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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 22 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 22/ मन्त्र 9
    ऋषिः - विमद ऐन्द्रः प्राजापत्यो वा वसुकृद्वा वासुक्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    त्वं न॑ इन्द्र शूर॒ शूरै॑रु॒त त्वोता॑सो ब॒र्हणा॑ । पु॒रु॒त्रा ते॒ वि पू॒र्तयो॒ नव॑न्त क्षो॒णयो॑ यथा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । नः॒ । इ॒न्द्र॒ । शू॒र॒ । शूरैः॑ । उ॒त । त्वाऽऊ॑तासः । ब॒र्हना॑ । पु॒रु॒ऽत्रा । ते॒ । वि । पू॒र्तयः॑ । नव॑न्त । क्षो॒णयः॑ । य॒था॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं न इन्द्र शूर शूरैरुत त्वोतासो बर्हणा । पुरुत्रा ते वि पूर्तयो नवन्त क्षोणयो यथा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम् । नः । इन्द्र । शूर । शूरैः । उत । त्वाऽऊतासः । बर्हना । पुरुऽत्रा । ते । वि । पूर्तयः । नवन्त । क्षोणयः । यथा ॥ १०.२२.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 22; मन्त्र » 9
    अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 7; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (शूर इन्द्र) हे पापहिंसक प्रगतिशील परमात्मन् या राजन् ! (त्वं शूरैः-न) तू पापहिंसकधर्मा या वीरों, प्रगतिशीलों के द्वारा हमारी रक्षा कर (उत) तथा (बर्हणा त्वा ऊतासः) परिवृद्ध हिंसावाली परिस्थितियों या संग्रामभूमि में तेरे द्वारा रक्षित होवें (ते पूर्तयः-पुरुत्रा) तेरी यहाँ बहुत कम पूर्तियाँ (वि नवन्त) विशेषरूप से प्राप्त होती हैं (यथा क्षोणयः) जैसे भूमियाँ-भूमिस्थल सर्वत्र प्राप्त होती हैं ॥९॥

    भावार्थ

    परमात्मा तथा राजा अपनी पराक्रमशक्तियों या सैनिकों के द्वारा पापों या पापियों का संहार करके रक्षा करता है-कठिन से कठिन स्थितियों में भी। तेरी कामपूर्तियों को साधक विशेषरूप से प्राप्त होते हैं, जैसे निवास के लिए भूप्रदेश सर्वत्र प्राप्त होते हैं ॥९॥

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    विषय

    कामनाओं की पूर्ति

    पदार्थ

    [१] हे (शूर) = हमारे शत्रुओं का हिंसन करनेवाले (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (त्वं नः) = आप ही हमारे हो । (उत) = और (शूरैः) = अध्यात्म में सब आधि-व्याधियों को नष्ट करनेवाले मरुत् संज्ञक प्राणों के द्वारा (बर्हणा) = रोगों व दोषों के (उद्धर्हण) = विनाश से (त्वा) = आप द्वारा (ऊतासः) = रक्षित हुए- हुए हम होते हैं। प्रभु ने शरीर में प्राणों का स्थापन इस रूप में किया है कि यदि हम इनकी साधना करके प्राणशक्ति का वर्धन कर लें तो रोग ही नहीं, ईर्ष्या-द्वेष आदि मानस दोष भी नष्ट हो जाएँगे, और आधि-व्याधियों से शून्य यह जीवन अतिसुन्दर बन जायेगा। [२] हे प्रभो ! (यथा) = जैसे (क्षोणयः) = मनुष्य (नवन्त) = आपके समीप आते हैं [नवतिर्गतिकर्मा] उसी प्रकार (ते) = आपकी (पुरुत्रा) = पालक, पूरक व रक्षक (विपूर्तयः) = विशिष्ट रूप से कामनाओं की पूर्तियाँ होती हैं। प्रभु हमारी गलत इच्छाओं को तो पूर्ण नहीं करते, परन्तु 'आयु, प्राण, प्रजा, पशु, कीर्ति, द्रविण व ब्रह्मवर्चस्' आदि में जिस भी पदार्थ की हम कामना करते हैं प्रभु हमें वे ही पदार्थ देते हैं । इन पदार्थों की आसक्ति से ऊपर उठने पर प्रभु हमें मोक्ष का भी पात्र बनाते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु ही प्राणशक्ति के द्वारा हमारी नीरोगता की व्यवस्था करते हैं और हमारी सब उचित कामनाओं को वे प्रभु ही पूर्ण करते हैं ।

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    विषय

    भूमिवत् सर्वपालक-पोषक प्रभु।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! दुष्टों के नाश करने वाले ! समस्त अन्नों के देने हारे ! हे (शूर) दुष्टों के नाशक ! शूरवीर ! (बर्हणा) हिंसाकारी संग्रामादि के अवसरों में भी हम (त्वा-ऊतासः) तेरे बल से सुरक्षित रहें। (ते पूर्तयः) तेरे प्रजाजनों के अन्नादि से उदर और नाना कामनाएं पूर्ण करने के साधन भी (पुरुत्रा) बहुत से हैं। वे (यथा क्षोणयः) भूमियों के समान ही (वि नवन्त) विविध प्रकार से वर्णन किये जाते हैं। भूमियें जिस प्रकार नाना अन्नों से प्राणियों के उदर पूर्ण करती हैं उसी प्रकार तेरे नाना साधन भी जनों के उदर और कामनाएं पूर्ण करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विमद ऐन्द्रः प्रजापत्यो वा वसुकृद् वा वासुक्रः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १,४,८, १०, १४ पादनिचृद् बृहती। ३, ११ विराड् बृहती। २, निचृत् त्रिष्टुप्। ५ पादनिचृत् त्रिष्टुष्। ७ आर्च्यनुष्टुप्। १५ निचृत् त्रिष्टुप्॥ पन्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (शूर इन्द्र) हे पापहिंसक ! “शूर पापाचरणानां हिंसक” [ऋ० ७।३२।२२ दयानन्दः] प्रगतिशील परमात्मन् राजन् वा ! “शूरः शवतेर्गतिकर्मणः” [निरु० ३।१३] (त्वं शूरैः-नः) त्वं पापहिंसकवीरैः प्रगतिशीलैर्वा-अस्मान् रक्षेत्यर्थः (उत) अपि (बर्हणा त्वा-ऊतासः) परिबर्हणायां पापपरिस्थितौ परिवृद्धहिंसायां सांग्रामिकभूमौ वा त्वया रक्षिताः स्यामेति यावत् (ते पूर्तयः पुरुत्रा) तव कामपूर्तयो बहुत्र (वि नवन्त) विशेषेण प्राप्यन्ते “नवति गतिकर्मा” [निघ० २।१४] ‘कर्मणि कर्तृप्रत्ययः’ (यथा क्षोणयः) भूमयो यथा सर्वत्र प्राप्यन्ते। तत्र सर्वत्र भूमिस्थलेषु प्राप्यन्ते ॥९॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O lord most potent, Indra, protect and promote us by the brave so that even in terrible crises we may survive and prevail. Infinite are your gifts of fulfilment that abound all round, and multitudes of people over earth sing and celebrate your generosity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा किंवा राजा आपल्या पराक्रम शक्ती किंवा सैनिकांद्वारे कठीण परिस्थितीतही पाप किंवा पापी लोकांचा संहार करून रक्षण करतो. त्याच्याकडून साधकाची विशेष रूपाने कामपूर्ती होते. जसे निवास करण्यासाठी सर्वत्र भूमी उपलब्ध होते. ॥९॥

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