ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 72/ मन्त्र 2
ऋषिः - बृहस्पतिर्बृहस्पतिर्वा लौक्य अदितिर्वा दाक्षायणी
देवता - देवाः
छन्दः - पादनिचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
ब्रह्म॑ण॒स्पति॑रे॒ता सं क॒र्मार॑ इवाधमत् । दे॒वानां॑ पू॒र्व्ये यु॒गेऽस॑त॒: सद॑जायत ॥
स्वर सहित पद पाठब्रह्म॑णः । पतिः॑ । ए॒ता । सम् । क॒र्मारः॑ऽइव । अ॒ध॒म॒त् । दे॒वाना॑म् । पू॒र्व्ये । यु॒गे । अस॑तः । सत् । अ॒जा॒य॒त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ब्रह्मणस्पतिरेता सं कर्मार इवाधमत् । देवानां पूर्व्ये युगेऽसत: सदजायत ॥
स्वर रहित पद पाठब्रह्मणः । पतिः । एता । सम् । कर्मारःऽइव । अधमत् । देवानाम् । पूर्व्ये । युगे । असतः । सत् । अजायत ॥ १०.७२.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 72; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(ब्रह्मणः-पतिः) ब्रह्माण्ड का पालक तथा स्वामी परमात्मा (कर्मारः-इव) लोहकार शिल्पी के समान (एता समधमत्) इन प्रादुर्भावरूप अङ्कुरों को सन्तापित करता है (देवानां पूर्व्ये युगे) दिव्यगुणवाले सूर्यादि के पूर्व होनेवाले काल में (असतः-सत्-अजायत) अव्यक्त उपादान से व्यक्त विकृतरूप जगत् उत्पन्न होता है ॥२॥
भावार्थ
ब्रह्माण्ड का स्वामी परमात्मा अव्यक्त प्रकृति से व्यक्त जगत् को उत्पन्न करता है। प्रथम प्रादुर्भूत होनेवाले परमाणुरूप अङ्कुरों को तपाता है, पुनः दिव्यगुणवाले सूर्यादि पदार्थों को उत्पन्न करता है ॥२॥
विषय
लोहकार शिल्पी के दृष्टान्त से गुरु के कर्त्तव्य एवं जगत्-उत्पादक प्रभु के सर्जन आदि दर्शन।
भावार्थ
(कर्मारः इव) लोहार जिस प्रकार भट्टी में लोहा को डाल कर (अधमत्) खूब तपाता और धौंकता है उसी प्रकार (ब्रह्मणः पतिः) वेद का पालक, वेद रूप धनैश्वर्य का स्वामी आचार्य गुरु (एता) इन देवों, विद्या के ज्ञानाभिलाषियों को (सम अधमत्) ब्रह्मचर्य और तपस्या के जीवन में उनको शब्द अर्थात् वेदोपदेश करे, उनको तप करावे (देवानां पूर्व्ये युगे) समस्त विद्या की कामना करने वाले एवं क्रीड़ाप्रिय आनन्द-विनोदप्रिय बालकों के पूर्व युग अर्थात् प्रारम्भिक शैशवकाल में (असतः) असत् ज्ञान के स्थान पर (सत्) सत् ज्ञान (अजायत) उत्पन्न हो। इसी से जो ज्ञान वा बल नहीं भी होता है वह भी उनको बाद में प्राप्त हो जाता है। (२) सूर्यादि लोकों के पक्ष में—(ब्रह्मणः पतिः) महान् ब्रह्माण्ड वा प्रकृति ब्रह्म, वा महत् जगत्-कारण का पालक, स्वामी परमात्मा (एता) इन समस्त लोकों को (कर्मारः इव सम् अधमत्) लोहार के समान मानो सब को अग्नि में डालता और तपाता है सबके प्रथम हिरण्यगर्भ रूप अग्निमय तेजस रूप से सब को तप्त करता है। वहीं से अनेक सूर्य तप्तरूप में बाहर होते हैं। (पूर्व्ये युगे) पहले युग और प्रेरणा से जगत् के सञ्चालित होने के अवसर में (देवानाम्) देवों या लोकों का (असतः) असत् अव्यक्त कारण से (सत्) व्यक्त रूप (अजायत) उत्पन्न हुआ। श्वेताश्वतर में ‘त्रिविधं ब्रह्ममेतत्’ ऐसा कहा है इससे प्रकृति तत्त्व भी ब्रह्मवत् है ‘व्यापक होने से ‘ब्रह्म’ है। उसका पालक परमेश्वर ‘ब्रह्मणस्पति’ है। इस जगत् का मूल वा उपादान कारण प्रकृति है और लोहे के पदार्थों को तपा गला कर बनाने वाले लोहार, विश्वकर्मा के समान प्रभु परमेश्वर ही जगत् का निमित्त कारण है।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
बृहस्पतिरांगिरसो बृहस्पतिर्वा लौक्य अदितिर्वा दाक्षायणी ऋषिः। देवा देवता ॥ छन्दः — १, ४, ६ अनुष्टुप्। २ पादनिचृदुनुष्टुप्। ३, ५, ७ निचदनुष्टुप्। ८, ६ विराड्नुष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥
विषय
'असत्' का 'सत्' रूप में आना [देव युग ]
पदार्थ
[१] (ब्रह्मणः पतिः) = ज्ञान का पति प्रभु कर्मार इव एक लोहार की तरह (एता) = इन सूर्यादि देवों की आकृतियों को (अधमत्) = प्रकृति पिण्ड को संतप्त करके ढालता था । प्रकृति के द्वारा प्रभु ने सूर्यादि को बनाया । एक लोहार लोहपिण्ड को संतप्त कर के आहत करता है और विविध आकृतियों में उसे परिणत करता है, इसी प्रकार प्रभु ने प्रकृति पिण्ड को संतप्त करके सूर्यादि देवों की आकृति में परिणत किया। [२] (देवानां पूर्व्यं युगे) = इस देवों के निर्माणवाले प्रथम युग में (असतः) = आकृतिशून्य अव्यक्त, असत् प्राय - प्रकृति से सत्-यह आकृतिवाला व्यक्त जगत् (अजायत) = प्रादुर्भूत हो गया । सृष्ट्युत्पत्ति का प्रथम युग वही है जिसमें कि 'असत् प्रकृति' 'सत् सृष्टि' का रूप लेती है, इसमें सूर्य, चन्द्र, नक्षत्रों का निर्माण हो जाता है और यह 'देव-युग' कहलाता है। इन देवों का निर्माण ज्ञान के पति प्रभु से हुआ है, सो उसके ज्ञान की पूर्णता के कारण इनके निर्माण में भी किसी प्रकार की कमी नहीं। 'पूर्णमदः पूर्णमिदं'- प्रभु पूर्ण हैं, सो सृष्टि भी पूर्ण है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु ने अव्यक्त प्रकृति को व्यक्त सृष्टि का रूप दिया। प्रभु पूर्ण ज्ञानी हैं सो उनकी रचना में भी न्यूनता नहीं है ।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(ब्रह्मणः-पतिः) ब्रह्माण्डस्य पालकः पतिश्च (कर्मारः-इव-एता समधमत्) शिल्पी लोहकार इव एतान् ‘आकारादेशः’ प्रादुर्भावरूपानङ्कुरान् सन्तापयति (देवानां पूर्व्ये युगे) दिव्यगुणानामादित्यादीनां पूर्वभवे काले ततः (असतः-सत्-अजायत) अव्यक्तादुपादानाद् व्यक्तं सदात्मकं विकृतरूपं जायते ॥२॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Brahmanaspati, lord, master and ordainer of the cycle of existence, sets these devas in motion like an artisan in the earliest age of evolution and they awake from the unmanifest state of Being into the manifest state of Becoming in existence. (The Avyakta, intangible, becomes the Vyakta, tangible, mode of Prakrti or Nature.)
मराठी (1)
भावार्थ
ब्रह्मांडाचा स्वामी परमात्मा अव्यक्त प्रकृतीद्वारे व्यक्त जगत उत्पन्न करतो. प्रथम प्रादुर्भूत होणाऱ्या परमाणूरूप अंकुरांना तप्त करतो. नंतर दिव्यगुणयुक्त सूर्य इत्यादी पदार्थ उत्पन्न करतो. ॥२॥
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