ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 167/ मन्त्र 8
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - इन्द्रो मरुच्च
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
पान्ति॑ मि॒त्रावरु॑णावव॒द्याच्चय॑त ईमर्य॒मो अप्र॑शस्तान्। उ॒त च्य॑वन्ते॒ अच्यु॑ता ध्रु॒वाणि॑ ववृ॒ध ईं॑ मरुतो॒ दाति॑वारः ॥
स्वर सहित पद पाठपान्ति॑ । मि॒त्रावरु॑णौ । अ॒व॒द्यात् । चय॑ते । ई॒म् । अ॒र्य॒मो इति॑ । अप्र॑ऽशस्तान् । उ॒त । च्य॒व॒न्ते॒ । अच्यु॑ता । ध्रु॒वाणि॑ । व॒वृ॒धे । ई॒म् । म॒रु॒तः॒ । दाति॑ऽवारः ॥
स्वर रहित मन्त्र
पान्ति मित्रावरुणाववद्याच्चयत ईमर्यमो अप्रशस्तान्। उत च्यवन्ते अच्युता ध्रुवाणि ववृध ईं मरुतो दातिवारः ॥
स्वर रहित पद पाठपान्ति। मित्रावरुणौ। अवद्यात्। चयते। ईम्। अर्यमो इति। अप्रऽशस्तान्। उत। च्यवन्ते। अच्युता। ध्रुवाणि। ववृधे। ईम्। मरुतः। दातिऽवारः ॥ १.१६७.८
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 167; मन्त्र » 8
अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 5; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 5; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे मरुतो भवन्तो मित्रावरुणौ चावद्यात् पान्ति जनान् रक्षन्ति। अर्यमो अप्रशस्तानीञ्चयते। उत तेऽच्युता ध्रुवाणि च्यवन्ते दातिवार ईं ववृधे ॥ ८ ॥
पदार्थः
(पान्ति) रक्षन्ति (मित्रावरुणौ) सखिवरावध्यापकोपदेशकौ वा (अवद्यात्) निन्द्यात् पापाचरणात् (चयते) एकत्र करोति (ईम्) प्रत्यक्षम् (अर्य्यमो) न्यायकारी। अत्रार्योपपदान्मन धातोरौणादिको बाहुलकादो प्रत्ययः। (अप्रशस्तान्) निन्द्यकर्माचारिणः (उत) अपि (च्यवन्ते) प्राप्नुवन्ति (अच्युता) विनाशरहितानि (ध्रुवाणि) दृढानि कर्माणि (ववृधे) वर्द्धते (ईम्) सर्वतः (मरुतः) विद्वांसः (दातिवारः) यो दातिं दानं वृणोति सः ॥ ८ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्या विद्याधर्मसुशिक्षादानेनाज्ञानिनोऽधर्मान्निवर्त्य ध्रुवाणि शुभगुणकर्माणि प्रापयन्ति ते सुखात् पृथक् न भवन्ति ॥ ८ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (मरुतः) विद्वानो ! आप लोग और (मित्रावरुणौ) मित्र और श्रेष्ठ सज्जन वा अध्यापक और उपदेशक जन (अवद्यात्) निन्द्यपापाचरण से (पान्ति) मनुष्यों की रक्षा करते हैं तथा (अर्यमो) न्याय करनेवाला राजा (अप्रशस्तान्) दुराचारी जनों को (ईम्) प्रत्यक्ष (चयते) इकट्ठा करता है (उत) और वे (अच्युता) विनाशरहित (ध्रुवाणि) ध्रुव दृढ़ कामों को (च्यवन्ते) प्राप्त होते हैं और (दातिवारः) दान को लेनेवाला (ईम्) सब ओर से (ववृधे) बढ़ता है ॥ ८ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य विद्या, धर्म और उत्तम शिक्षा के देने से अज्ञानियों को अधर्म से निवृत्त कर ध्रुव शुभ गुण और कर्मों को प्राप्त कराते हैं, वे सुख से अलग नहीं होते ॥ ८ ॥
विषय
प्राणसाधना और शुद्धि
पदार्थ
१. (मित्रावरुणौ) = प्राणापान (अवद्यात्) = पाप से (पान्ति) बचाते हैं। प्राणसाधना से अशुभ वृत्तियों का क्षय होता है। प्राणसाधना के होने पर (अर्यमा उ) = अर्यमा भी (ईम्) - निश्चय से (अप्रशस्तान्) = सब अप्रशस्त बातों को (चयते) = नष्ट करता है। अर्यमा का भाव है 'अरीन् यच्छति' काम-क्रोधादि शत्रुओं का नियमन । प्राणसाधना करने पर प्राणापान सब दोषों का दहन करनेवाले होते हैं। दोष-दहन से सब अवद्य-पाप दूर हो जाते हैं। हम काम-क्रोधादि का नियमन करके अर्यमा बनते हैं। यह अर्यमा सब अप्रशस्त बातों को नष्ट करनेवाला होता है। २. ये प्राणसाधक (ध्रुवाणि उत) = अत्यन्त दृढमूल हुई हुई वासनाओं को भी (च्यवन्ते) = हिला देनेवाले होते हैं और (अच्युता) = कभी न हिलाई जा सकनेवाली वासनाओंको भी च्युत कर देते हैं । ३. इस प्रकार हे (मरुतः) = प्राणो! यह (दातिवार:) = [दत्तहविलक्षणधनः – सा०] वरणीय धनों का दान करनेवाला साधक (ईम्) = निश्चय से वावृधे बढ़ता है। लोभ को जीतकर यह दान देनेवाला बनता है और इस दानवृत्ति से यह शुभ मार्ग पर और अधिक आगे बढ़नेवाला होता है।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधना से हमारा जीवन शुद्ध बनता है।
विषय
विद्वानों, उत्तम शासकों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( मरुतः) विद्वान् पुरुषो ! ( मित्रावरुणौ ) मित्र, सबका स्नेही, प्रजा को मरण से बचाने वाला, वरुण, सब दुष्टों का वारक और श्रेष्ठ जन, प्राण और जल के समान और ( अर्यमा ) शत्रुओं को संयमन करने वाला न्यायकारी पुरुष सब ( अवद्यात् ) निन्दनीय पापाचरण से ( पान्ति ) रक्षा करें । और ( अप्रशस्तान्) बुरे पापाचारी लोगों को ( चयते ) विनाश करें अथवा ( अप्रशस्तान् ) व्यवहार में अकुशल निर्बल प्रजाजनों को ( चयते ) एकत्र संगठित करे । अथवा ( अप्रशस्तान् ) तुच्छ तुच्छ स्वल्प स्वल्प करों को भी ( चयते ) संग्रह करे । इस प्रकार करने से ( अच्युता ) कभी न डिगने वाले ( ध्रुवाणि ) स्थिर राष्ट्र भी ( च्यवन्ते ) उत्तम पद से गिर जाते हैं। और ( दातिवारः ) वरने योग्य उत्तम ऐश्वर्य का दाता, और (दातिवारः) दान योग्य, कर आदि संग्राह्य पदार्थों को प्रजा से स्वीकार करने वाला पुरुष भी ( ईम् ) सब प्रकार से ( ववृधे ) बढ़ता और इस प्रजाजन को भी बढ़ाता है । अथवा—(अच्युता ध्रुवाणि च्यवन्ते ) अक्षय स्थायी ऐश्वर्य प्राप्त करते हैं । दान-संग्रही बढ़ता है । वायु पक्ष में—( मित्रावरुणौ ) दिन रात्रि और सूर्य निन्दनीय कष्ट से जनों की रक्षा करते, तुच्छ जलों का सञ्चय करते, या बुरे रोगों का नाश करते हैं। ये मेघ न गिरने वाले जलों को नीचे गिराते हैं, जल दाता मेघ सबको इस प्रकार बढ़ाता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्तय ऋषिः ॥ इन्द्रो मरुच्च देवता । छन्दः - १, ४, ५, भुरिक् पङ्क्तिः । ७, स्वराट् पङ्क्तिः । १० निचृत् पङ्क्तिः ११ पङ्क्तिः । २, ३, ६, ८ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे विद्या, धर्म व उत्तम शिक्षण देऊन अज्ञानी लोकांना अधर्मापासून निवृत्त करतात व दृढ आणि शुभ गुण कर्म प्राप्त करवितात ती सुखापासून पृथक नसतात. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Mitra and Varuna protect from sin and shame. Surely Aryama, lord of justice, raises the despicable. They shake off even the firm and fixed enemies of life. O Maruts, the gift of your generosity ever grows and grows.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Happy are those who bestow virtues on mankind.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned persons mighty like the winds! You along with the teachers and preachers, who are friendly to all and most acceptable, protect men from all that is reprehensible. A group of dispensers of justice gather together and punish the unworthy. Firm steady and irreprehensible actions are taken against them. Contrary to it, the man of liberal disposition always march ahead.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those men always enjoy delight, who keep away ignorant persons from the righteousness. They giving them wisdom Dharma and good education, lead them towards the performance of noble deeds and meritorious works.
Foot Notes
(मित्रावरुणौ) सखिबरौ अध्यापकोपदेशकौ = Teachers and preachers who are friendly to all and most acceptable. ( च्यवन्ते) प्राप्नुवन्ति = Attain.
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