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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 86 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 86/ मन्त्र 10
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - मरुतः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    गूह॑ता॒ गुह्यं॒ तमो॒ वि या॑त॒ विश्व॑म॒त्रिण॑म्। ज्योति॑ष्कर्ता॒ यदु॒श्मसि॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    गूह॑त । गुह्य॑म् । तमः॑ । वि । या॒त॒ । विश्व॑म् । अ॒त्रिण॑म् । ज्योतिः॑ । क॒र्त॒ । यत् । उ॒श्मसि॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    गूहता गुह्यं तमो वि यात विश्वमत्रिणम्। ज्योतिष्कर्ता यदुश्मसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    गूहत। गुह्यम्। तमः। वि। यात। विश्वम्। अत्रिणम्। ज्योतिः। कर्त। यत्। उश्मसि ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 86; मन्त्र » 10
    अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 12; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्ते किं कुर्य्युरित्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे सत्यशवसः सभाद्यध्यक्षादयो ! यूयं यथा स्वमहित्वना गुह्यं गूहत विश्वं तमोऽत्रिणं वियात विनष्टं कुरुत तथा वयं यज्ज्योतिर्विद्याप्रकाशमुश्मसि तत्कर्त्त ॥ १० ॥

    पदार्थः

    (गूहत) आच्छादयत। अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (गुह्यम्) गोपनीयम् (तमः) रात्रिवदविद्याऽन्धकारम् (वि) विगतार्थे (यात) गमयत (विश्वम्) सर्वम् (अत्रिणम्) परसुखमत्तारम्। अदेस्त्रिनिश्च। (उणा०४.६९) अनेन सूत्रेणाऽदधातोस्त्रिनिः प्रत्ययः। (ज्योतिः) विद्याप्रकाशम् (कर्त्त) कुरुत। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (यत्) (उश्मसि) कामयामहे ॥ १० ॥

    भावार्थः

    मरुतः सत्यशवसो महित्वनेति पदत्रयमनुवर्त्तते। सभाद्यध्यक्षादिभिः। परमपुरुषार्थेन सततं राज्यं रक्ष्यमविद्याऽधर्मान्धकारः शत्रवश्च निवारणीयाः। विद्याधर्मसज्जनसुखानि प्रचारणीयानीति ॥ १० ॥ अत्र यथा शरीरस्थाः प्राणवायवः प्रियाणि साधयित्वा सर्वान् रक्षन्ति तथैव सभाध्यक्षादिभिः सर्वं राज्यं यथावत् संरक्ष्यमत एतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तोक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोध्यम् ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वे क्या करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

    पदार्थ

    हे (सत्यशवसः) नित्यबलयुक्त सभाध्यक्ष आदि सज्जनो ! जैसे तुम (महित्वना) अपने उत्तम यश से (गुह्यम्) गुप्त करने योग्य व्यवहार को (गूहत) ढांपो और (विश्वम्) समस्त (तमः) अविद्यारूपी अन्धकार को जो कि (अत्रिणम्) उत्तम सुख का विनाश करनेवाला है, उस को (वि यात) दूर पहुँचाओ तथा हम लोग (यत्) जो (ज्योतिः) विद्या के प्रकाश को (उश्मसि) चाहते हैं, उसको (कर्त्त) प्रकट करो ॥ १० ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में (मरुतः, सत्यशवसः, महित्वना) इन तीनों पदों की अनुवृत्ति है। सभाध्यक्षादि को परम पुरुषार्थ से निरन्तर राज्य की रक्षा करनी तथा अविद्यारूपी अन्धकार और शत्रुजन दूर करने चाहिये तथा विद्या, धर्म और सज्जनों के सुखों का प्रचार करना चाहिये ॥ १० ॥ इस सूक्त में जैसे शरीर में ठहरनेहारे प्राण आदि पवन चाहे हुए सुखों को सिद्ध कर सबकी रक्षा करते हैं, वैसे ही सभाध्यक्षादिकों को चाहिये कि समस्त राज्य की यथावत् रक्षा करें। इस अर्थ के वर्णन से इस सूक्त में कहे हुए अर्थ की उस पिछले सूक्त के अर्थ के साथ एकता जाननी चाहिये ॥

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    विषय

    ज्योति का प्रादुर्भाव

    पदार्थ

    १. हे प्राणो ! (गुह्यं तमः) बुद्धिरूप गुहा में होनेवाले अज्ञानान्धकार को (गृहत) = संवृत करो - हमसे दूर करो, [विनाशयत = सा०] नष्ट करो । प्राणसाधना से ज्ञानदीप्ति प्रकट होती है । यह ज्ञानदीप्ति अन्धकार को नष्ट करनेवाली है । २. (विश्वम्) = हमारे न चाहते हुए भी हममें प्रविष्ट हो जानेवाले (अत्रिणम्) = [अद भक्षणे] हमारी शारीरिक, मानसिक व बौद्धिक उन्नतियों को खा जानेवाले काम, क्रोध व लोभ को (वियात) = हमसे दूर करो । प्राणसाधना का दूसरा लाभ यह है कि शरीर के नाशक 'काम' का, मन को विकृत करनेवाले 'क्रोध' का तथा बुद्धि के विनाशक 'लोभ' का नाश होता है । ३. इनका नाश करके हे प्राणो ! आप उस (ज्योति) = ब्रह्म के प्रकाश को (कर्त) = कीजिए (यत्) = जिसे (उश्मसि) = हम चाहते हैं । हमारी इच्छा होती है कि हम ब्रह्म की ज्योति का दर्शन करें । 'काम, क्रोध, लोभ' उस ज्योति के दर्शन से हमें वञ्चित करते हैं । प्राणसाधना इन कामादि को नष्ट करके हमें उस ज्योति का दर्शन कराती है ।

    भावार्थ

    भावार्थ = प्राणसाधना से [क] अज्ञानान्धकार नष्ट होता है, [ख] 'काम = क्रोध लोभ' दूर होते हैं, [ग] ब्रह्मज्योति का दर्शन होता है ।

    विशेष / सूचना

    विशेष = सूक्त के आरम्भ में कहा है कि प्राणसाधक पुरुष सुगोपातम बनता है [१] । यह साधक यज्ञशील व ज्ञानी होता है [२] । इस साधक की कर्मेन्द्रियों व ज्ञानेन्द्रियाँ प्रशस्त होती हैं [३] । यह साधक स्तवन व आनन्दमय मन से जीवन को प्रशस्त बनाता है [४] । यह साधक प्रभु की प्रेरणा को सुन पाता है [५] । वह प्रारम्भिक जीवन से प्राणसाधना में लग जाता है, [६] अतएव सुभग होता है [७] । सत्यवादी व मेधावी बनता है [८] । राक्षसी वृत्तियों का वेधन करता है [९] ब्रह्मज्योति का दर्शन करता है [१०] । "प्राणसाधक पुरुष उत्तम गुणों से चमक उठते है', इन शब्दों से अगला सूक्त आरम्भ होता है -

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    विषय

    अध्यात्म में प्राणों का वर्णन ।

    भावार्थ

    आप लोग अपने महान् ज्ञान सामर्थ्य से ( गुह्यं ) बुद्धि में स्थित (तमः) खेद जनक अज्ञान रूप अन्धकार को (वि गूहत ) विनष्ट करो। और ( विश्वम् अत्रिणम् ) सब कुछ खाजाने वाले सर्वस्व नाशक लोभ या कामतृष्णा रूप तामस विकार को भी (वि यात) विविध उपायों से दूर करो । ( यत् उष्मसि) जिस परम ज्ञानमय तेज की हम कामना करें उस (ज्योतिः) उत्तम प्रकाश को (कर्त) प्रकट करो । इति द्वादशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोतमो राहूगण ऋषिः ॥ मरुतो देवता ॥ छन्दः–१, ४, ८, ९ गायत्री । २, ३, ७ पिपीलिका मध्या निचृद्गायत्री । ५, ६, १० निचृद्गायत्री ॥ दशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    विषय (भाषा)- फिर वे किसकी कामना, करें, यह विषय इस मन्त्र में कहा है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे सत्यशवसः सभाद्यध्यक्षादयः ! यूयं यथा स्व महित्वना गुह्यं गूहत विश्वं तमः अत्रिणं वि यात विनष्टं कुरुत तथा वयं यत् ज्योतिः विद्याप्रकाशम् उश्मसि तत् कर्त्त ॥१०॥

    पदार्थ

    पदार्थः- हे (सत्यशवसः) नित्यं बलं येषान्तत्सम्बुद्धौ=नित्य बलवाले, (मरुतः) सभाध्यक्षादयः=सभा के अध्यक्ष आदि ! (यूयम्) =तुम सब, (यथा)=जिस प्रकार से, (स्व)=अपनी, (महित्वना) महिम्ना=महिमा से, (गुह्यम्) गोपनीयम्=गोपनीय रूप से, (गूहत) आच्छादयत=ढके हुए, (विश्वम्) सर्वम्=समस्त, (तमः) रात्रिवदविद्याऽन्धकारम्=रात्रि के समान अविद्या के अन्धकार को और (अत्रिणम्) परसुखमत्तारम्=दूसरे के सुख को खा जानेवाले, (वियात) विगमयत { विनष्टम् +कुरुत}=नष्ट करते हो, (तथा)=वैसे ही, (वयम्)=हम, (यत्)=जिस, (ज्योतिः) विद्याप्रकाशम्= विद्या के प्रकाश की, (उश्मसि) कामयामहे=कामना करते हैं, (तत्)=उसको, (कर्त्त) कुरुत=तुम करो, अर्थात् विद्या का प्रकाश करो॥१०॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में “मरुतः” “सत्यशवसः” और “महित्वना” इन तीनों पदों की अनुवृत्ति है। सभाध्यक्षादि के द्वारा परम पुरुषार्थ से निरन्तर राज्य की रक्षा करके अधर्म, अन्धकार और शत्रुओं को दूर करना चाहिए। विद्या, धर्म और सज्जनों के सुखों का प्रचार करना चाहिये ॥१०॥

    विशेष

    महर्षिकृत सूक्त के भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस सूक्त में कहा गया है कि जैसे शरीर में स्थित प्राण-वायु और प्रियों को सिद्ध करके सबकी रक्षा करते हैं, वैसे ही सभाध्यक्ष आदि के द्वारा समस्त राज्य की यथावत् अच्छे प्रकार से रक्षा करनी चाहिए। इस सूक्त के अर्थ की पूर्व के सूक्त के अर्थ के साथ संगति जाननी चाहिये ॥१०॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (सत्यशवसः) नित्य बलवाले (मरुतः) सभा के अध्यक्ष आदि ! (यूयम्) तुम सब (यथा) जिस प्रकार से (स्व) अपनी (महित्वना) महिमा से (गुह्यम्) गोपनीय रूप से (गूहत) ढके हुए (विश्वम्) समस्त (तमः) रात्रि के समान अविद्या के अन्धकार को और (अत्रिणम्) दूसरे के सुख को खा जानेवाले को (वियात) नष्ट करते हो, (तथा) वैसे ही (वयम्) हम (यत्) जिस (ज्योतिः) विद्या के प्रकाश की (उश्मसि) कामना करते हैं, (तत्) उसको (कर्त्त) तुम करो, अर्थात् विद्या का प्रकाश करो॥१०॥

    संस्कृत भाग

    गूह॑त । गुह्य॑म् । तमः॑ । वि । या॒त॒ । विश्व॑म् । अ॒त्रिण॑म् । ज्योतिः॑ । क॒र्त॒ । यत् । उ॒श्मसि॑ ॥ विषयः- पुनस्ते किं कुर्य्युरित्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- मरुतः सत्यशवसो महित्वनेति पदत्रयमनुवर्त्तते। सभाद्यध्यक्षादिभिः परमपुरुषार्थेन सततं राज्यं रक्ष्यमविद्याऽधर्मान्धकारः शत्रवश्च निवारणीयाः। विद्याधर्मसज्जनसुखानि प्रचारणीयानीति ॥१०॥ सूक्तस्य भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र यथा शरीरस्थाः प्राणवायवः प्रियाणि साधयित्वा सर्वान् रक्षन्ति तथैव सभाध्यक्षादिभिः सर्वं राज्यं यथावत् संरक्ष्यमत एतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तोक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोध्यम् ॥१०॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात (मरुतः सत्यशवसः महित्वना) या तीन पदांची अनुवृत्ती झालेली आहे. सभाध्यक्ष इत्यादींनी अत्यंत पुुरुषार्थाने सदैव राज्याचे रक्षण करावे व अविद्यारूपी अंधकार आणि शत्रूंचे निवारण करावे. विद्या, धर्म व सज्जनांचे सुख यांचा प्रचार करावा. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Maruts, powers of courage and justice, uncover and reduce the deep darkness of want and ignorance to nullity, eliminate the voracious hoarders of the world, and create the light that we love and adore.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should they do is taught further in the tenth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Maruts (Presidents of the assemblies etc.) of true vigour, with your might preserve the secret, dissipate all happiness-devouring darkness of ignorance Make us the light (of knowledge) we long for

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (तमः) रात्रिवत् अविद्यान्धकारम् = the darkness of ignorance like the night. (अत्रिणम्) परसुखम् अत्तारम् | अवेस्त्रिनिश्च उणा० ४।६९अनेन सुत्रेणाद् धातोस्त्रिनिः प्रत्ययः। = Devourer of others' happiness. (ज्योतिः) विद्याप्रकाशम् = The light of knowledge.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The President of the assemblies and other officers should protect the State with great labour should dispel all darkness of ignorance and foes. They should spread Dharma (righteousness) knowledge and happiness for all righteous persons. As the Pranas in the body accomplish all dear objects and thus protect all, in the same manner, the Presidents of the assemblies etc. should protect all State properly. Thus this hymn is connected with the previous hymn, which makes mention of these things.

    Translator's Notes

    Here ends the commentary on the eighty-sixth hymn of the first Mandala of the Rigveda Sanhita.

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    Subject of the mantra

    Then, what should they wish for? This issue is mentioned in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (satyaśavasaḥ)= ever-powerful, (marutaḥ)=President of the Assembly etc., (yūyam) =all of you, (yathā) =like, (sva) =own, (mahitvanā)=by glory, (guhyam) =secretly, (gūhata) =covered, (viśvam) =all, (tamaḥ)= the darkness of ignorance is like night and, (atriṇam)= the one who eats the happiness of others, (viyāta) =destroy, (tathā) =similarly, (vayam) =we, (yat) =which, (jyotiḥ) =of the light of knowledge, (uśmasi) =desire, (tat) =to that, (kartta) you do, i.e. manifest the light of knowledge.

    English Translation (K.K.V.)

    O ever-powerful President of the Assembly etc.! Just as all of you, secretly covered with your glory, destroy the darkness of ignorance like the entire night and the one who eats away the happiness of others, similarly you do the light of knowledge that we desire, i.e. manifest the light of knowledge.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    In this mantra, “Marutah”, “Satyashvasah” and “Mahitvana”, these three terms are being followed from earlier mantras of the hymn. One should continuously protect the state with supreme efforts and remove injustice, darkness and enemies, through the President of the Assembly et cetera. Knowledge, righteousness and happiness of gentlemen should be propagated.

    TRANSLATOR’S NOTES-

    Translation of hymn of the mantra by Maharshi Dayanand- It is said in this hymn that just as we protect everyone by perfecting the vital-air and air present in the body and our loved ones, in the same way the entire state should be protected in the best possible manner by the President of the Assembly et cetera. The consistency of the interpretation of this hymn with the interpretation of the previous hymn should be known.

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