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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 72 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 72/ मन्त्र 5
    ऋषिः - बृहस्पतिर्बृहस्पतिर्वा लौक्य अदितिर्वा दाक्षायणी देवता - देवाः छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    अदि॑ति॒र्ह्यज॑निष्ट॒ दक्ष॒ या दु॑हि॒ता तव॑ । तां दे॒वा अन्व॑जायन्त भ॒द्रा अ॒मृत॑बन्धवः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अदि॑तिः । हि । अज॑निष्ट । दक्ष॑ । या । दु॒हि॒ता । तव॑ । ताम् । दे॒वाः । अनु॑ । अ॒जा॒य॒न्त॒ । भ॒द्राः । अ॒मृत॑ऽबन्धवः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अदितिर्ह्यजनिष्ट दक्ष या दुहिता तव । तां देवा अन्वजायन्त भद्रा अमृतबन्धवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अदितिः । हि । अजनिष्ट । दक्ष । या । दुहिता । तव । ताम् । देवाः । अनु । अजायन्त । भद्राः । अमृतऽबन्धवः ॥ १०.७२.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 72; मन्त्र » 5
    अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (दक्ष) हे सूर्य ! (या-अदितिः) जो उषारूप प्रभा (तव दुहिता) तेरी पुत्री (अजनिष्ट) उत्पन्न होती है (ताम्-अनु) उसे लक्ष्य करके (भद्राः-अमृतबन्धवः) कल्याणकारी अमृतसम्बन्धी (देवाः-अजायन्त) प्रकाशमान रश्मियाँ उत्पन्न होती हैं ॥५॥

    भावार्थ

    सूर्योदय होने के पश्चात् आकाश में उषा-पीलिमा प्रथम प्रातःकाल प्रकाशित होती है, पश्चात् प्रकाश करती हुई सूर्य की रश्मियाँ आती हैं, यह प्रातःकाल का स्वरूप है ॥५॥

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    विषय

    सूर्य से भूमि के तुल्य गुरु से विद्या का प्रादुर्भाव। सूर्य की पुत्री पृथिवी से अनेक जीवों की उत्पत्ति। प्रकृति से सूर्यादि लोकों की उत्पत्ति का वर्णन।

    भावार्थ

    हे (दक्ष) दग्ध करने वाले सूर्य ! (या तव दुहिता) जो तेरी पुत्री के समान है वह (अदितिः हि अजनिष्ट) दृढ़ पृथिवी वा अग्नि रूप से उत्पन्न हुई। उसी प्रकार हे (दक्ष) तेजस्विन् ! वा हे उत्साह, बल, वीर्यशालिन् गुरो ! (अदितिः) कभी खण्डित न होने वाली वाणी, विद्या (या तव दुहिता) जो तेरी समस्त रसों, ज्ञानों, आनन्द सुखों, इच्छाओं को पूर्ण करती है, (ताम् अनु) उसके पश्चात् (भद्राः) कल्याणकारी (अमृत-बन्धवः) अमृत, ज्ञान से बन्धु सदृश होने वाले (देवाः अजायन्त) विद्वान् उत्पन्न होते हैं। (२) इसी प्रकार पूर्वोक्त पृथिवी सूर्य की पुत्री के समान है, (ताम् अनु) उसके पश्चात् (भद्राः) सुख-ऐश्वर्य में रमण करने वाले, (अमृत-बन्धवः) अमृत अविनाशी जीवन से बंधे हुए, (देवाः) अनेक जीवगण (अजायन्त) उत्पन्न हुए। पृथिवी से जीवों के तुल्य ही ‘दक्षः’ बल-स्वरूप प्रभु की सर्वकर्त्री, अदिति अखण्ड प्रकृति से भी देव सूर्यादि उत्पन्न हुए। इति प्रथमो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    बृहस्पतिरांगिरसो बृहस्पतिर्वा लौक्य अदितिर्वा दाक्षायणी ऋषिः। देवा देवता ॥ छन्दः — १, ४, ६ अनुष्टुप्। २ पादनिचृदुनुष्टुप्। ३, ५, ७ निचदनुष्टुप्। ८, ६ विराड्नुष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    'भद्र व अमृतबन्धु' देव

    पदार्थ

    [१] हे (दक्ष) = संसार का वर्धन करनेवाले प्रभो ! (हि) = निश्चय से यह (अदिति:) = अविनाशी प्रकृति, (या) = जो कि (तव) = आपकी (दुहिता) = प्रपूरक है [दुह प्रपूरणे], वह (अजनिष्ट) = इस संसार को जन्म देती है। एक कुशल कुम्हार घड़े बनाने में जैसे किसी अन्य चेतन की सहायता की अपेक्षा न करके स्वयं ही मट्टी से घड़े बनाता है, उसी प्रकार वे सर्वशक्तिमान् सर्वज्ञ प्रभु भी इस अदिति से इस ब्रह्माण्ड के सब लोक-लोकान्तरों का निर्माण करते हैं। लोक-लोकान्तरों का उपादानकारण तो यह प्रकृति ही है, यही विकृत होकर इस चराचर के रूप में आती है। परमात्मा ही विकृत होकर इन लोकों का रूप नहीं धारण कर लेते, प्रभु तो निर्विकार हैं, वे उपादानकारण नहीं है । प्रभु तो इस सृष्टि के निमित्तकारण ही हैं। वे अपने इस कार्य में किसी की सहायता की अपेक्षा नहीं करते, इसी से वे सर्वशक्तिमान् हैं । [२] (तां अनु) = सत्त्व, रजस्, तमो गुणात्मिका इस अदिति के अनुसार ही (देवा:) = इस ब्रह्माण्ड के सब देव, सब लोक-लोकान्तर, सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र आदि भी (अजायन्त) = सत्त्व, रजस् व तमस् को लेकर ही उत्पन्न हुए हैं। ये सब लोक व दिव्य पिण्ड (भद्रा:) = हमारा कल्याण व सुख करनेवाले हैं और (अमृतबन्धवः) = [ अ + मृत+बन्धु] हमारे साथ नीरोगता का सम्बन्ध करनेवाले हैं। जितना-जितना हम इन सूर्यादि देवों के सम्पर्क में जीवन बितायेंगे उतना-उतना ही दीर्घजीवी बनेंगे। पशु हमारी अपेक्षा अधिक प्राकृतिक जीवन बिताते हैं और परिणामतः नीरोग होते हैं। यह प्रकृति हमें भी नीरोग बनाती है यदि हम इसकी गोद में बैठने का ध्यान करते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु प्रकृति के द्वारा इस संसार को बनाते हैं, सब पिण्ड प्रकृति के अनुसार सत्त्व, रजस् व तमस् को लिये हुए हैं। कोई भी पदार्थ इन गुणों से रहित नहीं, ये हमें सुखी व नीरोग बनाते हैं ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (दक्ष या-अदितिः-तव दुहिता-अजनिष्ट) हे दक्ष-सूर्य ! या तव दुहिता पुत्री खल्वदितिः-प्रभाः-उषोरूपा जायते (ताम्-अनु भद्राः-अमृतबन्धवः-देवाः-अजायन्त) तामनुलक्ष्य कल्याण-कारिणः-अमृतबन्धनास्तवामृतरूपस्य सम्बन्धिनः प्रकाशमाना रश्मयो जायन्ते ॥५॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Daksha, lord of will and intelligence, Aditi is bom which is your offspring, indeed your desire to be many. In consequence, the devas are born, the noble fraternity of the immortal (Nature and divinity).$The order of the birth of the devas is thus described in the Upanishads and in Sankhya philosophy of natural evolution it is this: From avyakta Prakrti evolves Mahan or Pradhana which is vyakta Prakrti. From Mahan arises Ahankara which is described here as Uttanapad or the tree of the universe. From Prakrti are also manifested the three qualilative modes of existence: Sattva or intelligence, Rajas or energy, and Tamas or solid matter. This same is the order here in a different terminology. From Ahankara are born the five subtle bhutas and both mental and perceptive organs. From five subtle bhutas are born the five gross bhutas: Akasha, Vayu, Agni, Apah and Prthivi which all are composed of paramanus, the smallest units.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सूर्योदयानंतर आकाशात उषा प्रात:काळी प्रकाशित होते. नंतर प्रकाशासह सूर्यरश्मी प्रकट होतात. हेच प्रात:काळचे स्वरूप आहे. ॥५॥

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