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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 13 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 13/ मन्त्र 11
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - वनस्पतिः छन्दः - पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    अव॑ सृजा वनस्पते॒ देव॑ दे॒वेभ्यो॑ ह॒विः। प्र दा॒तुर॑स्तु॒ चेत॑नम्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अव॑ । सृ॒ज॒ । व॒न॒स्प॒ते॒ । देव॑ । दे॒वेभ्यः॑ । ह॒विः । प्र । दा॒तुः । अ॒स्तु॒ । चेत॑नम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अव सृजा वनस्पते देव देवेभ्यो हविः। प्र दातुरस्तु चेतनम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अव। सृज। वनस्पते। देव। देवेभ्यः। हविः। प्र। दातुः। अस्तु। चेतनम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 13; मन्त्र » 11
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 25; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    सोऽग्निः केन प्रदीप्तः सन्नेत्कार्य्यं साधयतीत्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    अयं देवो वनस्पतिर्देवेभ्यस्तद्धविरवसृजति यत्प्रदातुः सर्वपदार्थशोधयितुर्विदुषश्चेतनमस्तु भवति॥११॥

    पदार्थः

    (अव) विनिग्रहार्थीयः (सृज) सृजति। अत्र व्यत्ययः। द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (वनस्पते) यो वनानां वृक्षौषध्यादिसमूहानामधिकवृष्टिहेतुत्वेन पालयितास्ति सोऽपुष्पः फलवान्। अपुष्पाः फलवन्तो ये ते वनस्पतयः स्मृताः। (मनु०१.४७) (देव) देवः फलादीनां दाता (देवेभ्यः) दिव्यगुणेभ्यः (हविः) हवनीयम्। (प्र) प्रकृष्टार्थे (दातुः) शोधयतुः। ‘दैप् शोधने’ इत्यस्य रूपम्। (अस्तु) भवति। अत्र लडर्थे लोट्। (चेतनम्) चेतयति येन तत्॥११॥

    भावार्थः

    मनुष्यैः पृथिवीजलमयाः सर्वे पदार्था युक्त्या सम्प्रयोजिता अग्नेः प्रदीपका भूत्वा रोगाणां विनिग्रहेण बुद्धिबलप्रदत्वाद्विज्ञानवृद्धिहेतवो भूत्वा दिव्यगुणान् प्रकाशयन्तीति॥११॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    वह अग्नि किससे प्रज्वलित हुआ इन कार्य्यों को सिद्ध करता है, इसका उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

    पदार्थ

    जो (देव) फल आदि पदार्थों को देनेवाला (वनस्पतिः) वनों के वृक्ष और ओषधि आदि पदार्थों को अधिक वृष्टि के हेतु से पालन करनेवाला (देवेभ्यः) दिव्यगुणों के लिये (हविः) हवन करने योग्य पदार्थों को (अवसृज) उत्पन्न करता है, वह (प्रदातुः) सब पदार्थों की शुद्धि चाहनेवाले विद्वान् जन के (चेतनम्) विज्ञान को उत्पन्न करानेवाला (अस्तु) होता है॥

    भावार्थ

    मनुष्यों ने पृथिवी तथा सब पदार्थ जलमय युक्ति से क्रियाओं में युक्त किये हुए अग्नि से प्रदीप्त होकर रोगों की निर्मूलता से बुद्धि और बल को देने के कारण ज्ञान के बढ़ाने के हेतु होकर दिव्यगुणों का प्रकाश करते हैं॥११॥

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    विषय

    वह अग्नि किससे प्रज्वलित हुआ इन कार्य्यों को सिद्ध करता है, इसका उपदेश इस मन्त्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    अयं देवः वनस्पतिः र्देवेभ्यः तत् हविः अव सृजति यत् प्र दातुः सर्वपदार्थशोधयितुः विदुषः चेतनम् अस्तु भवति॥११॥

    पदार्थ

    (अयम्)=यह, (देव) देवः फलादीनां दाता=फल आदियों को देने वाला देवता, (वनस्पतिः) यो वनानां वृक्ष्यौध्यादिसमूहानामधिक वृष्टिहेतुत्वेन पालयितास्ति सोऽपुष्पफलवान्=जो वनों के वृक्ष और ओषधि आदि पदार्थों को अधिक वृष्टि के लिये पालन करता है, (देवेभ्यः) दिव्यगुणेभ्यः=दिव्य गुणों से, (तत्)=उसकी, (हविः) हवनीयम्=हवन किये जाने योग्य, (अव) विनिग्रहार्थीयः-विनिग्रहेण=नियंत्रण से, (सृजति) निष्पादयति=निर्माण करता है, (यत्)=जो, (प्रदातुः) सर्वपदार्थशोधयितुः-प्रकृष्टतया शोधयतु=सब पदार्थों की विशेष रूप से शुद्धि करता है, (विदुषः)=विद्वानों का, (चेतनम्) चेतयति येन तत्=जिसके द्वारा ज्ञान कराया जाता है, (अस्तु)-भवति=हो ॥११॥  

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    मनुष्यों ने जलमय पृथिवी तथा सब पदार्थ युक्त करके  अच्छी तरह प्रयोग किये। अग्नि से प्रदीप्त होकर रोगों की निर्मूलता से बुद्धि और बल को देने के कारण ज्ञान के बढ़ाने के हेतु होकर दिव्यगुणों का प्रकाश करते हैं॥११॥ 

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (अयम्) यह (देव) फल आदि को देने वाला देवता, (वनस्पतिः) जो वनों के वृक्ष और ओषधि आदि पदार्थों का अधिक वृष्टि के लिये पालन करता है। (देवेवेभ्यः) दिव्य गुणों से (तत्) उसकी (हविः) हवन किये जाने योग्य है। वह (अव) नियंत्रण से (सृजति) निर्माण करता है और (यत्) जो (प्रदातुः) सब पदार्थों की विशेष रूप से शुद्धि करता है। (विदुषः) विद्वानों का (चेतनम्) जिसके द्वारा ज्ञान कराया जाता है, वह ऐसा (अस्तु) हो ॥११॥ 

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (अव) विनिग्रहार्थीयः (सृज) सृजति। अत्र व्यत्ययः। द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (वनस्पते) यो वनानां वृक्षौषध्यादिसमूहानामधिकवृष्टिहेतुत्वेन पालयितास्ति सोऽपुष्पः फलवान्। अपुष्पाः फलवन्तो ये ते वनस्पतयः स्मृताः। (मनु०१.४७) (देव) देवः फलादीनां दाता (देवेभ्यः) दिव्यगुणेभ्यः (हविः) हवनीयम्। (प्र) प्रकृष्टार्थे (दातुः) शोधयतुः। 'दैप् शोधने' इत्यस्य रूपम्। (अस्तु) भवति। अत्र लडर्थे लोट्। (चेतनम्) चेतयति येन तत्॥११॥
    विषयः- सोऽग्निः केन प्रदीप्तः सन्नेत्कार्य्यं साधयतीत्युपदिश्यते।

    अन्वयः-अयं देवो वनस्पतिर्देवेभ्यस्तद्धविरवसृजति यत्प्रदातुः सर्वपदार्थशोधयितुर्विदुषश्चेतनमस्तु भवति॥११॥
     
    भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैः पृथिवीजलमयाः सर्वे पदार्था युक्त्या सम्प्रयोजिता अग्नेः प्रदीपका भूत्वा रोगाणां विनिग्रहेण बुद्धिबलप्रदत्वाद्विज्ञानवृद्धिहेतवो भूत्वा दिव्यगुणान् प्रकाशयन्तीति॥११॥

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    विषय

    चैतन्य

    पदार्थ

     

    १. हे (वनस्पते) - ज्ञान की रश्मियों के स्वामिन् देव - सब ज्ञानादि पदार्थों के देनेवाले प्रभो  ! (देवेभ्यः) - आपकी उपासना से  , गतमन्त्र के अनुसार [अस्माकमस्तु केवलः] आनन्दस्वरूप आपके ही भक्त बनने से दिव्य वृत्तियों को प्राप्त करनेवाले हम लोगों के लिए (हविः) - दानपूर्वक अदन की वृत्ति को (अवसृजा) - उत्पन्न कीजिए । आपकी कृपा से आपके दिये हुए ज्ञान के कारण हममें 'हविः' की भावना उत्पन्न हो  ! हम सदा यज्ञशेष का ही सेवन करनेवाले हों । देव 'हविर्भुक्' ही तो होते हैं । 

    २. हे प्रभो ! आपकी कृपा से (दातुः) - देनेवाले का (प्रचेतनम्) - प्रकृष्ट चैतन्य (अस्तु) - हो  , अर्थात् दान देकर बचे हुए  , अमृत का सेवन करनेवाले की स्मृति सदा स्थिर रहे  , वह आत्मस्वरूप को भूले नहीं । इस स्मृतिभ्रंश से ही तो बुद्धि का नाश होकर हमारा नाश हो जाया करता है । स्मृति स्थिर रहेगी तो बुद्धि अविकल होगी और बुद्धि के न चले जाने से हम भी यूँ ही चले न जाएँगे । 

    भावार्थ

    भावार्थ - ज्ञानरश्मियों का पति प्रभु हममें यज्ञशेष के सेवन की वृत्ति को उत्पन्न करे । इस दानशील पुरुष की स्मृति स्थिर रहे । 'मैं कौन हूँ । इस बात को भूल न जाए । 

     

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    विषय

    ऊखल के दृष्टान्त से वनस्पति नाम से ईश्वर की स्तुति

    भावार्थ

    हे ( वनस्पते ) ऊखल जिस प्रकार कूट छानकर गृहस्थों को अन्न प्रदान करता है उसी प्रकार हे ( वनस्पते ) वनों के पालक ! हे उपभोग करने योग्य समस्त अन्नादि पदार्थों के पालक ! अथवा हे उपासकों के पालक ! भक्तप्रतिपाल ! परमेश्वर ! अथवा राजन् ! हे (देव) सब पदार्थों के दातः । तू ( हविः अवसृज ) चरु के समान अन्न और ज्ञान को उपत्न या प्रदान कर जिससे (दातुः) दानशील अथवा आत्मा को शुद्ध करने वाले पवित्राचारवान् उपासक को (चेतनम् ) ज्ञान, (पू अस्तु) उत्तम रीति से हो । ‘वनस्पति’ – यज्ञ में ऊखल, देह में आत्मा, विश्व में परमेश्वर, राष्ट्र में राजा या सेनापति सब ‘वनस्पति’ हैं । यज्ञपक्ष में—ऊखल से कूटकर हवि, अन्नादि प्राप्त कर उससे यजमान की अग्नि प्रदीप्त हो । वृक्षपक्ष में—वृक्षादि ओपधि आदि चरु प्रदान करें जिससे ओषधिशोधक को प्राणबल प्राप्त हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मेधातिथिः काण्व ऋषिः ।। १ इध्मः समिद्धो वाग्निः । २ तनूनपात्। ३ नशशंसः । ४ इळः । ५ बर्हिः । ६ देवीर्द्वारः । ७ उषासानक्ता । ८ देव्यौ होतारौ प्रचेतसौ । ९ तिस्रो देव्यः सरस्वतीळाभारत्यः । १० त्वष्टा । ११ वनस्पतिः । १२ स्वाहाकृतयः॥ गायत्री ॥ द्वादशर्चं माप्रीसूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    पृथ्वी व जलीय सर्व पदार्थ युक्तीने क्रियेमध्ये संप्रयोजित केलेल्या अग्नीने प्रदीप्त होऊन रोगांचे निर्मूलन करतात व त्यामुळे बुद्धी बल वाढून ते विज्ञानवृद्धीचा हेतू बनतात व दिव्य गुणांना प्रकट करतात, हे माणसांनी जाणावे. ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Vanaspati, generous lord of love, light and beauty, nature and the forests, create, produce and provide the food for the divinities of yajna. And may that creation, production and provision initiate extension of the study, knowledge and awareness of the generous yajnics who offer the libations.

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    Subject of the mantra

    That fire gets ignited by whom and accomplishes these deeds, it has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (ayam)=this, (deva)=deity provides fruits et cetera substances, (vanaspatiḥ)=and one who nourishes trees and herbs of forests for excessive rains, (devevebhyaḥ)=with divine virtues, (tat)=of that, (haviḥ=worthy of being offered in yajna, that, (ava)=with monitoring, (sṛjati)= creates things, (yat)=which, (pradātuḥ)=purifies all substances specially, (viduṣaḥ)=of scholars, (cetanam)= by whom knowledge is imparted, be such, (astu)= should be like this.

    English Translation (K.K.V.)

    This deity provides fruits et cetera substances and one who nourishes trees and herbs of forests for excessive rains. It is worthy of being offered in yajan with divine virtues. He creates things with monitoring and who specially purifies all substances. The scholars, by whom knowledge is imparted, be such.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Human beings, by containing watery earth and all matters used well. Being illumined by fire, giving the intellect and strength for the eradication of diseases and to increase knowledge, illumines divine virtues.

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The plant (without flowers) that is the protector of the forests and the herbs etc. on account of rains, is the giver of fruits, generates articles to be put in the fire as oblation, for divine attributes. That increases the knowledge of the learned person who desires the purification of all things.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (वनस्पते ) यो वनानां वृक्षौषधिसमूहानाम् अधिकदृष्टिहेतुत्वेन पातयितास्ति सोऽपुष्पफलवान् ।। अपुष्पा फलवन्तो ये ते वनस्पतयः स्मृताः (मनु. १.४७) = Plants with fruits, but without flowers. (वातु:) शोधयितुः दैप्शोधने इत्यस्य रूपम् ।

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    When men utilize properly all articles made by the combination of the earth and the water etc. they become stimulators of digestive power and by keeping diseases away increase strength, intellect and wisdom and illuminate or reveal divine attributes.

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