद्या, आणि तेहतीस वसु आदी पदार्थांची व्याख्या केली आहे, (ते दोन भाग प्राप्त व्हावेत) त्या भागांना पूर्ण करणारे (स्तोमौ) स्तोत्रांचे दोन भेद (हेमन्तशिशिरौ) (ऋतु) हेमंत आणि शिशिर ऋतु (वर्च:) ब्रह्मचर्यपूर्वक विद्याध्ययन आणि (द्रविणम्) ऐश्वर्य (अवतु) हे सर्व प्राप्त व्हावेत. (आपल्या या कार्यात जो विघ्र उपस्थित करील, त्या) (नमुचे:) दुष्ट चोराचे वा उपद्रकारी मनुष्याचे (शिर:) डोके (प्रत्यस्तम्) छिन्न-भिन्न होवो. ॥14॥

    भावार्थ - भावार्थ - जी माणसें सर्व ऋतूंमध्ये योग्यकाळी आहार, विहार आदींचे नियमांचे पालन करीत विद्याभ्यास, योगाभ्यास आणि सत्संग करतात, ते सर्व ऋतूंमध्ये सुखी होतात आणि त्यांना चोर आदी दुर्जनदेखील पीडा वा त्रास देऊ शकत नाहीत. ॥14॥

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