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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 167 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 167/ मन्त्र 9
    ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः देवता - इन्द्रो मरुच्च छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    न॒ही नु वो॑ मरुतो॒ अन्त्य॒स्मे आ॒रात्ता॑च्चि॒च्छव॑सो॒ अन्त॑मा॒पुः। ते धृ॒ष्णुना॒ शव॑सा शूशु॒वांसोऽर्णो॒ न द्वेषो॑ धृष॒ता परि॑ ष्ठुः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न॒हि । नु । वः॒ । म॒रु॒तः॒ । अन्ति॑ । अ॒स्मे इति॑ । आ॒रात्ता॑त् । चि॒त् । शव॑सः । अन्त॑म् । आ॒पुः । ते । धृ॒ष्णुना॑ शव॑सा । शू॒शु॒ऽवांसः॑ । अर्णः॑ । न । द्वेषः॑ । धृ॒ष॒ता । परि॑ । स्थुः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नही नु वो मरुतो अन्त्यस्मे आरात्ताच्चिच्छवसो अन्तमापुः। ते धृष्णुना शवसा शूशुवांसोऽर्णो न द्वेषो धृषता परि ष्ठुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नहि। नु। वः। मरुतः। अन्ति। अस्मे इति। आरात्तात्। चित्। शवसः। अन्तम्। आपुः। ते। धृष्णुना शवसा। शूशुऽवांसः। अर्णः। न। द्वेषः। धृषता। परि। स्थुः ॥ १.१६७.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 167; मन्त्र » 9
    अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 5; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे मरुतो ये वोऽस्मे चान्ति शवसोऽन्तं नु नह्यापुर्ये चारात्ताच्चित् धृष्णुना शवसा शूशुवांसोऽर्णो न धृषता द्वेषः परिष्ठुस्त आप्ता भवेयुः ॥ ९ ॥

    पदार्थः

    (नहिः) निषेधे। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (नु) सद्यः (वः) युष्माकम् (मरुतः) महाबलिष्ठाः (अन्ति) समीपे (अस्मे) अस्माकम् (आरात्तात्) दूरात् (चित्) अपि (शवसः) बलस्य (अन्तम्) सीमानम् (आपुः) प्राप्नुवन्ति (ते) (धृष्णुना) दृढेन (शवसा) बलेन (शूशुवांसः) वर्द्धमानाः (अर्णः) उदकम्। अर्ण इत्युदकना०। निघं० १। १२। (न) इव (द्वेषः) द्वेषादीन् दोषान् धर्मद्वेष्ट्रीन् मनुष्यान् वा (धृषता) प्रागल्भ्येन (परि) सर्वतस्त्यागे (स्थुः) तिष्ठेयुः ॥ ९ ॥

    भावार्थः

    यदि वयं पूर्णं शरीरात्मबलं प्राप्नुयाम तर्हि शत्रवोऽस्माकं युष्माकं च पराजयं कर्त्तुं न शक्नुयुः। ये दुष्टान् लोभादीन् दोषाँश्च त्यजेयुस्ते बलिष्ठा भूत्वा दुःखस्य पारं गच्छेयुः ॥ ९ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (मरुतः) महाबलवान् विद्वानो ! जो (वः) तुम्हारे और (अस्मे) हमारे (अन्ति) समीप में (शवसः) बल की (अन्तम्) सीमा को (नु) शीघ्र (नहि) नहीं (आपुः) प्राप्त होते और जो (आरात्तात्) दूर से (चित्) भी (धृष्णुना) दृढ़ (शवसा) बल से (शूशुवांसः) बढ़ते हुए (अर्णः) जल के (न) समान (धृषता) प्रगल्भता से ढिठाई से (द्वेषः) वैर आदि दोष वा धर्मविरोधी मनुष्यों को (परि, स्थुः) सब ओर से छोड़ने में स्थिर हों (ते) वे आप्त अर्थात् शास्त्रज्ञ धर्मात्मा हों ॥ ९ ॥

    भावार्थ

    यदि हम लोग पूर्ण शरीर और आत्मा के बल को प्राप्त होवें तो शत्रुजन हमारा और तुम्हारा पराजय न कर सकें। जो दुष्ट और लोभादि दोषों को छोड़ें, वे अति बली होकर दुःख के पार पहुँचें ॥ ९ ॥

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    विषय

    अन्तः व बाह्य शत्रुओं का धर्षण -

    पदार्थ

    १. हे (मरुतः) = प्राणो ! (नु) = निश्चय से (अस्मे) = हमारे (अन्ति) = समीप के अर्थात् काम-क्रोधादि अन्तः शत्रु तथा (आरात्तात् चित्) = दूर के शत्रु भी-बाह्य शत्रु भी (वः शवस:) = तुम्हारी शक्ति के (अन्तम्) = अन्त को (नहि आपुः) = प्राप्त नहीं करते हैं, अर्थात् प्राणसाधना से कामादि अन्तः शत्रु तो नष्ट होते ही हैं, बाह्य शत्रु भी इस प्राणसाधक का पराभव नहीं कर सकते। २. (ते) = वे प्राणसाधक (धृष्णुना) = शत्रुओं का धर्षण करनेवाले (शवसा) = बल से (शूशुवांस:) = बढ़ते हुए (द्वेष:) = शत्रुओं को (धृषता परिष्ठु:) = धर्षण के द्वारा पराभूत करते हैं [give them a crushing defeat] । इस प्रकार पराभूत करते हैं (न) = जैसे कि (अर्णः) = जल अपनी विरोधिनी धूल को पराभूत करता है। जल धूल को एक न उड़ती रहनेवाली मिट्टी के रूप में परिवर्तित कर देता है। प्राणसाधक भी काम को प्रेम में, क्रोध को करुणा में व लोभ को त्याग में परिवर्तित करनेवाला होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणसाधना से वह बल मिलता है जो सब शत्रुओं का धर्षण कर देता है।

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    विषय

    बलवृद्धि का कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( मरुतः ) शत्रुओं का नाश करने वाले प्राणों के समान जीवन युक्त और वायुओं के समान विद्वान् और बलवान् पुरुषो ! (अस्मे) हम प्रजाजनों में से (वः) आप लोगों में से (शवसः) बल और ज्ञान का ( अन्ति आरात् च ) दूर और पास कहीं भी ( नही नु अन्तम् आपुः ) कदाचित् कोई भी पार न पा सकें । (ते) वे आप सब लोग ( धृष्णुना ) शत्रु को पराजय कर देने वाले ( शवसा ) बल से ( शूशुवांसः ) सदा बढ़ते हुए ( धृष्ता ) बड़े बल पूर्वक ( द्वेषः ) द्वेष करने वाले अधार्मिक शत्रुओं को द्वेष आदि अप्रीति कर दोषों को ( अर्णः न ) जल को तटों के समान ( परिस्थुः ) चारों ओर से घेर कर रोक लो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्तय ऋषिः ॥ इन्द्रो मरुच्च देवता । छन्दः - १, ४, ५, भुरिक् पङ्क्तिः । ७, स्वराट् पङ्क्तिः । १० निचृत् पङ्क्तिः ११ पङ्क्तिः । २, ३, ६, ८ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जर आपण पूर्ण शरीर व आत्म्याचे बल प्राप्त केले तर शत्रू आपला पराजय करू शकत नाही. जे दुष्टता व लोभ इत्यादी दोषांचा त्याग करतील ते अत्यंत बलवान होऊन दुःखाच्या पलीकडे जातील. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Maruts, neither from near nor from afar do they find the end of your power and force. Intrepidable and rising with inviolable strength and courage, they, i.e., the Maruts keep the enemies down and, vast as the ocean, they stay and abide far higher than jealousy and calumny of small minds.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The virtuous men are never overcome and they are enlightened.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned men, (mighty like the winds)! no persons whether they are near you and near us can surpass your strength. These persons become Aptas (absolutely truthful (true in words, mind and deeds) who increasingly develop their energy and vigor, and give up animosity.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    If we acquire the physical and spiritual strength in full measures, the enemies would not be able to overcome us. By giving up greed, jealousy, hatred and other vices, they become mighty and are able to ward off all the miseries.

    Foot Notes

    (शुशुवास:) वर्धमाना: = Increasing (धृषता) प्रागल्भ्येन = With vigor. (शवस:) बलस्य — Of strength.

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