ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 68/ मन्त्र 2
सं गोभि॑राङ्गिर॒सो नक्ष॑माणो॒ भग॑ इ॒वेद॑र्य॒मणं॑ निनाय । जने॑ मि॒त्रो न दम्प॑ती अनक्ति॒ बृह॑स्पते वा॒जया॒शूँरि॑वा॒जौ ॥
स्वर सहित पद पाठसम् । गोभिः॑ । आ॒ङ्गि॒र॒सः । नक्ष॑माणः । भगः॑ऽइव । इत् । अ॒र्य॒मण॑म् । नि॒ना॒य॒ । जने॑ । मि॒त्रः । न । दम्प॑ती॒ इति॒ दम्ऽप॑ती । अ॒न॒क्ति॒ । बृह॑स्पते । वा॒जय॑ । आ॒शून्ऽइ॑व । आ॒जौ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सं गोभिराङ्गिरसो नक्षमाणो भग इवेदर्यमणं निनाय । जने मित्रो न दम्पती अनक्ति बृहस्पते वाजयाशूँरिवाजौ ॥
स्वर रहित पद पाठसम् । गोभिः । आङ्गिरसः । नक्षमाणः । भगःऽइव । इत् । अर्यमणम् । निनाय । जने । मित्रः । न । दम्पती इति दम्ऽपती । अनक्ति । बृहस्पते । वाजय । आशून्ऽइव । आजौ ॥ १०.६८.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 68; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(आङ्गिरसः) विद्वान् का शिष्य (भग-इव नक्षमाणः) धनवान् जैसे धन में रमण करता हुआ अर्थात् व्याप्त हुआ होता है, ऐसे विद्या में रमण करता हुआ-व्याप्त हुआ (गोभिः-अर्यमणं स निनाय) स्तुतिवाणियों के द्वारा जगत् के स्वामी परमात्मा को अपने में लेता है-आकर्षित करता है (मित्रः-न जने) जैसे पारिवारिक जन समुदाय में पुरोहित (दम्पती-अनक्ति) नववधु और वरों को प्रेरित करता है (बृहस्पते आशून्-इव आजौ वाजय) हे बड़े ब्रह्माण्ड के स्वामी परमात्मन् ! जैसे मार्ग में व्यापनशील घोड़ों को संग्राम में प्रेरित करता है, वैसे ही विद्या में व्याप्त स्तोताओं को प्राप्तव्य मोक्ष में प्रेरित कर ॥२॥
भावार्थ
जैसे कोई धनवान् धन में रमण करता हुआ होता है, ऐसे ही विद्वान् का शिष्य विद्या में रमण करता हुआ होता है और वह अपनी स्तुतियों द्वारा जगत् के स्वामी परमात्मा को भी अपने अन्दर साक्षात् करता है। उस ऐसे सच्चे पात्र को परमात्मा मोक्ष में प्रेरित करता है ॥२॥
विषय
अग्नियों के तुल्य विद्वानों का कार्य, सत्-मार्ग प्रकाशन। पुरोहित वा गुरुवत् प्रभु से सन्मार्ग की आशा। कर्मफल दाता प्रभु।
भावार्थ
(आंगिरसः) अंगारों में अग्नि जिस प्रकार (नक्षमाणः) तेज से फैलता हुआ (गोभिः सं निनाय) अपनी किरणों से मनुष्य को अन्धकार में भी सन्मार्ग पर लेजाता है, उसी प्रकार (आंगिरसः) अंगों में रसों के समान विद्यमान देह में व्यापक आत्मा वा अंगिरा ज्ञानवान् पुरुषों का प्रमुख विद्वान् (नक्षमाणः) विद्या-क्षेत्र में अधिक व्यापक ज्ञान रखता हुआ (गोभिः) वाणियों के द्वारा (सं निनाय) शिष्य को सन्मार्ग पर ले चले। और (भग इव इत् अर्यमणम्) सेव्य ऐश्वर्यवान् प्रभु जिस प्रकार (गोभिः) आज्ञावाणियों से सेवक को, उसी प्रकार प्रभु स्तुतिशील भक्त को (गोभिः सं निनाय) वेदवाणियों से सन्मार्ग पर लाता है। (मित्रः) वह सबका स्नेही, मृत्यु से बचाने वाला प्रभु (जने) इस जन्म में हमें सन्मार्ग से ले जाय। अथवा (जने) जन समूह में जिस प्रकार (मित्रः दम्पती अनक्ति) स्नेही पुरुष पुरोहित वर-वधू, जाया-पत्नी दोनों को (सम्) परस्पर एक दूसरे को आमने सामने कर स्नेह करने की प्रेरणा करता, दोनों को मिलाकर एक करता है उसी प्रकार (जने) इस जन्म में (मित्रः) ज्ञानवान्, मृत्युभय से त्राण करने वाला प्रभु (सम् अनक्तु) साक्षात् दर्शन दे। (आजौ) संग्राम में जिस प्रकार वीर सेनापति (आशून्) वेगवान् अश्वों को (वाजयति) वेग से चलाता है उसी प्रकार (बृहस्पतिः) बृहती वेदवाणी का पालक विद्वान् गुरु एवं ब्रह्माण्ड का स्वामी प्रभु (आजौ) जगत् रूप विजय के क्षेत्र में (आशून्) कर्म फल के भोक्ता जीवों को (वाजय) उत्तम अन्नवत् भोग्य कर्मफल प्रदान करे।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अयास्य ऋषिः॥ बृहस्पतिर्देवता। छन्दः— १, १२ विराट् त्रिष्टुप्। २, ८—११ त्रिष्टुप्। ३–७ निचृत् त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
कर्मफल दाता प्रभु
पदार्थ
(आंगिरसः) = अंगारों में अग्नि जिस प्रकार (नक्षमाणः) = फैलता हुआ (गोभिः सं निनाय) = अपनी किरणों से मनुष्य को अन्धकार में भी सन्मार्ग पर ले जाता है, उसी प्रकार (आंगिरसः)-ज्ञानवान् पुरुषों में प्रमुख विद्वान् (नक्षमाणः) = विद्या-क्षेत्र में अधिक व्यापक ज्ञान रखता हुआ (गोभिः) = वाणियों के द्वारा (सं निनाय) = शिष्य को सन्मार्ग पर ले चले और (भग इव इत् अर्यमणम्) = ऐश्वर्यवान् प्रभु जिस प्रकार (गोभिः) = आज्ञावाणियों द्वारा उपासक को, उसी प्रकार वह प्रमुख विद्वान् (गोभिः सं निनाय) = वेदवाणियों द्वारा सन्मार्ग पर लाता है । जने जनसमूह में जिस प्रकार (मित्रः दम्पती अनक्ति) = स्नेही पुरोहित वर-वधू को (सम्) = परस्पर स्नेह करने की प्रेरणा करता है उसी प्रकार वह प्रमुख विद्वान् प्रभु और मुझमें स्नेह उत्पन्न करे। (आजौ) = संग्राम में जिस प्रकार वीर सेनापति (आशून्) = वेगवान् अश्वों को वाजयति वेग से चलाता है उसी प्रकार (बृहस्पतिः) = वेदवाणी का पालक विद्वान् गुरु (आजौ) = जगत् रूप विजय के क्षेत्र में (आशून्) = कर्मफल के भोक्ता हम जीवों को (वाजय) = शक्ति प्रदान करे ।
भावार्थ
भावार्थ- परमात्मा हमारी बुद्धियों में स्नेह उत्पन्न करे जिससे हम सदा विजयी बनें।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(आङ्गिरसः) अङ्गिरसो विदुषो शिष्यः ‘आङ्गिरसा विदुषा कृतो विद्वान्’ [यजु० १७।७३] (भग-इव नक्षमाणः) धनवान् धने रममाण इव विद्यायां व्याप्तः सन् “नक्षति व्याप्तिकर्मा” [निघ० २।१८] (गोभिः-अर्यमणं स निनाय) स्तुतिवाग्भिर्जगतः स्वामिनं परमात्मानं स्वस्मिन् सम्यग्नयति-आकर्षति संयोजयति (मित्रः-न जने दम्पती-अनक्ति) यथा पारिवारिकजनसमुदाये नववधूवरौ प्रेरयिता विद्वान् संस्कारकर्त्ता संयुनक्ति “अनक्तु संयुनक्तु” [यजु० ३७।११ दयानन्दः] (बृहस्पते-आशून्-इव-आजौ वाजय) हे बृहतो ब्रह्माण्डस्य स्वामिन् ! यथा मार्गे व्यापनशीलानश्वान् सङ्ग्रामे वाजयति प्रेरयति तद्वद्विद्यायां व्याप्तान् स्तोतॄन् प्राप्तव्ये मोक्षे प्रेरय “वज् गतौ” [भ्वादिः] ॥२॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Just as Angirasa, enlightened disciple of the sage of living knowledge, like Bhaga, divine lord of light and grandeur, leads his friend to knowledge and prosperity, as a friend leads a couple in the community to come together in marriage, so O Brhaspati, inspire and energise the aspirants to go forward and win their goal by the light and words of divinity.
मराठी (1)
भावार्थ
जसा एखादा धनवान धनात रमण करतो तसा विद्वानाचा शिष्य विद्येत रमण करतो व आपल्या स्तुतीद्वारे जगाचा स्वामी असलेल्या परमात्म्याला आपल्यामध्ये साक्षात करतो. अशा खऱ्या प्रशंसकाला परमात्मा मोक्षासाठी प्रेरित करतो. ॥२॥
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