ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 61/ मन्त्र 13
ऋषिः - नाभानेदिष्ठो मानवः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
तदिन्न्व॑स्य परि॒षद्वा॑नो अग्मन्पु॒रू सद॑न्तो नार्ष॒दं बि॑भित्सन् । वि शुष्ण॑स्य॒ संग्र॑थितमन॒र्वा वि॒दत्पु॑रुप्रजा॒तस्य॒ गुहा॒ यत् ॥
स्वर सहित पद पाठतत् । इत् । नु । अ॒स्य॒ । प॒रि॒ऽसद्वा॑नः । अ॒ग्म॒न् । पु॒रु । सद॑न्तः । ना॒र्स॒दम् । बि॒भि॒त्सन् । वि । शुष्ण॑स्य । सम्ऽग्र॑थितम् । अ॒न॒र्वा । वि॒दत् । पु॒रु॒ऽप्र॒जा॒तस्य । गुहा॑ । यत् ॥
स्वर रहित मन्त्र
तदिन्न्वस्य परिषद्वानो अग्मन्पुरू सदन्तो नार्षदं बिभित्सन् । वि शुष्णस्य संग्रथितमनर्वा विदत्पुरुप्रजातस्य गुहा यत् ॥
स्वर रहित पद पाठतत् । इत् । नु । अस्य । परिऽसद्वानः । अग्मन् । पुरु । सदन्तः । नार्सदम् । बिभित्सन् । वि । शुष्णस्य । सम्ऽग्रथितम् । अनर्वा । विदत् । पुरुऽप्रजातस्य । गुहा । यत् ॥ १०.६१.१३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 61; मन्त्र » 13
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 28; मन्त्र » 3
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अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 28; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अस्य) इस वैराग्यवान् आत्मा के (तत्-इत्-नु) वह फिर (परिषद्वानः) सर्वतः वर्तमान प्राण-इन्द्रिय शक्तियाँ (अग्मन्) शरीर में प्राप्त होती हैं, व्यक्त होती हैं। (पुरु सदन्तः) बहुत या सब अङ्गों को प्राप्त होते हैं (नार्षदं बिभित्सन्) प्राण से निर्वृत्त-सिद्ध या पूरित शरीर को विषय ग्रहण के अयोग्य करते हुए अर्थात् इन्द्रियों के छिद्रों को विषयग्रहण से रहित करता है (अनर्वा) अनन्य-आश्रित अर्थात् इन्द्रियों के पीछे न चलता हुआ-निर्विषयक हुआ (पुरु प्रजातस्य शुष्णस्य संग्रथितम्) बहुत प्रकार से प्रसिद्ध हुए बलवान् वैराग्यवान् आत्मा का सङ्कल्पित (विविदत् गुहा यत्) विशिष्टतया जानता है, जो हृद्गुहा में वर्तमान परमात्मा है ॥१३॥
भावार्थ
वैराग्यवान् आत्मा प्राणों से पूरित शरीर के अन्दर वर्तमान हुआ इन्द्रियों के विषयग्रहण छिद्रों को विषयरहित करके हृदयगुहा में परमात्मा को साक्षात् करता है ॥१३॥
विषय
मुख्य प्राण के अधीन गौण प्राणों के तुल्य राजा के अधीन सामन्तों के कर्त्तव्य।
भावार्थ
(यत्) जब (पुरु-प्रजातस्य) इन्द्रियों में नानारूप होकर प्रकट हुए (शुष्णस्य) बलवान् प्राण के (गुहा) बुद्धि में (सं-ग्रथितम्) एकत्र हुए बल को (वि विदत्) जानता या प्राप्त करता है। जो (अस्य) इसके (परिसद्-वानः) चारों ओर वर्त्तमान सेवकों के तुल्य प्राणगण (पुरु सदन्तः) नाना इन्द्रिय स्थानों में बैठते हुए (नार्सदम्) आत्मा के विराजने के स्थान रूप देह को (विभित्सन्) भेदते हैं, और इन्द्रियों के छिद्रों को बना लेते हैं वे (अस्य तत् इत् नु अग्मन्) उसके उस परम बल को प्राप्त करते हैं। और वह (अनर्वा) किसी अश्ववत् अन्य साधन की अपेक्षा न करने वाला आत्मा अर्थात् आत्मा मन में अपने समूहित प्राण बल को जानता है उस बल को ही अन्य इन्द्रियगण प्राप्त करते हैं, उसी बल से वे इन्द्रिय-छिद्रों को देह में बनाते हैं। इसी प्रकार राजा के (परि-सद्वानः) चारों ओर बैठने वाले सर्दार गण (पुरं नार्सदम् सदन्तः) बहुत से दुर्ग को प्राप्त कर शत्रुगण को तोड़ते हैं। वह राजा (पुरु प्रजातस्य शुष्णः) बहुतों से उत्पन्न संघ बल को संग्रथित रूप से प्राप्त करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नाभानेदिष्ठो मानवः। विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:–१, ८–१०, १५, १६, १८,१९, २१ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ७, ११, १२, २० विराट् त्रिष्टुप्। ३, २६ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ४, १४, १७, २२, २३, २५ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ५, ६, १३ त्रिष्टुप्। २४, २७ आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। सप्तविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
शोषक संगठन का अन्त
पदार्थ
[१] गत मन्त्र में वर्णित (अस्य) = इस राष्ट्रपति के (तद्) = उस कोश को (नु) = अब (इत्) = निश्चय से (परिषद्वानः) = सभा के सभ्य (अग्मन्) = प्राप्त होते हैं । राष्ट्र कार्यों में व्यय के लिये यह कोश सभा को प्राप्त होता है, सभा ही तो बजट को पास करती है। (पुरु) = पालन व पूरण के दृष्टिकोण से (सदन्तः) = सभा में आसीन होते हुए ये सभ्य (नार्षदम्) = [नृ सद् to kill ] प्रजाओं को पीड़ित करनेवाले सभापति व किसी भी अन्य अधिकारी को (बिभित्सन्) = विदीर्ण करने की कामना करते हैं । सभ्यों का यह कर्त्तव्य होता है कि यदि राष्ट्रपति ही प्रजा के लिये अवाञ्छनीय हो जाए तो उसे वे राष्ट्रपति पद से हटा देते हैं, अन्य भी कोई अधिकारी प्रजा पीड़क हो तो उसे वे हटा ही देते हैं । [२] इसी प्रकार राष्ट्र में (शुष्णस्य) = शोषक के (संग्रथिम्) = प्रबल संगठन को भी (वि) = विशेष रूप से (बिभित्सन्) = विदीर्ण करने की कामना करते हैं । यदि राष्ट्र में कोई व्यक्ति धूर्तता व चालाकी से संगठन बनाकर प्रजा का शोषण करने में लगता है तो उस शुष्ण के संगठन को भी वे तोड़ने की प्रबल कामनावाले होते हैं। [३] (अनर्वा) = राष्ट्र की हिंसा न होने देनेवाला राष्ट्रपति (पुरु प्रजातस्य) = [बहु प्रादुर्भावस्य ] नाना प्रान्तों में उत्पन्न हुई हुई अपनी प्रजा के (यत्) = जो (गुहा) = हृदय में गुप्त बात है उसे भी (विदत्) = जानता है। विविध गुप्तचरों के द्वारा बहुविध प्रजा के मनोभावों को यह जानने का प्रयत्न करता है। इस ज्ञान से ही वह प्रजा की ठीक स्थिति को जानकर प्रजा की उन्नति के लिये यत्नशील होता है।
भावार्थ
भावार्थ - कोश सभा को प्राप्त होता है, एक व्यक्ति [= राष्ट्रपति] को इसके व्यय का अधिकार नहीं होता । सभ्य प्रजा पीड़क राष्ट्रपति को भी अलग करने की कामनावाले होते हैं, राष्ट्र में किसी भी 'शोषक संगठन' को विकसित नहीं होने देते। राष्ट्रपति प्रजाओं के गुप्त विचारों को भी जानने का प्रयत्न करता है, उनके इन विचारों को जानकर राष्ट्रोन्नति के लिये यत्नशील होता है ।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अस्य) एतस्य वैराग्यवत आत्मनः (तत्-इत्-नु) तत्खलु पुनः (परिषद्वानः) परितो वर्तमानाः प्राणाः-इन्द्रियशक्तयः (अग्मन्) शरीरे प्राप्ता भवन्ति-व्यक्तीभवन्ति (पुरु सदन्तः) बहूनि सर्वाण्यङ्गानि प्राप्नुवन्तः-इन्द्रियप्राणाः (नार्षदं बिभित्सन्) शरीरम् “प्राणो वै नृषत्” [श० ६।७।३।११] प्राणेन निर्वृत्तं पूरितं वा भेत्तुमिच्छन्-विषयग्रहणाय-अयोग्यं कुर्वन् भिनत्तीत्यर्थः, तत्र स्वस्वछिद्राणि विषयग्रहणानि भिनत्ति विषयरहितानि करोति (अनर्वा) अनन्याश्रितः-इन्द्रियानुगमरहितो निर्विषयकः (पुरुप्रजातस्य शुष्णस्य सङ्ग्रथितम्) बहुप्रकारेण जातस्य शुष्मिणो बलवतो वैराग्यवता आत्मनः सङ्कल्पितं (विविदत् गुहा यत्) विशिष्टतया जानाति यत् खलु हृदयं गुहायां वर्तते परमात्मा ॥१३॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Then the mind, pranic energies and senses, present all round, vested variously in the body, come into divine animation, having dissolved all carnal desires, when the man fulfilled in the soul knows and realises the presence of the all-mighty, all-pervasive supreme spirit in the depth of the heart and soul, interwoven indeed in the web of life itself.
मराठी (1)
भावार्थ
वैराग्यवान आत्मा प्राणयुक्त होऊन शरीरात विषयग्रहण इंद्रियाला विषयरहित करून हृदयगुहेत परमात्म्याचा साक्षात्कार करतो. ॥१३॥
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