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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 162 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 162/ मन्त्र 4
    ऋषिः - रक्षोहा ब्राह्मः देवता - गर्भसंस्त्रावे प्रायश्चित्तम् छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    यस्त॑ ऊ॒रू वि॒हर॑त्यन्त॒रा दम्प॑ती॒ शये॑ । योनिं॒ यो अ॒न्तरा॒रेळ्हि॒ तमि॒तो ना॑शयामसि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । ते॒ । ऊ॒रू इति॑ । वि॒ऽहर॑ति । अ॒न्त॒रा । दम्प॑ती॒ इति॒ दम्ऽप॑ती । शये॑ । योनि॑म् । यः । अ॒न्तः । आ॒ऽरेळ्हि॑ । तम् । इ॒तः । ना॒श॒या॒म॒सि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्त ऊरू विहरत्यन्तरा दम्पती शये । योनिं यो अन्तरारेळ्हि तमितो नाशयामसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः । ते । ऊरू इति । विऽहरति । अन्तरा । दम्पती इति दम्ऽपती । शये । योनिम् । यः । अन्तः । आऽरेळ्हि । तम् । इतः । नाशयामसि ॥ १०.१६२.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 162; मन्त्र » 4
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 20; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (यः) जो (ते) हे स्त्रि ! तेरे (ऊरु) जङ्घों को (विहरति) पृथक्-पृथक् करता है, संकुचित नहीं होने देता या जङ्घों के मध्य में चलता रहता है (दम्पती-अन्तरा) पति-पत्नी के समागम के अवसर पर (शये) अवरोधकरूप में ठहरता है (यः) जो (योनिम्-अन्तरा) योनि के अन्दर (आरेळ्हि) वीर्य को चाट लेता है-खा लेता है (तम्) उसे (इतः-नाशयामसि) यहाँ से नष्ट करते हैं ॥४॥

    भावार्थ

    जो रोगकृमि स्त्री को संकोचित नहीं होने देता या उसके बीच में रेंगता है, जो पति-पत्नी दोनों के समागम के अवसर पर आ घुसता है, योनिस्थान को चाट लेता है, खा लेता है, उस रोगकृमि को नष्ट करना चाहिये ॥४॥

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    विषय

    पति-पत्नी का नीरोग शरीर

    पदार्थ

    [१] (यः) = जो (ते) = तेरी, हे स्त्रि! (उरू विहरति) = जाँघों में विहार करता है, जो भी रोगकृमि तेरी जाँघों में आक्रमण करता है, (तम्) = उसको (इतः) = यहाँ से नाशयामसि हम नष्ट करते हैं । [२] जो भी रोग दम्पती पति-पत्नी के (अन्तरा) = देह के मध्य में गुप्तरूप से है, उसको भी नष्ट करते हैं। [३] और (यः) = जो तेरी (योनिं अन्तः आरेढि) = योनि के अन्दर प्रविष्ट होकर आहित वीर्य को ही चाट जाता है उस कृमि को भी हम विनष्ट करते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- पति-पत्नी के शरीर दोषों को दूर करते हैं जिससे सन्तान नीरोग हो।

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    विषय

    गर्भ संस्राव में प्रायश्चित्त सूक्त। गर्भनाशक कारणों के नाश करने के उपायों का उपदेश।

    भावार्थ

    हे स्त्री ! (यः) जो रोगकारी कारण (ते उरु विहरति) तेरे दोनों जांघों के बीच रहता है, और (दम्पती अन्तरा शये) स्त्री पुरुष दोनों में से किसी के देह में भी गुप्त रूप से है और (यः) जो (योनिम् अन्तः आरेढि) योनि, गर्भाशय के बीच में प्रविष्ट होकर गर्भ को चाट जाता है, (तम् इतः नाशयामसि) उस रोग-कारण रूप कीटाणु आदि को हम यहां से दूर करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषीरक्षोदा ब्राह्मः॥ देवता—गर्भसंस्रावे प्रायश्चित्तम्॥ छन्द:- १, २, निचृदनुष्टुप्। ३, ५, ६ अनुष्टुप्॥ षडृचं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (यः) यः खलु (ते) हे स्त्रि ! तव (ऊरु) जङ्घे (विहरति) पृथक् पृथक् करोति-न सङ्कोचयति यद्वा जङ्घयोर्मध्ये गच्छति (दम्पती-अन्तरा) जायापत्योः समागमावसरे (शये) अवरोधकरूपेण तिष्ठति (यः) यश्च (अन्तरा) अन्तरे (योनिम्) योनिस्थानम् (आरेळ्हि) वीर्यं पूर्णं लेढि-भक्षयति (तम्-इतः-नाशयामसि) तं कृमिमितः स्थानान्नाशयामः ॥४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Whatever disturbs your thighs, interferes with the conjugal relation of the wife and husband, disturbs the couple in sleep or destroys the seed and the embryo in the womb, we destroy and eliminate from here.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो रोगकृमी स्त्रीच्या जांघेला संकुचित होऊ देत नाही किंवा त्यांच्यामध्ये रेंगाळतो. जो पती-पत्नीच्या समागमाच्या वेळी येऊन घुसतो. योनी स्थान चाटतो, खातो. त्या रोगकृमीला नष्ट केले पाहिजे. ॥४॥

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