ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 86/ मन्त्र 3
ऋषिः - गोतमो राहूगणः
देवता - मरुतः
छन्दः - पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
उ॒त वा॒ यस्य॑ वा॒जिनोऽनु॒ विप्र॒मत॑क्षत। स गन्ता॒ गोम॑ति व्र॒जे ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त । वा॒ । यस्य॑ । वा॒जिनः॑ । अनु॑ । विप्र॑म् । अत॑क्षत । सः । गन्ता॑ । गोऽम॑ति । व्र॒जे ॥
स्वर रहित मन्त्र
उत वा यस्य वाजिनोऽनु विप्रमतक्षत। स गन्ता गोमति व्रजे ॥
स्वर रहित पद पाठउत। वा। यस्य। वाजिनः। अनु। विप्रम्। अतक्षत। सः। गन्ता। गोऽमति। व्रजे ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 86; मन्त्र » 3
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे वाजिनो ! यूयं यस्य क्रियाकुशलस्य विदुषो वाऽध्यापकस्य सकाशात् प्राप्तविद्यं विप्रमन्वतक्षत, स गोमति व्रज उत गन्ता भवेत् ॥ ३ ॥
पदार्थः
(उत) अपि (वा) विकल्पे (यस्य) (वाजिनः) प्रशस्तविज्ञानयुक्ताः (अनु) पश्चादर्थे (विप्रम्) मेधाविनम् (अतक्षत) अतिसूक्ष्मां धियं कुर्वन्ति (सः) (गन्ता) (गोमति) प्रशस्ता गाव इन्द्रियाणि विद्यन्ते यस्मिँस्तस्मिन् (व्रजे) व्रजन्ति जना यस्मिंस्तस्मिन् ॥ ३ ॥
भावार्थः
तीव्रया बुद्ध्या शिल्पविद्यया च सिद्धैर्विमानादिभिर्विना मनुष्यैर्देशदेशान्तरे सुखेन गन्तुमागन्तुं वा न शक्यते, तस्मादतिपुरुषार्थेनैतानि निष्पादनीयानि ॥ ३ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह कैसा हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थ
(वाजिनः) उत्तम विज्ञानयुक्त विद्वानो ! तुम (यस्य) जिस क्रियाकुशल विद्वान् (वा) पढ़ानेहारे के समीप से विद्या को प्राप्त हुए (विप्रम्) विद्वान् को (अन्वतक्षत) सूक्ष्म प्रज्ञायुक्त करते हो (सः) वह (गोमति) उत्तम इन्द्रिय विद्या प्रकाशयुक्त (वज्रे) प्राप्त होने के योग्य मार्ग में (उत) भी (गन्ता) प्राप्त होवे ॥ ३ ॥
भावार्थ
तीव्रबुद्धि और शिल्पविद्या सिद्ध विमानादि यानों के विना मनुष्य देश-देशान्तर में सुख से जाने-आने को समर्थ नहीं हो सकते, उस कारण अति पुरुषार्थ से विमानादि यानों को यथावत् सिद्ध करें ॥ ३ ॥
विषय
गोमान् व्रज में
पदार्थ
१. गतमन्त्र के प्रसङ्ग को ही आगे चलाते हुए कहते हैं कि (उत वा) = और या हे प्राणो ! आप (यस्य वाजिनः) = जिस शक्तिशाली पुरुष के (अनु) = अनुकूल होते हुए (विप्रम्) = विशिष्ट ज्ञानी को (अतक्षत) = बनाते हो, (सः) = वह ज्ञानी पुरुष (गोमति व्रजे) = प्रशस्त इन्द्रियरूप गौओंवाले इस शरीररूप बाड़ें में (गन्ता) = प्राप्त होनेवाला होता है । २. प्राणसाधना से शक्ति भी बढ़ती है और ज्ञान भी बढ़ता है । इस प्राणसाधना से इन्द्रियाँ बनती हैं । इन्द्रियाँ ही मानो गौएँ हैं, शरीर उनका बाड़ा है । प्राणसाधक का यह बाड़ा उत्तम इन्द्रियरूप गौओंवाला होता है ।
भावार्थ
भावार्थ = प्राणसाधना से शक्ति व ज्ञान की वृद्धि होकर कर्मेन्द्रियाँ व ज्ञानेन्द्रियाँ उत्तम बनती हैं ।
विषय
उनके कर्तव्य ।
भावार्थ
( उत वा) और ( यस्य वाजिनः ) जिस ज्ञानैश्वर्य वाले पुरुष के ( अनु ) अधीन रह कर ( विप्रम् अतक्षत ) विद्वान् पुरुष को गुरु जन और अधिक तीक्ष्ण बुद्धि वाला विद्वान् बना देते हैं ( सः ) वह ( गोमतिव्रजे ) ज्ञान वाणियों के मार्ग में तथा इन्द्रियों के ज्ञान करने के मार्ग में ( गन्ता ) सफलता से जाने वाला हो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोतमो राहूगण ऋषिः ॥ मरुतो देवता ॥ छन्दः–१, ४, ८, ९ गायत्री । २, ३, ७ पिपीलिका मध्या निचृद्गायत्री । ५, ६, १० निचृद्गायत्री ॥ दशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
विषय (भाषा)- फिर वह मनुष्य कैसा हो, यह विषय इस मन्त्र में कहा है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे वाजिनः ! यूयं यस्य क्रियाकुशलस्य विदुषः वा अध्यापकस्य सकाशात् प्राप्तविद्यं विप्रम् अनु अतक्षत, स गोमति व्रज उत गन्ता भवेत् ॥३॥
पदार्थ
पदार्थः- हे (वाजिनः) प्रशस्तविज्ञानयुक्ताः= प्रशस्त विशेष ज्ञानवालों! (यूयम्)=तुम सब, (यस्य)=जिस, (क्रियाकुशलस्य)= क्रिया में कुशल, (विदुषः)=विद्वान् के, (वा) विकल्पे=अथवा, (अध्यापकस्य)= अध्यापक के, (सकाशात्)=समीप से, (प्राप्तविद्यम्)=विद्या को प्राप्त करके, (विप्रम्) मेधाविनम्=मेधावी हो जाते हो, (अनु) पश्चादर्थे=इसके बाद, (अतक्षत) अतिसूक्ष्मां धियं कुर्वन्ति= बुद्धि को अति सूक्ष्म, अर्थात् प्रज्ञावान् बना देते हैं, (सः)=वह, (गोमति) प्रशस्ता गाव इन्द्रियाणि विद्यन्ते यस्मिँस्तस्मिन्= प्रशस्त इन्द्रियोंवाले, (व्रजे) व्रजन्ति जना यस्मिंस्तस्मिन्=मनुष्य लोग स्थान को जाते हैं, (उत)=और, [उसमें ही] (गन्ता)=गमन करनेवाला, (भवेत्)=होवे॥३॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- तीव्रबुद्धि और शिल्पविद्या के द्वारा तैयार किये गए विमान आदि के विना मनुष्य विभिन्न स्थानों में सुख से आवागमन नहीं कर सकते हैं, इसलिये कारण अति पुरुषार्थ से इनको बनाना चाहिए ॥३॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (वाजिनः) प्रशस्त विशेष ज्ञानवालों! (यूयम्) तुम सब (यस्य) जिस (क्रियाकुशलस्य) क्रिया में कुशल (विदुषः) विद्वान् के, (वा) अथवा (अध्यापकस्य) अध्यापक की (सकाशात्) समीपता से (प्राप्तविद्यम्) विद्या को प्राप्त करके (विप्रम्) मेधावी हो जाते हो। (अनु) इसके बाद (अतक्षत) बुद्धि को अति सूक्ष्म, अर्थात् प्रज्ञावान् बना देते हो। (सः) वह (गोमति) प्रशस्त इन्द्रियोंवाले (व्रजे) मनुष्य लोग जिस स्थान को जाते हैं (उत) और [वह उसमें ही] (गन्ता) गमन करनेवाला (भवेत्) होवे॥३॥
संस्कृत भाग
उ॒त । वा॒ । यस्य॑ । वा॒जिनः॑ । अनु॑ । विप्र॑म् । अत॑क्षत । सः । गन्ता॑ । गोऽम॑ति । व्र॒जे ॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- तीव्रया बुद्ध्या शिल्पविद्यया च सिद्धैर्विमानादिभिर्विना मनुष्यैर्देशदेशान्तरे सुखेन गन्तुमागन्तुं वा न शक्यते, तस्मादतिपुरुषार्थेनैतानि निष्पादनीयानि ॥३॥
मराठी (1)
भावार्थ
तीव्र बुद्धी व शिल्पविद्येने सिद्ध केलेले विमान इत्यादी यानाशिवाय माणसे सुखाने देशदेशांतरी जाण्या-येण्यास समर्थ होऊ शकत नाहीत. त्यासाठी अत्यंत पुुरुषार्थाने विमान इत्यादी यानांना योग्य रीतीने तयार करावे. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Maruts, powers of exceptional speed and intelligence, the man of knowledge whom you shape into a sophisticated scholar of eminence grows to be a pioneer on the path of the stars.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is a householder is taught further in the third Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O wise and learned men ! the intelligent person whose intellect you sharpen after he has received education and training from an expert and experienced learned man, walks on the path of persons who possess good and strong senses of perception and action.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(वाजिनः) प्रशस्तविज्ञानयुक्ताः = Endowed with good knowledge, highly educated. (अतक्षत) अति सूक्ष्मां धियं कुर्वन्ति = Sharpen intellect. (गोमति) प्रशस्ता गाव: इन्द्रियाणि विद्यन्ते यस्मिन = Possessing admirable senses.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Without the aeroplanes and other vehicles which are manufactured with sharp intellect and technology, it is not possible for men to go to distant places easily, therefore these things should be accomplished with great labour.
Subject of the mantra
Then what kind of the human should be, This subject has been discussed in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (vājinaḥ) =those with vast special knowledge, (yūyam) =all of you, (yasya) =which, (kriyākuśalasya)=proficient in action, (viduṣaḥ) =of scholar, (vā) =or, (adhyāpakasya) =of teacer, (sakāśāt) =in proximity, (prāptavidyam)= after gaining knowledge, (vipram)=become brilliant. (anu) =afterwards, (atakṣata) =make the intellect very subtle, that is, intelligent, (saḥ) =he, (gomati)= having excellent senses, (vraje) =the place where humans go, (uta) =and, [vaha usameṃ hī]=they in that only, (gantā)=traveler, (bhavet) =be.
English Translation (K.K.V.)
O those with vast special knowledge! You all become brilliant by acquiring knowledge through the proximity of a skilled scholar or teacher. After this you make your intellect very subtle, that is, intelligent. He should be the one who travels to the place where people with excellent senses go and he should be the one who travels there only.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Without aircraft etc. prepared by sharp intelligence and craftsmanship, humans cannot travel comfortably to different places, hence they should be made with great effort.
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