ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 61/ मन्त्र 21
ऋषिः - नाभानेदिष्ठो मानवः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अधा॒ गाव॒ उप॑मातिं क॒नाया॒ अनु॑ श्वा॒न्तस्य॒ कस्य॑ चि॒त्परे॑युः । श्रु॒धि त्वं सु॑द्रविणो न॒स्त्वं या॑ळाश्व॒घ्नस्य॑ वावृधे सू॒नृता॑भिः ॥
स्वर सहित पद पाठअध॑ । गावः॑ । उप॑ऽमातिम् । क॒नायाः॑ । अनु॑ । श्वा॒न्तस्य॑ । कस्य॑ । चि॒त् । परा॑ । ई॒युः॒ । श्रु॒धि । त्वम् । सु॒ऽद्र॒वि॒णः॒ । नः॒ । त्वम् । या॒ट् । आ॒श्व॒ऽघ्नस्य॑ । व॒वृ॒धे॒ । सू॒नृता॑भिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अधा गाव उपमातिं कनाया अनु श्वान्तस्य कस्य चित्परेयुः । श्रुधि त्वं सुद्रविणो नस्त्वं याळाश्वघ्नस्य वावृधे सूनृताभिः ॥
स्वर रहित पद पाठअध । गावः । उपऽमातिम् । कनायाः । अनु । श्वान्तस्य । कस्य । चित् । परा । ईयुः । श्रुधि । त्वम् । सुऽद्रविणः । नः । त्वम् । याट् । आश्वऽघ्नस्य । ववृधे । सूनृताभिः ॥ १०.६१.२१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 61; मन्त्र » 21
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 30; मन्त्र » 1
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अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 30; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अध) अनन्तर (कनायाः-गावः कमनीय स्तुतिवाणियाँ (उपमातिम्-अनु) स्तुति के तुल्य-स्तुतिपात्र परमात्मा को लक्ष्य करके (कस्यचित्-श्वान्तस्य परा-ईयुः) किसी स्तुति करने से थके हुए मनुष्य की स्तुतियाँ परमात्मा को प्राप्त होती हैं, ऐसा प्रसिद्ध है (त्वं सुद्रविणः) परमात्मन् ! तू शोभन अध्यात्मधन युक्त होता हुआ (त्वं याट्) तू अध्यात्मयजन करा (अश्वघ्नस्य सूनृताभिः-वावृधे) इन्द्रियरूप घोड़ों के हन्ता अर्थात् जितेन्द्रिय की स्तुतियों द्वारा बढ़ता है-साक्षात् होता है ॥२१॥
भावार्थ
हृदय से परमात्मा की स्तुतियाँ करने से जो मनुष्य श्रान्त हो जाता है, परमात्मा उसको अपना कृपापात्र बनाता है, उसे अध्यात्मधन प्रदान करता है। उस ऐसे संयमी जन के अन्दर वह स्तुतियों से साक्षात् होता है ॥२१॥
विषय
उत्तम भक्त के लक्षण। जितेन्द्रिय से ही। प्रभु प्रसन्न होता है।
भावार्थ
(कस्य चित् श्वान्तस्य) किसी महान् आत्मा की ही (गावः) वाणियां (कनायाः उपमातिम् अनु) सर्व स्तुति योग्य प्रभु के प्रति (परा ईयुः) जाती हैं। हे (सु-द्रविणः) उत्तम ऐश्वर्य-भूति के स्वामिन् प्रभो ! (त्वम् नः श्रुधि) तू हमारी प्रार्थना श्रवण कर। (त्वम् याट) तू हमें दे वा अन्यों से दिला। तू (आश्व-घ्नस्य) अपने अश्व समूह इन्द्रिय गणों को मारने या जीतने वाले वा (अश्व-घ्नस्य) कुक्कुरवत् लोभी इन्द्रियों को सब और से मारने वाले, जितेन्द्रिय की ही (सु-नृताभिः) उत्तम सत्यवाणियों से (ववृधे) वृद्धि को प्राप्त होता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नाभानेदिष्ठो मानवः। विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:–१, ८–१०, १५, १६, १८,१९, २१ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ७, ११, १२, २० विराट् त्रिष्टुप्। ३, २६ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ४, १४, १७, २२, २३, २५ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ५, ६, १३ त्रिष्टुप्। २४, २७ आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। सप्तविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
श्वान्त- अश्वघ्न
पदार्थ
[१] (अधा) = अब (श्वान्तस्य) = [ श्वि गतिवृद्ध्योः ] गति के द्वारा वृद्धि को प्राप्त करनेवाले (कस्यचित्) = किसी विरल व्यक्ति की (गाव:) = वाणियाँ (कनायाः) = दीप्त स्तुति के (उपमातिम्) = उपमानभूत प्रभु को (अनुपरेयुः) = अनुगत होती हैं। अर्थात् इस की वाणियाँ सदा प्रभु का स्तवन करती हैं, उस प्रभु का जो कि हमारे से की जानेवाली स्तुति से सदा अधिक ही हैं । [२] हे प्रभो ! (त्वम्) = आप (श्रुधि) = हमारी प्रार्थना को सुनिये । (नः सुद्रविणः) = हमारे लिये आप उत्तम धनोंवाले हैं, (त्वम्) = आप (याट्) = सब धनों को हमारे लिये देनेवाले हैं [यज्= दान]। आप (आश्वघ्नस्य) = [आ+अश्व + हन्] समन्तात् इन्द्रियों की हिंसा करनेवाले, अर्थात् इन इन्द्रियों को पूर्णरूप से वश में करनेवाले को (सूनृताभिः) = सूनृत वाणियों से (वावृधे) = बढ़ते हैं । जितेन्द्रिय पुरुष की सूनृत वाणियाँ आपकी महिमा का वर्धन करती हैं।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु का गुणगान पूर्णरूपेण करने में समर्थ नहीं। वे प्रभु ही हमें उत्तम धनों को प्राप्त कराते हैं । जितेन्द्रिय पुरुष की सूनृत वाणियाँ प्रभु की महिमा को ही बढ़ाती हैं ।
इंग्लिश (1)
Meaning
And as the prayers of some veteran saint reach you, lord of love and favour, O holy lord of wealth and glory, listen to our prayer: Give us the yajnic gifts of life, you who feel exalted by the joyous and truthful adorations of devotees who have risen above their senses and passions of the mind.
मराठी (1)
भावार्थ
हृदयापासून परमेश्वराची स्तुती करण्याने जो माणूस शांत होतो. परमेश्वर त्याला आपले कृपापात्र बनवितो. त्याला अध्यात्मधन प्रदान करतो. त्या संयमी जनात तो स्तुतीमुळे साक्षात् होतो. ॥२१॥
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