ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 179/ मन्त्र 3
ऋषिः - लोपमुद्राऽगस्त्यौ
देवता - दम्पती
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
न मृषा॑ श्रा॒न्तं यदव॑न्ति दे॒वा विश्वा॒ इत्स्पृधो॑ अ॒भ्य॑श्नवाव। जया॒वेदत्र॑ श॒तनी॑थमा॒जिं यत्स॒म्यञ्चा॑ मिथु॒नाव॒भ्यजा॑व ॥
स्वर सहित पद पाठन । मृषा॑ । श्रा॒न्तम् । यत् । अव॑न्ति । दे॒वाः । विश्वाः॑ । इत् । स्पृधः॑ । अ॒भि । अ॒श्न॒वा॒व॒ । जया॑व । इत् । अत्र॑ । श॒तऽनी॑थम् । आ॒जिम् । यत् । स॒म्यञ्चा॑ । मि॒थु॒नौ । अ॒भि । अजा॑व ॥
स्वर रहित मन्त्र
न मृषा श्रान्तं यदवन्ति देवा विश्वा इत्स्पृधो अभ्यश्नवाव। जयावेदत्र शतनीथमाजिं यत्सम्यञ्चा मिथुनावभ्यजाव ॥
स्वर रहित पद पाठन। मृषा। श्रान्तम्। यत्। अवन्ति। देवाः। विश्वाः। इत्। स्पृधः। अभि। अश्नवाव। जयाव। इत्। अत्र। शतऽनीथम्। आजिम्। यत्। सम्यञ्चा। मिथुनौ। अभि। अजाव ॥ १.१७९.३
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 179; मन्त्र » 3
अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 22; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 22; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ गृहाश्रमे स्त्रीपुरुषयोः परस्परं संवादरूपविषयमाह ।
अन्वयः
देवा विद्वांसो यदत्र मृषाश्रान्तन्नावन्ति तत आवां विश्वा इत् स्पृधोऽभ्यश्नवाव यद्यतो गृहाश्रमं सम्यञ्चा सन्तौ मिथुनावभ्यजाव ततः शतनीथमाजिं जयावेत् ॥ ३ ॥
पदार्थः
(न) निषेधे (मृषा) मिथ्या (श्रान्तम्) खिद्यन्तम् (यत्) यतः (अवन्ति) रक्षन्ति (देवाः) विद्वांसः (विश्वाः) सर्वाः (इत्) एव (स्पृधः) संग्रामान् (अभि) आभिमुख्ये (अश्नवाव) व्याप्नयाव जेतुं समर्थौ स्याव (जयाव) (इत्) एव (अत्र) (शतनीथम्) शतैः प्राप्तव्यम् (आजिम्) सङ्ग्रामम् (यत्) यतः (सम्यञ्चा) सम्यगञ्चन्तौ (मिथुनौ) स्त्रीपुरुषौ (अभि) (अजाव) प्राप्नुयाव ॥ ३ ॥
भावार्थः
यत आप्ता विद्वांसो मिथ्याचारिणो मूढान् विद्यार्थिनो नाध्यापयन्ति किन्तु परित्यजन्ति ततः स्त्रीपुरुषा मिथ्याचारान् व्यभिचारादिदोषान् त्यजेयुः। यथा गृहाश्रमोत्कर्षः स्यात्तथा स्त्रीपुरुषौ परस्परं धर्माचारिणौ प्रयतेताम् ॥ ३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब गृहाश्रम व्यवहार में स्त्री-पुरुष के व्यवहार को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
(देवाः) विद्वान् जन (यत्) जिस कारण (अत्र) इस जगत् में (मृषा) मिथ्या (श्रान्तम्) खेद करते हुए की (न) नहीं (अवन्ति) रक्षा करते हैं इससे हम (विश्वा, इत्) सभी (स्पृधः) संग्रामों को (अभि, अश्नवाव) सम्मुख होकर (यत्) जिस कारण गृहाश्रम को (सम्यञ्चा) अच्छे प्रकार प्राप्त होते हुए (मिथुनौ) स्त्री-पुरुष हम दोनों (अभ्यजाव) सब ओर से उसके व्यवहारों को प्राप्त होवें इससे (शतनीथम्) जो सैकड़ों से प्राप्त होने योग्य (आजिम्) संग्राम को (जयावेत्) जीतते ही हैं ॥ ३ ॥
भावार्थ
जिस कारण आप विद्वान् जन मिथ्याचारी मूढ़ विद्यार्थी जनों को नहीं पढ़ाते हैं, इससे स्त्रीपुरुष मिथ्या आचार व्यभिचारादि दोषों को त्यागें और जैसे गृहाश्रम का उत्कर्ष हो वैसे स्त्रीपुरुष परस्पर धर्म के आचरण करनेवाले हों ॥ ३ ॥
विषय
श्रमशील समन्वित जीवन
पदार्थ
१. अब अगस्त्य कहते हैं कि-(न मृषा) = यह असत्य नहीं है (यत्) = कि (श्रान्तम्) = श्रम के द्वारा श्रान्त पुरुष को (देवा:) = सब देव अवन्ति रक्षित करते हैं । 'न ऋते श्रन्तस्य सख्याय (देवाः) = जो श्रमशील नहीं देव उसके मित्र नहीं होते। २. इस प्रकार श्रम करते हुए, सब देवों से रक्षित होकर हम पति-पत्नी (इत्) = निश्चय से (विश्वाः) = सब (स्पृधः) = स्पर्धा करनेवाले शत्रुओं को (अभि अश्नवाव) = [to make oneself master of] जीत लें। श्रम के द्वारा शक्तिशाली बनकर ही हम काम-क्रोधादि शत्रुओं को पराजित कर सकेंगे । ३. (अत्र) = इस जीवन में हम (शतनीथम्) = सौ वर्ष तक चलनेवाले (आजिम्) = इस जीवन-संग्राम को (जयाव इत्) = जीतेंगे ही, (यत्) = यदि (सम्यञ्चा) = मिलकर चलनेवाले (मिथुनौ) = हम दोनों (अभ्यजाव) = इन शत्रुओं पर आक्रमण करेंगे। वस्तुतः पति-पत्नी का परस्पर (समन्वय) = जीवन-यात्रा की सफलता के लिए पहली मौलिक बात है। इनका समन्वय न होने पर इनकी शक्तियाँ व्यर्थ हो जाती हैं, व्यर्थ ही नहीं एक-दूसरे को नीचा दिखाने में लगी रहती हैं। ऐसे अवसर पर ये क्रोधादि के शिकार हुए रहते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - पति-पत्नी श्रमशील हों, परस्पर मिलकर चलनेवाले हों तब ये सब शत्रुओं को जीतकर दीर्घजीवी व सफल जीवनवाले होते हैं ।
विषय
गृहस्थ पुरुर्ष के परस्पर कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( यत् ) क्योंकि ( देवाः ) विद्वान् पुरुष और दिव्य अग्नि जल, पृथिवी, वायु आदि तत्त्व पदार्थ भी, ( मृषा श्रान्तं ) व्यर्थ मार्ग में बिना उद्देश्य के श्रम करने वाले की ( न अवन्ति ) रक्षा नहीं करते। इस लिये हे प्रियतम ! हे प्रियतमे ! हम दोनों मिलकर ( विश्वाः इत् स्पृधः ) सभी अपने से स्पर्धा वा संघर्ष करने वालों का (अभि अश्लवाव) मुकाबला करें । ( अत्र ) इस गृहस्थ में रहकर ( शतनीथं ) शतवर्षों में व्यतीत करने योग्य जीवन रूप ( आजिम् ) संग्राम को ( जयाव इत् ) परस्परं मिलकर विजय करें । और ( सम्यञ्चौ ) एक दूसरे को अच्छी प्रकार प्राप्त करते और एक दूसरे का अच्छी प्रकार आदर करते हुए ( मिथुनौ ) दोनों स्त्री पुरुष, पति पत्नी ( अभि अजाव ) एक दूसरे को प्राप्त करें, गृहस्थ कार्य निभावें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
लोपामुद्राऽगस्त्यौ ऋषिः ॥ दम्पती देवता ॥ छन्दः– १, ४ त्रिष्टुप् । २, ३ निचृत त्रिष्टुप् । ६ विराट् त्रिष्टुप् । ५ निचृदबृहती ॥ षडर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
आप्त विद्वान लोक मिथ्याचारी मूढ विद्यार्थ्यांना शिकवीत नाहीत, तर त्यांचा त्याग करतात. स्त्री-पुरुषांनी मिथ्याचार, व्यभिचार इत्यादी दोषांचा त्याग करावा व गृहस्थाश्रमाचा जसा उत्कर्ष होईल तसे परस्पर धर्मयुक्त आचरण करावे. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The vexations of the household are not vain since nature and the divines protect and bless it. Let us together face the problems and win the battles of the world. We shall win the hundredfold battles if we, the wedded couple, were to beget progeny and fulfil our duties of the household.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The dialogue between the couple husbands and wives over the domestic life.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The enlightened persons do not protect a person who pretends falsely. Let us therefore be capable to get over struggles or hurdles in our domestic life, and carry out their duties well. We would triumph in our domestic hardships, if we join together, unite and exert for it.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Truthful persons do not like to teach dull students who are used to tell lies. They admonish them. Therefore it is the duty of all men and women to give up all bad conduct and evils like adultery. The husbands and wives should conduct themselves righteously, so that their domestic life become harmonious and beautiful.
Foot Notes
(स्पृधः) संग्रामान्— Battles or struggles. (आजिम् ) संग्रामम् = Battle, struggle or conflict.!
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