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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 135 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 135/ मन्त्र 5
    ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः देवता - वायु: छन्दः - भुरिगष्टिः स्वरः - मध्यमः

    आ वां॒ धियो॑ ववृत्युरध्व॒राँ उपे॒ममिन्दुं॑ मर्मृजन्त वा॒जिन॑मा॒शुमत्यं॒ न वा॒जिन॑म्। तेषां॑ पिबतमस्म॒यू आ नो॑ गन्तमि॒होत्या। इन्द्र॑वायू सु॒ताना॒मद्रि॑भिर्यु॒वं मदा॑य वाजदा यु॒वम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । वा॒म् । धियः॑ । व॒वृ॒त्युः॒ । अ॒ध्व॒रान् । उप॑ । इ॒मम् । इन्दु॑म् । म॒र्मृ॒ज॒न्त॒ । वा॒जिन॑म् । आ॒शुम् । अत्य॑म् । न । वा॒जिन॑म् । तेषा॑म् । पि॒ब॒त॒म् । अ॒स्म॒यू इत्य॑स्म॒ऽयू । आ । नः॒ । ग॒न्त॒म् । इ॒ह । ऊ॒त्या । इन्द्र॑वायू॒ इति॑ । सु॒ताना॑म् । अद्रि॑ऽभिः । यु॒वम् । मदा॑य । वा॒ज॒ऽदा॒ । यु॒वम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ वां धियो ववृत्युरध्वराँ उपेममिन्दुं मर्मृजन्त वाजिनमाशुमत्यं न वाजिनम्। तेषां पिबतमस्मयू आ नो गन्तमिहोत्या। इन्द्रवायू सुतानामद्रिभिर्युवं मदाय वाजदा युवम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। वाम्। धियः। ववृत्युः। अध्वरान्। उप। इमम्। इन्दुम्। मर्मृजन्त। वाजिनम्। आशुम्। अत्यम्। न। वाजिनम्। तेषाम्। पिबतम्। अस्मयू इत्यस्मऽयू। आ। नः। गन्तम्। इह। ऊत्या। इन्द्रवायू इति। सुतानाम्। अद्रिऽभिः। युवम्। मदाय। वाजऽदा। युवम् ॥ १.१३५.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 135; मन्त्र » 5
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वद्भिः किं कर्त्तव्यमित्याह ।

    अन्वयः

    हे इन्द्रवायू ये वां धियोऽध्वरानिममिन्दुं वाजिनं चाशु वाजिनमत्यं नेवा ववृत्युरिममिन्दुमुपमर्मृजन्त तेषामद्रिभिः सुतानां रसं मदाय युवं पिबतमस्मयू वाजदा युवमिहोत्या नोऽस्मानागन्तम् ॥ ५ ॥

    पदार्थः

    (आ) (वाम्) युवयोः (धियः) प्रज्ञाः कर्माणि वा (ववृत्युः) वर्त्तेरन्। अत्र बहुलं छन्दसीति शपः श्लुर्व्यत्ययेन परस्मैपदम्। (अध्वरान्) अहिंसकान् जनान् (उप) (इमम्) (इन्दुम्) परमैश्वर्यम्। अत्रेदिधातोर्बाहुलकादुः प्रत्ययः। (मर्मृजन्त) अत्यन्तं मार्जयन्तु शोधयन्तु (वाजिनम्) प्रशस्तवेगम् (आशुम्) शीघ्रकारिणम् (अत्यम्) अतन्तमश्वम् (न) इव (वाजिनम्) बहुशुभलक्षणाऽन्वितम् (तेषाम्) (पिबतम्) (अस्मयू) आवामिवाचरन्तौ (आ) (नः) अस्मान् (गन्तम्) गच्छतम्। अत्राडभावो बहुलं छन्दसीति शपो लुक्। (इह) अस्मिन्संसारे (ऊत्या) रक्षणादिसत्क्रियया (इन्द्रवायू) सर्प्पपवनाविव (सुतानाम्) संसिद्धानाम् (अद्रिभिः) शैलाऽवयवैरुलूखलादिभिः (युवम्) (मदाय) आनन्दाय (वाजदा) विज्ञानप्रदौ (युवम्) युवाम् ॥ ५ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। य उपदेशका अध्यापकाश्च जनानां बुद्धीः शोधयित्वा सुशिक्षिताऽश्ववत्पराक्रमयन्ति त आनन्दभागिनो भवन्ति ॥ ५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर विद्वानों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (इन्द्रवायू) सूर्य्य और पवन के समान सभा सेनाधीशो ! जो उपदेश करने वा पढ़ानेवाले विद्वान् जन (वाम्) तुम्हारे (धियः) बुद्धि और कर्मों वा (अध्वरान्) हिंसा न करनेवाले जनों (इमम्) इस (इन्दुम्) परम ऐश्वर्य्य और (वाजिनम्) प्रशंसित वेगयुक्त (आशुम्) काम में शीघ्रता करनेवाले (वाजिनम्) अनेक शुभ लक्षणों से युक्त (अत्यम्) निरन्तर गमन करते हुए घोड़े के (न) समान (आ, ववृत्युः) अच्छे प्रकार वर्त्तें, कार्य्य में लावें और इस परम ऐश्वर्य्य को (उप, मर्मृजन्त) समीप में अत्यन्त शुद्ध करें (तेषाम्) उनके (अद्रिभिः) अच्छे प्रकार पर्वत के टूंक वा उखली मूशलों से (सुतानाम्) सिद्ध किये अर्थात् कूट-पीट बनाए हुए पदार्थों के रस को (मदाय) आनन्द के लिये (युवम्) तुम (पिबतम्) पीओ तथा (अस्मयू) हम लोगों के समान आचरण करते हुए (वाजदा) विशेष ज्ञान देनेवाले (युवम्) तुम दोनों इस संसार में (ऊत्या) रक्षा आदि उत्तम क्रिया से (नः) हम लोगों को (आगन्तम्) प्राप्त होओ ॥ ५ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार हैं। जो उपदेश करने और पढ़ानेवाले मनुष्यों की बुद्धियों को शुद्ध कर अच्छे सिखाये हुए घोड़े के समान पराक्रम युक्त कराते, वे आनन्द सेवनवाले होते हैं ॥ ५ ॥

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    विषय

    सोम-शुद्धि व प्रभु-प्राप्ति

    पदार्थ

    १. प्रभु प्रेरणा देते हुए कहते हैं कि हे (इन्द्रवायू) = शक्तिशाली व क्रियाशील पुरुषो! (वाम्) = आप दोनों की (धियः) = बुद्धियाँ (अध्वरान् उप) = यज्ञों के समीप (आववृत्युः) = आवृत्त हों अर्थात् तुम्हारा झुकाव यज्ञों की ओर हो। इसी उद्देश्य से (इमम्) = इस (वाजिनम्) = शक्तिप्रदाता (इन्दुम्) = सोम-वीर्य को (मर्मृजन्त) = अत्यन्त शुद्ध बनाओ, उसी प्रकार (न) = जैसे कि (आशुम्) = शीघ्र गतिवाले (वाजिनम्) = शक्तिशाली (अत्यम्) = घोड़े को मल-मलकर शुद्ध करते हैं। जैसे-घोड़े की मालिश से उसके स्वेदादि को दूर करके उसे शुद्ध कर देते हैं, वैसे ही वासनाओं को दूर करके इस सोम का शोधन होता है। शुद्ध हुआ हुआ यह सोम शक्ति देनेवाला होता है। यह हमारे कार्यों में स्फूर्ति लाता है और हमें गतिशील बनाता है। २. (अस्मयू) = हमारी प्रभु की प्राप्ति की कामनावाले इन्द्र और वायु तुम दोनों (तेषां पिबतम्) = उन सोमकणों का पान करो। (इह) = इस जीवन में (सुतानाम्) = उत्पन्न सोमकणों की (ऊत्या) = रक्षा से (नः आगन्तम्) = हमें प्राप्त होओ। जीवन में (सुतानाम्) = उत्पन्न सोमकणों की ऊत्या रक्षा से (नः आगन्तम्) = हमें प्राप्त होओ। वस्तुतः इन सोमकणों के रक्षण से ही उस सोम-प्रभु की प्राप्ति होती है। (अद्रिभिः) = [न दृ] अविदारणों से-वासनाओं से खण्डित न होने से (युवम्) = आप दोनों मदाय उल्लास के लिए होते हो। वासनाओं से खण्डित होने पर ही सोम का विनाश होता है और आनन्द व उल्लास भी समाप्त हो जाता है। इस सोम के रक्षण से (युवम्) = आप दोनों (वाजदा) = [दैप् शोधने] अपनी शक्ति का शोधन करनेवाले होते हो। इस शुद्ध शक्तिवाला पुरुष ही संसार में सफल होकर प्रभु को प्राप्त करता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम अपने सोम वीर्य को वासनाओं से मलिन न होने दें। यज्ञादि उत्तम कर्मों में लगे रहें। इससे हम उल्लासमय जीवनवाले व शुद्ध शक्तिवाले होकर प्रभु को प्राप्त करेंगे।

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    विषय

    प्रधान पुरुष की राष्ट्र में, देह में आत्मा के समान स्थिति, देह में वीर्यों के समान राष्ट्र में बलवान् शासकों की स्थिति ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्रवायू ) सूर्य और वायु के समान जगत् और राष्ट्र को करादान और ऐश्वर्यदान द्वारा पालने वाले ! सभासेनाध्यक्षो ! जो विद्वान् पुरुष ( वां ) आप दोनों के ( धियः ) ज्ञानों और कर्तव्य कर्मों का ( आ ववृत्युः ) नित्य प्रति अभ्यास करते हैं और ( अध्वरान् ) उत्तम प्रजापालक राज्यों की ( आ ववृत्युः ) व्यवस्था करते हैं और ( इमं ) इस ( वाजिनम् ) वेगवान्, ज्ञानवान्, ऐश्वर्यवान्, (आशुम् ) शीघ्र कार्य करने में कुशल, ( इन्दुम् ) चन्द्र के समान आल्हादक और ऐश्वर्य से युक्त राज्य को ( वाजिनम् अत्यं न ) वेगवान् अश्व के समान सदा ( उप मर्मृजन्त ) शोधन करते, उसको त्रुटियों रहित करते रहते हैं । ( तेषां ) उन (अद्रिभिः सुतानाम् ) सूर्य और वायु जिस प्रकार मेघों या पर्वतों से उत्पन्न जलों का पान करते या ( अद्रिमिः सुतानाम् ) मूसल या शिलाखण्डों से कुटे पिसे औषधि रसों और अन्नों के समान दृढ़ शस्त्रास्त्रों के बलों से ( सुतानां ) अभिषिक्त ( तेषां ) उन नायकों के ऐश्वर्य का आप दोनों ( मदाय ) हर्ष और राज्य को दमन करने के लिये ( पिबतम् ) उपभोग करो, उसको अपने अधीन रखो । ( नः ) हमारे ( इह ) इस राज्य में (ऊत्या) रक्षण करने के निमित्त (आ गन्तम् ) आप दोनोंआवें । ( युव) आप दोनों ( वाजदा ) अन्न और ऐश्वर्य के देने, पालने और संग्रामों में शत्रु का नाश करने वाले होकर हमें प्राप्त होवें । इति चतुर्विंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    परुच्छेप ऋषिः॥ वायुर्देवता॥ छन्दः– १, ३ निचृदत्यष्टिः। २, ४ विराडत्यष्टिः । ५, ९ भुरिगष्टिः । ६, ८ निचृदष्टिः । ७ अष्टिः ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे उपदेश करणाऱ्या व शिकविणाऱ्या माणसांची बुद्धी शुद्ध व सुशिक्षित करून अश्वाप्रमाणे पराक्रमयुक्त करवितात ते आनंदात सहभागी असतात. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Indra and Vayu, ruler and commander of the world, lords of intelligence and power, come close, and may your intelligence and power strengthen and vitalise our yajnic actions and inspire men of knowledge and wisdom, and may they refine and reinforce this soma and this wealth and honour and this dynamism of ours as a groom refines and refreshes a fleet and impetuous horse. May they come for our protection and advancement and drink of these soma juices prepared with stones and seasoned with the vapours of clouds for the gift of joy and excitement. O Indra and Vayu, givers of joy and strength and speed, come both for the joy of life for you and for ourselves.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should be done by the rulers and the people is told in the fifth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O President of the Council of Ministers and Commander n-chief of the army who are like the sun and the wind, those teachers and preachers who follow your intelligence and good actions and as the grooms rub down a fleet, quick running horse, in the same way, purify all great wealth, making all good and non-violent. Drink their juices of various nourishing herbs that they have prepared with the help of the grinding stones and उलूखल मुसल etc. for your delight. Come to us being well-disposed towards us or desiring our welfare, come to us for our protection as you are givers of knowledge and strength.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (इन्दुम् ) परमैश्वर्यम् । अत्र इदिधातोर्बाहुलकादुः प्रत्ययः ( वाजदा) ज्ञानप्रदौ । = Givers of Knowledge. वज-गतौ गतेस्त्रिष्वर्थेषु ज्ञानार्थग्रहणम् |

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those teachers and preachers who purify the intellects of the people and make them vigorous like the trained good horses. enjoy bliss.

    Translator's Notes

    इदि-परमैश्वर्ये । वाज इति बलनाम ( निघ० २.९ ) Therefore वाजदा may also mean-givers of strength.

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