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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 13 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 13/ मन्त्र 5
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - बर्हिः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    स्तृ॒णी॒त ब॒र्हिरा॑नु॒षग्घृ॒तपृ॑ष्ठं मनीषिणः। यत्रा॒मृत॑स्य॒ चक्ष॑णम्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्तृ॒णी॒त । ब॒र्हिः । आ॒नु॒षक् । घृ॒तऽपृ॑ष्ठम् । म॒नी॒षि॒णः॒ । यत्र॑ । अ॒मृत॑स्य । चक्ष॑णम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्तृणीत बर्हिरानुषग्घृतपृष्ठं मनीषिणः। यत्रामृतस्य चक्षणम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्तृणीत। बर्हिः। आनुषक्। घृतऽपृष्ठम्। मनीषिणः। यत्र। अमृतस्य। चक्षणम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 13; मन्त्र » 5
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स एवं सम्प्रयुक्तः किं करोतीत्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    हे मनीषिणो यत्रामृतस्य चक्षणं वर्तते तदानुषग्घृतपृष्ठं बर्हिः स्तृणीताच्छादयत॥५॥

    पदार्थः

    (स्तृणीत) आच्छादयत (बर्हिः) अन्तरिक्षम् (आनुषक्) अभितो यदनुषङ्गि तत् (घृतपृष्ठम्) घृतमुदकं पृष्ठे यस्मिँस्तत् (मनीषिणः) मेधाविनो विद्वांसः। मनीषीति मेधाविनामसु पठितम्। (निघं०३.१५) (यत्र) यस्मिन्नन्तरिक्षे (अमृतस्य) उदकसमूहस्य। अमृतमित्युदकनामसु पठितम्। (निघं०१.१२) (चक्षणम्) दर्शनम्। ‘चक्षिङ् दर्शने’ इत्यस्माल्ल्युटि प्रत्यये परे असनयोश्च। (अष्टा०२.४.५४) इति वार्तिकेन ख्याञादेशाभावः॥५॥

    भावार्थः

    विद्वद्भिरग्नौ यद् घृतादिकं प्रक्षिप्यते तदन्तरिक्षानुगतं भूत्वा तत्रस्थस्य जलसमूहस्य शोधकं जायते, तच्च सुगन्ध्यादिगुणैः सर्वान् पदार्थानाच्छाद्य सर्वान् प्राणिनः सुखयुक्तान् सद्यः सम्पादयतीति॥५॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह भौतिक अग्नि उक्त प्रकार से क्रिया में युक्त किया हुआ क्या करता है, सो अगले मन्त्र में उपदेश किया है-

    पदार्थ

    हे (मनीषिणः) बुद्धिमान् विद्वानो ! (यत्र) जिस अन्तरिक्ष में (अमृतस्य) जलसमूह का (चक्षणम्) दर्शन होता है, उस (आनुषक्) चारों ओर से घिरे और (घृतपृष्ठम्) जल से भरे हुए (बर्हिः) अन्तरिक्ष को (स्तृणीत) होम के धूम से आच्छादन करो, उसी अन्तरिक्ष में अन्य भी बहुत पदार्थ जल आदि को जानो॥५॥

    भावार्थ

    विद्वान् लोग अग्नि में जो घृत आदि पदार्थ छोड़ते हैं, वे अन्तरिक्ष को प्राप्त होकर वहाँ के ठहरे हुए जल को शुद्ध करते हैं, और वह शुद्ध हुआ जल सुगन्धि आदि गुणों से सब पदार्थों को आच्छादन करके सब प्राणियों को सुखयुक्त करता है॥५॥

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    विषय

    फिर वह भौतिक अग्नि उक्त प्रकार से क्रिया में युक्त किया हुआ क्या करता है, सो इस मन्त्र में उपदेश किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे मनीषिणः यत्र अमृतस्य चक्षणं वर्तते तत् आनुषक् घृतपृष्ठं बर्हिः स्तृणीत आच्छादयत॥५॥

    पदार्थ

    हे (मनीषिणः) मेधाविनो विद्वांसः=मेधावी विद्वान्, यत्र=जहां, (अमृतस्य)=अमृत का, (चक्षणम्) दर्शनम्=दर्शन, (वर्तते)=होता है, (तत्)=वह, (आनुषक्) अभितो यत् यदनुषग्घितत्=चारों ओर से घिरा हुआ, (घृतपृष्ठम्) घृतमुदकं पृष्ठे यत् यस्मिँतत्=जिसके पीछे घृत और जल लगा हो, (बर्हिः) अन्तरिक्षम्=अन्तरिक्ष का, (स्तृणीत) आच्छादयत=आच्छादन कर दो॥५॥ 

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    विद्वान् लोग अग्नि में जो घृत आदि पदार्थ छोड़ते हैं, वे अन्तरिक्ष को प्राप्त होकर वहाँ के ठहरे हुए जल को शुद्ध करते हैं और वह शुद्ध हुआ जल सुगन्धि आदि गुणों से सब पदार्थों को आच्छादित करके सब प्राणियों को सुखयुक्त करता है॥५॥  

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (मनीषिणः)  मेधावी विद्वान्! (यत्र) जहां (अमृतस्य) अमृत का (चक्षणम्)  दर्शन (वर्तते) होता है (तत्) वह (आनुषक्) चारों ओर से घिरा हुआ है।  (घृतपृष्ठम्) जिसके पीछे घृत और जल लगा हो, (बर्हिः) उस अन्तरिक्ष का (स्तृणीत) आच्छादन कर दो॥५॥  

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (स्तृणीत) आच्छादयत (बर्हिः) अन्तरिक्षम् (आनुषक्) अभितो यदनुषङ्गि तत् (घृतपृष्ठम्) घृतमुदकं पृष्ठे यस्मिँस्तत् (मनीषिणः) मेधाविनो विद्वांसः। मनीषीति मेधाविनामसु पठितम्। (निघं०३.१५) (यत्र) यस्मिन्नन्तरिक्षे (अमृतस्य) उदकसमूहस्य। अमृतमित्युदकनामसु पठितम्। (निघं०१.१२) (चक्षणम्) दर्शनम्। 'चक्षिङ् दर्शने' इत्यस्माल्ल्युटि प्रत्यये परे असनयोश्च। (अष्टा०२.४.५४) इति वार्तिकेन ख्याञादेशाभावः॥५॥
    विषयः- पुनः स एवं सम्प्रयुक्तः किं करोतीत्युपदिश्यते।

    अन्वयः- हे मनीषिणो यत्रामृतस्य चक्षणं वर्तते तदानुषग्घृतपृष्ठं बर्हिः स्तृणीताच्छादयत॥५॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- विद्वद्भिरग्नौ यद् घृतादिकं प्रक्षिप्यते तदन्तरिक्षानुगतं भूत्वा तत्रस्थस्य जलसमूहस्य शोधकं जायते, तच्च सुगन्ध्यादिगुणैः सर्वान् पदार्थानाच्छाद्य सर्वान् प्राणिनः सुखयुक्तान् सद्यः सम्पादयतीति॥५॥ 

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    विषय

    बर्हिः [निर्मल हृदय]

    पदार्थ

     

    १. गतमन्त्र के अनुसार स्वस्थ शरीर में तथा उत्तम इन्द्रियों के होने पर हे (मनीषिणः) - बुद्धि द्वारा मन पर शासन करनेवाले विद्वानों  ! तुम (घृतपृष्ठम्) - निर्मल व देदीप्यमान पृष्ठवाले (बर्हिः) - वासनाशून्य हृदय को (आनुषक्) - निरन्तर (स्तृणीत) - बिछाओ । जैसे विद्वान् अतिथि के बैठने के लिए कमरे में निर्मल बिस्तर [आसन] को बिछाया जाता है  , इसी प्रकार इस शरीर - रूप घर में जोकि उत्तम इन्द्रिय - रूप उपकरणों से सुसज्जित है  , उत्तम हृदयरूप आसन को बिछाना है । इस आसन पर किसी प्रकार का मल न हो  , यह (घृतपृष्ठ) - देदीप्यमान पृष्ठवाला हो । बर्हिः की भावना भी यही है कि जिसमें से वासनाओं का उद् - बर्हण कर दिया गया है । 

    २. यह हृदयरूप आसन वह है (यत्र) - जहाँ प्रभु आकर विराजमान होते हैं और (अमृतस्य) - उस अमृत प्रभु का जीव को (चक्षणम्) - दर्शन हुआ करता है । पवित्र हृदय में ही प्रभु का प्रकाश होता है । 'प्रभु सर्वव्यापक है' यह बात ठीक है  , यह ठीक ही है कि वे पाषाणादि में भी हैं  , परन्तु वहाँ जीव को प्रभु का दर्शन इसलिए नहीं होता कि उन पाषाणादि में जीव नहीं है । द्रष्टा नहीं है तो देखेगा कौन? हृदय में दर्शनीय प्रभु भी हैं और द्रष्टा जीव भी है  , अब इस हृदयस्थली में ही प्रभु का दर्शन होता है । होता तभी है जब यह स्थली अत्यन्त निर्मल होती है । 

    भावार्थ

    भावार्थ - हम मनीषी बनकर हृदय को निर्मल बनाएँ । इस निर्मल हृदय में ही प्रभुदर्शन होगा । 

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    विषय

    आत्मा, गृहस्थ और राष्ट्र पक्ष का विवरण ।

    भावार्थ

    हे (मनीषिणः) बुद्धिमान् विद्वान् पुरुषो ! आप लोग (बर्हिः) यज्ञ में कुशा के बने आसनों को ऐसे (स्तृणीत) बिछाओ कि (आनुषक् ) वे एक दूसरे से लगे रहें । ( घृतपृष्ठम् ) जिस पर घृत के पात्र रक्खें जाय । और ( यत्र ) जहां ( अमृतस्य ) अमृत, जल का ( चक्षणम् ) दर्शन हो । पृथिवी को वेदी मानकर भौतिक पक्ष में—हे विद्वान् पुरुषो ! ( घृतपृष्ठं बर्हिः आनुषक् स्तृणीत ) जल से व्याप्त विस्तृत आकाश को ऐसे धूम से आच्छादित करो । ( यत्र अमृतस्य चक्षणं ) जहां जल का मेध रूप से दर्शन हो । परमेश्वर और आत्मा के पक्ष में—हे विद्वान् पुरुषो ( बर्हिः ) महान् ( घृतपृष्ठं ) तेजस्वरूप, ब्रह्मज्ञान का आस्वादान करो । उसमें आश्रय लो । उसकी शरण लो । यहां ( अमृतस्य चक्षणम् ) अमृत आत्मानन्द, परम नित्य का दर्शन है । जहां मृत्यु का भय नहीं । गृहस्थ और राष्ट्रपक्ष में—( बर्हिः ) प्रजा को राष्ट्र में फैलाओ । वे घृत आदि अन्नों से पुष्ट हों और जल को पृष्ठ पर धारण करने वाले राष्ट्र को विस्तृत करो । जहां (अमृतस्य चक्षणम्) जल और अन्न और पूर्ण आयु और सन्तति का दर्शन हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मेधातिथिः काण्व ऋषिः ।। १ इध्मः समिद्धो वाग्निः । २ तनूनपात्। ३ नशशंसः । ४ इळः । ५ बर्हिः । ६ देवीर्द्वारः । ७ उषासानक्ता । ८ देव्यौ होतारौ प्रचेतसौ । ९ तिस्रो देव्यः सरस्वतीळाभारत्यः । १० त्वष्टा । ११ वनस्पतिः । १२ स्वाहाकृतयः॥ गायत्री ॥ द्वादशर्चं माप्रीसूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    विद्वान लोक अग्नीत जे घृत इत्यादी पदार्थ टाकतात ते अंतरिक्षातील जल शुद्ध करतात व ते शुद्ध जल सुगंधित होऊन सर्व पदार्थांना आच्छादित करून सर्व प्राण्यांना सुखी करते. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Men of science and wisdom, cover the sacred grass of yajna sprinkled with holy water, reach the skies pregnant with the waters of space, and there you will have a vision of nectar.

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    Subject of the mantra

    Then, what does that material fire do when engaged in action in the above way, this has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (manīṣiṇaḥ)=Brilliant scholar, (yatra)=where, (amṛtasya)=of nectar, (cakṣaṇam)=appears, (vartate)=it happens, (tat)=that, with action do, is preached in this mantra. (ānuṣak)=which is surrounded from all directions, (ghṛtapṛṣṭham)=ghee (clarified butter) and water pasted on its back, (barhiḥ)=of that sky, (stṛṇīta)=cover.

    English Translation (K.K.V.)

    O brilliant scholar! Where nectar appears and which is surrounded from all directions. Who has ghee and water pasted on its back, cover that sky.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    The ghee(clarified butter) etc. substances, which the learned people offer into the fire, after attaining the space, they purify the water that is stagnant there and that purified water envelops all things with the qualities of fragrance etc., that makes all living beings happy.

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Wise men, cover properly the middle region where the water is seen and where it is at the back (so to speak).

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (मनीषिणः ) मेधाविनो विद्वांसः मनीषीति मेधाविनामसु पठितम् (निघ. ३. १५) = Wise Men. (अमृतस्य) उदकसमूहस्य अमृतमित्युदकनामसु । = Water. (निघ० १.१२) (बर्हिः) अन्तरिक्षम् (निघ० १.३ ) = Firmament.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Whatever Ghee (Clarified butter) etc. is put in the fire, that goes to the middle regions and purifies the water that is there. That covers all articles with fragrance, makes all people happy and healthy.

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