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  • यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 12
    ऋषिः - वामदेव ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भुरिगार्षी पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    उद॑ग्ने तिष्ठ॒ प्रत्यात॑नुष्व॒ न्यमित्राँ॑२ऽ ओषतात् तिग्महेते। यो नो॒ऽ अरा॑तिꣳ समिधान च॒क्रे नी॒चा तं ध॑क्ष्यत॒सं न शुष्क॑म्॥१२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत्। अ॒ग्ने॒। ति॒ष्ठ॒। प्रति॑। आ। त॒नु॒ष्व॒। नि। अ॒मित्रा॑न्। ओ॒ष॒ता॒त्। ति॒ग्म॒हे॒त॒ इति॑ तिग्मऽहेते। यः। नः॒। अरा॑तिम्। स॒मि॒धा॒नेति॑ सम्ऽइधान। च॒क्रे। नी॒चा। तम्। ध॒क्षि॒। अ॒त॒सम्। न। शुष्क॑म् ॥१२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उदग्ने तिष्ठ प्रत्या तनुष्व न्यमित्राँऽ ओषतात्तिग्महेते । यो नो अरातिँ समिधान चक्रे नीचा तन्धक्ष्यतसन्न शुष्कम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उत्। अग्ने। तिष्ठ। प्रति। आ। तनुष्व। नि। अमित्रान्। ओषतात्। तिग्महेत इति तिग्मऽहेते। यः। नः। अरातिम्। समिधानेति सम्ऽइधान। चक्रे। नीचा। तम्। धक्षि। अतसम्। न। शुष्कम्॥१२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 13; मन्त्र » 12
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    शब्दार्थ -
    शब्दार्थ - हे (अग्ने) तेजस्वी सभाध्यक्ष (राजा) आपण राजधर्मात (राज्यशासनकार्यात) (उत्तिष्ठ) उन्नतीस प्राप्त व्हा. (आपली उन्नती-प्रगती होवो, ही आम्हा सज्जनांची कामना) आपण धर्मात्मा पुरुषां(प्रति) साठी (आतनुष्व) सुखाचा विस्तार करा (त्यांना सर्व प्रकारे सुखी आनंदी ठेवा) हे (तिग्महेते) कठोर दंड देणारे हे राजपुरुष (राजा), (अमित्रान्‌) धर्माचा द्वेष व विरोध करणाऱ्या शत्रूंना (न्योषतात्‌) जाळून टाका (त्यांना सदा नष्ट करीत जा) हे (समिधान) प्रभूत तेजोमय सभाध्यक्ष, (य:) जो कोणी (न:) आमच्या (अरातिम्‌) शत्रूला (चक्रे) प्रोत्साहित करतो (त्यास मदत करतो वा आमच्याविरूद्ध भडकावतो) (तम्‌) त्यास (नीचा) निम्नदशेत आणून (त्याची दुर्दशा करून) त्यास (शुष्कम्‌) वाळलेल्या (अतसम्‌) लाकडाला (न) आग जशी जाळते, त्याप्रमाणे (घक्षि) भस्म करा ॥12॥

    भावार्थ - भावार्थ - या मंत्रात उपमा अलंकार आहे. राजा तसेच राज्यसभेतील सदस्यांनी स्वत: धर्माचे पालन करून, विनयी राहून आपल्या मित्रांना (सहायकजनांना) पाण्याप्रमाणे थंडवा (स्नेह) द्यावा आणि शत्रूंना मात्र, अग्नी वस्तूंना जाळतो, तद्वत जाळावे. जो कोणी आमच्या राजाच्या शत्रूला मदत करीत असेल, त्याला कैद करून कारागृहात टाकावे आणि निष्कंटकपणे राज्य करावे ॥12॥

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