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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 135 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 135/ मन्त्र 3
    ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः देवता - वायु: छन्दः - निचृदत्यष्टिः स्वरः - गान्धारः

    आ नो॑ नि॒युद्भि॑: श॒तिनी॑भिरध्व॒रं स॑ह॒स्रिणी॑भि॒रुप॑ याहि वी॒तये॒ वायो॑ ह॒व्यानि॑ वी॒तये॑। तवा॒यं भा॒ग ऋ॒त्विय॒: सर॑श्मि॒: सूर्ये॒ सचा॑। अ॒ध्व॒र्युभि॒र्भर॑माणा अयंसत॒ वायो॑ शु॒क्रा अ॑यंसत ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । नः॒ । नि॒युत्ऽभिः॑ । श॒तिनी॑भिः । अ॒ध्व॒रम् । स॒ह॒स्रिणी॑भिः । उप॑ । या॒हि॒ । वी॒तये॑ । वायो॒ इति॑ । ह॒व्यानि॑ । वी॒तये॑ । तव॑ । अ॒यम् । भा॒गः । ऋ॒त्वियः॑ । सऽर॑श्मिः । सूर्ये॑ । सचा॑ । अ॒ध्व॒र्युऽभिः॑ । भर॑माणाः । अ॒यं॒स॒त॒ । वायो॒ इति॑ । शु॒क्राः । अ॒यं॒स॒त॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ नो नियुद्भि: शतिनीभिरध्वरं सहस्रिणीभिरुप याहि वीतये वायो हव्यानि वीतये। तवायं भाग ऋत्विय: सरश्मि: सूर्ये सचा। अध्वर्युभिर्भरमाणा अयंसत वायो शुक्रा अयंसत ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। नः। नियुत्ऽभिः। शतिनीभिः। अध्वरम्। सहस्रिणीभिः। उप। याहि। वीतये। वायो इति। हव्यानि। वीतये। तव। अयम्। भागः। ऋत्वियः। सऽरश्मिः। सूर्ये। सचा। अध्वर्युऽभिः। भरमाणाः। अयंसत। वायो इति। शुक्राः। अयंसत ॥ १.१३५.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 135; मन्त्र » 3
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 24; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुना राज्ञा प्रजाभ्यः किं ग्राह्यमित्याह ।

    अन्वयः

    हे वायो तव येऽध्वर्य्युभिर्भरमाणा जना अयंसत ते सुखमयंसत यस्य तव सूर्ये सचा शुक्राः किरणा इव सरश्मिर्ऋत्विजोऽयं भागोऽस्ति स त्वं वीतये हव्यान्युपयाहि हे वायो ये शतिनीभिस्सहस्रिणीभिर्नियुद्भिर्वीतये नोऽध्वरमुपयान्ति ताँस्त्वमुपायाहि ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (आ) (नः) अस्माकम् (नियुद्भिः) वायुगुणवद्वर्त्तमानैरश्वैः (शतिनीभिः) प्रशस्तासंख्यातसेनाङ्गयुक्ताभिश्चमूभिः (अध्वरम्) राज्यपालनाख्यं यज्ञम् (सहस्रिणीभिः) बहूनि सहस्राणि शूरवीरसंघा यासु ताभिः (उप) (याहि) (वीतये) कामनायै (वायो) विद्वन् (हव्यानि) आदातुमर्हाणि (वीतये) व्याप्तये (तव) (अयम्) (भागः) (ऋत्वियः) ऋतुः प्राप्तोऽस्य स ऋत्वियः (सरश्मिः) रश्मिभिः प्रकाशैः सह वर्त्तमानः (सूर्ये) (सचा) समवेताः (अध्वर्य्युभिः) य आत्मानमध्वरमिच्छन्ति तैः (भरमाणाः) धरमाणाः (अयंसत) उपयच्छेयुः (वायो) प्रशस्तबलयुक्त (शुक्राः) शुद्धाः (अयंसत) ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। राजपुरुषैः शत्रोर्बलाच्चतुर्गुणं वाऽधिकं बलं कृत्वाऽधार्मिकैः शत्रुभिस्सह योद्धव्यम्। ते प्रतिवर्षं प्रजाभ्यो गृहीतव्यो यावान्करो भवेत् तावन्तमेव गृह्णीयुः सदैव धार्मिकान् विदुष उपसेवेरन् ॥ ३ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर राजा को प्रजाजनों से क्या लेना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (वायो) विद्वान् ! (तव) आपके जो (अध्वर्य्युभिः) अपने को यज्ञ की इच्छा करनेवालों ने (भरमाणाः) धारण किये मनुष्य (अयंसत) निवृत्त होवें सुख जैसे हो वैसे (अयंसत) निवृत्त हों अर्थात् सांसारिक सुख को छोड़े, जिन आपका (सूर्ये) सूर्य के बीच (सचा) अच्छे प्रकार संयोग किये हुई (शुक्राः) शुद्ध किरणों के समान (सरश्मिः) प्रकाशों के साथ वर्त्तमान (ऋत्वियः) जिसका ऋतु समय प्राप्त हुआ वह (अयम्) यह (भागः) भाग है सो आप (वीतये) व्याप्त होने के लिये (हव्यानि) ग्रहण करने योग्य पदार्थों को (उपयाहि) समीप पहुँचे प्राप्त हों। हे (वायो) प्रशंसित बलयुक्त जो (शतिनीभिः) प्रशंसित सैकड़ों अङ्गों से युक्त सेनाओं के साथ वा (सहस्रिणीभिः) जिनमें बहुत हजार शूरवीरों के समूह उन सेनाओं के साथ वा (नियुद्भिः) पवन के गुण के समान घोड़ों से (वीतये) कामना के लिये (नः) हम लोगों के (अध्वरम्) राज्यपालनरूप यज्ञ को प्राप्त होते, उनको आप (आ) आकर प्राप्त होओ ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। राजपुरुषों को चाहिये कि शत्रुओं के बल से चौगुना वा अधिक बल कर दुष्ट शत्रुओं के साथ युद्ध करें और वे प्रतिवर्ष प्रजाजनों से जितना कर लेना योग्य हो उतना ही लेवें तथा सदैव धर्मात्मा विद्वानों की सेवा करें ॥ ३ ॥

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    विषय

    प्रभु की ओर

    पदार्थ

    १. प्रभु जीव से कहते हैं कि (शतिनीभिः) = सौ वर्ष तक सशक्त बने रहकर शरीररथ को आगे ले चलनेवाले (सहस्रणीभिः) = प्रसन्नतापूर्वक आगे ले चलनेवाले (नियुद्धिः) = इन्द्रियाश्वों से (नः) = हमारे अध्वरे हिंसारहित यज्ञों को (उप आयाहि) = सर्वथा समीपता से प्राप्त हो, इसलिए प्राप्त हो कि (वीतये) = तू अज्ञानान्धकार का ध्वंस करनेवाला हो (वीअसन क्षेपण) । हे वायो प्रगतिशील-तू जीव! तू यज्ञों को इसलिए प्राप्त हो कि (हव्यानि वीतये) = तू हव्य - पवित्र यज्ञशिष्ट पदार्थों का भक्षण करनेवाला बने [वी-खादन]। २. (अयम्) = यह सोम (तव भाग:) = तेरा सेवनीय अंश है, तुझे इसका सेवन करनेवाला बनना है, इसे नष्ट नहीं होने देना। (ऋत्वियः) = [ऋत=light, splendour] यह अन्तः प्रकाश की प्राप्ति का सर्वोत्तम साधन है, (सरश्मिः) = यह ज्ञान की रश्मियोंवाला है, (सूर्ये सचा) = यह हमें सूर्य में समवेत करनेवाला है ( सच समवाये)। इसके रक्षण से हम मूलाधार चक्र से ऊपर उठते-उठते सहस्रारचक्र तक पहुँचते हैं अथवा यह हमें सूर्यलोक में जन्म लेने के योग्य बनाता है। ३. ये सोमकण (अध्वर्युभिः) = यज्ञशील पुरुषों से (भरमाण:) = भरण-पोषण किये जाते हुए अयंसत शरीर में ही नियमित किये जाते हैं। हे (वायो) = गतिशील जीव ! (शुक्राः) = ये दीप्तिवाले सोम अयंसत यज्ञशील पुरुषों से संयत किये जाते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम अपने इन्द्रियाश्वों द्वारा शरीररूप रथ को यज्ञों की ओर ले चलते हुए अन्धकार को दूर करें, यज्ञशेष का ही सेवन करें। सोमरक्षण से हम सूर्यलोक में जन्म लेनेवाले बनेंगे।

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    विषय

    शतिनी, सहस्त्रिणी सेनाओं सहित सेनापति की नियुक्ति, राज्यव्यवस्थापक अध्वर्यु जनों का कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( वायो ) ज्ञानवन् ! वायु के समान बलवन् राजन् ! हे के तू ( वीतये ) राज्य को प्राप्त करने और उसको पालन करने और ( हव्यानि ) उपभोग करने और स्वीकार करने योग्य ऐश्वर्यों को (वीतये) उपभोग करने के लिये ( नः ) हमारे ( अध्वरम् ) नाश न होने वाले, बलवान् राष्ट्र को ( नियुद्भिः ) बलवान् अश्वों और ( शतिनीभिः ) सैकड़ों दस्तों से बनी और ( सहस्रिणीभिः ) हजारों वीर पुरुषों से बनी नाना सेनाओं सहित ( उप याहि ) प्राप्त हो । ( अयं ) यह ( तव ) तेरा ( ऋत्वियः ) ऋतु अनुकूल, ( भागः ) सेवन करने योग्य अंश है जो ( सूर्ये सचा ) सूर्य में विद्यमान ( सरश्मिः ) किरणों के समान राष्ट्र को वश करने के साधनों सहित तुझे प्राप्त है । अर्थात् सूर्य की किरणों से वायु में जिस प्रकार यथा ऋतु जलवाष्प प्राप्त होते हैं उसी प्रकार राष्ट्र के नियमों द्वारा राजा को उसका ऋत्वनुकूल कर आदि राजा का पष्ठांश प्राप्त हो । और हे ( वायो ) बलवन् शासक ! ( अध्वर्युभिः ) अविनाश्य राष्ट्र के सञ्चालक पुरुषों सहित ( भरमाणाः ) राष्ट्र के कार्य भार को धारण करते हुए ( शुक्राः ) शुद्ध आचारवान् पुरुष ( अयंसत ) राष्ट्र का भली प्रकार नियन्त्रण करें, वे तेरे अंश कर आदि की भी ( अयंसत ) व्यवस्था करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    परुच्छेप ऋषिः॥ वायुर्देवता॥ छन्दः– १, ३ निचृदत्यष्टिः। २, ४ विराडत्यष्टिः । ५, ९ भुरिगष्टिः । ६, ८ निचृदष्टिः । ७ अष्टिः ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. राजपुरुषांनी शत्रूच्या बलापेक्षा चौपट किंवा अधिक बलाने दुष्ट शत्रूंबरोबर युद्ध करावे व त्यांनी प्रत्येक वर्षी प्रजेकडून जेवढा कर घेणे योग्य आहे तितका घ्यावा. तसेच सदैव धार्मिक विद्वानांची सेवा करावी. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Vayu, lord of power, force and tempestuous speed, come to our yajnic project of love and non violence for protection and participation to enjoy our offerings and hospitality. Come by your chariot drawn by hundreds and thousands of horses. Here is your share of holy offerings in accordance with the time and season, reinforced with the energy of light radiating from the sun. It is prepared by our high-priests of yajna, stored and reserved by them and to be offered by them to you, O Vayu, an offering holiest pure and paradisal!

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should a King take from his subjects is told in the third Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person, powerful like the wind, those of thy followers who are supported or upheld by men desiring to lead non-violent noble lives, refrain from evil deeds, they are not attached to worldly pleasures. Thou who possessest venerable portion of Divine virtues like the rays of the sun, come to us to partake of our acceptable articles of food. to fulfil thy noble desires. Come to us O mighty learned leader, along with speedy horses, hundreds of armies and thousands of brave warriors to co-operate in the administration of the State which is like a Yajna.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अध्वरम् ) राज्यपालनाख्यम् = The administration of the State which is also called a Yajna. (वीतये) कामनायै = For the fulfilment of noble desires (अयंसत ) उपयच्छेयु = May restrain themselves or refrain from evils and be un-attached to worldly pleasures.( नियुत्वान्) वायुवद् वेगवान् = Quick-going like the air. (वीतये) १ आनन्दप्राप्तये= For the attainment of joy. (वायो) दुष्टानां हिंसक = Destroyer of the wicked. (वा-गतिगन्धनयोः) Tr. (चन्द्रेण) सुवर्णेन चन्द्रमिति सुवर्णनाम (निघ० १.२ ) (इन्द्रः) विद्युत् = Electricity.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is the duty of the officers of the State to have fourfold power of their army and to fight with unrighteous enemies. They should collect from the subjects only a reasonable revenue and should serve righteous learned persons.

    Translator's Notes

    अध्वरी वै यज्ञः ( शत० १.४.१.३८, १.२.४.५।, १, ४, ५, ३॥ अध्वर इति यज्ञनाम ( निघ० ३.१७ ) अयन्सत is from यमु-उपरमे

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