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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 87 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 87/ मन्त्र 12
    ऋषिः - पायुः देवता - अग्नी रक्षोहा छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    तद॑ग्ने॒ चक्षु॒: प्रति॑ धेहि रे॒भे श॑फा॒रुजं॒ येन॒ पश्य॑सि यातु॒धान॑म् । अ॒थ॒र्व॒वज्ज्योति॑षा॒ दैव्ये॑न स॒त्यं धूर्व॑न्तम॒चितं॒ न्यो॑ष ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत् । अ॒ग्ने॒ । चक्षुः॑ । प्रति॑ । धे॒हि॒ । रे॒भे । श॒फ॒ऽआ॒रुज॑म् । येन॑ । पश्य॑सि । या॒तु॒ऽधान॑म् । अ॒थ॒र्व॒ऽवत् । ज्योति॑षा । दैव्ये॑न । स॒त्यम् । धूर्व॑न्तम् । अ॒चित॑म् । नि । ओ॒ष॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तदग्ने चक्षु: प्रति धेहि रेभे शफारुजं येन पश्यसि यातुधानम् । अथर्ववज्ज्योतिषा दैव्येन सत्यं धूर्वन्तमचितं न्योष ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तत् । अग्ने । चक्षुः । प्रति । धेहि । रेभे । शफऽआरुजम् । येन । पश्यसि । यातुऽधानम् । अथर्वऽवत् । ज्योतिषा । दैव्येन । सत्यम् । धूर्वन्तम् । अचितम् । नि । ओष ॥ १०.८७.१२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 87; मन्त्र » 12
    अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अग्ने) हे तेजस्वी अग्रणायक ! (रेभे) अति शब्द करनेवाले प्रजागण के निमित्त (तत्-चक्षुः) उस यथार्थदर्शक नेत्र को (प्रति धेहि) स्थापित कर-उसके आर्त्तनाद को सुन (येन शफारुजम्) जिससे पापकारी जो वाणी के शल्य से अन्यों को पीड़ा देता है, उस (यातुधानं पश्यसि) पीड़ा देनेवाले पाप करते हुए को देखता है (अथर्ववत्) सूर्य के समान (दैव्येन-ज्योतिषा) आकाश में होनेवाले प्रखर तेज से (सत्यं धूर्वन्तम्) सत्य को विनष्ट करते हुए (अचितं न्योष) मूढ़ को जला दे ॥१२॥

    भावार्थ

    प्रजा के आर्त्तनाद को सुनकर, उनकी अवस्था को देखकर, सूर्य के समान तेज से सत्य के नष्ट करनेवाले मूढ़ को जला दे ॥१२॥

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    विषय

    न्याय-बल से अनृतवादी, आदि दुष्टों का दमन।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) तेजस्विन् ! सर्वप्रकाशक ! दुष्टों को दग्ध करने हारे ! तू (येन) जिस न्याय दृष्टि से (शफारुजं यातुधानं पश्यसि) निन्दा और कुत्सित वचनों से पीड़ा देने वाले (यातु-धानम्) पीड़ादायक पुरुष को (पश्यसि) देखता है, (तत्) उसी (चक्षुः) सत्य प्रकाशक चक्षु को (रेभे) प्रार्थना करने वाले, अपने दुःख निवेदन करने वाले, वा स्तुतिकारी या शुभ वचन, सदुपदेश करने वाले पर (प्रति धेहि) डाल। (सत्यं धूर्वन्तम्) सत्य का नाश करने वाले (अचितम्) पाप को करने में न चेतने वाले, पाप के दुष्परिणाम को न जानने वाले पुरुष को (अथर्ववत्) निश्चल, अडिग, निष्प्रकम्प, स्थिरभाव से युक्त, निष्पक्षपात होकर (दैव्येन ज्योतिषा) अग्नि, आदि दिव्य पदार्थों की ज्योति से (नि ओष) खूब संतप्त कर, उन पर दिव्य परीक्षा का प्रयोग कर जिससे वे भय से सत्य कहें, असत्य न कहें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः पायुः। देवता–अग्नी रक्षोहा॥ छन्दः— १, ८, १२, १७ त्रिष्टुप्। २, ३, २० विराट् त्रिष्टुप्। ४—७, ९–११, १८, १९ निचृत् त्रिष्टुप्। १३—१६ भुरिक् त्रिष्टुप्। २१ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २२, २३ अनुष्टुप्। २४, २५ निचृदनुष्टुप्॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    दिव्य ज्योति से यातुधानत्व का दहन

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = राष्ट्र के अग्रेणी राजन् ! तू (तद् चक्षुः) = उस आँख को (रेभे) = [talker] बहुत बोलनेवाले पर भी (प्रतिधेहि) = रख, (येन) = जिस आँख से तू (शफारुजम्) = राष्ट्र वृक्ष के मूल पर कुठाराघात करनेवाले [शफ = root of a tree] (यातुधानम्) = प्रजापीड़क को पश्यसि देखता है । राजा को यातुधानों पर तो दृष्टि रखनी ही चाहिए, इनके अतिरिक्त बहुत बोलनेवालों पर भी उसे दृष्टि रखनी है । ये रेभ प्रजा के बहकाने में समर्थ हो जाते हैं और उन्हें मार्ग से भटका देते हैं । [२] हे राजन् ! तू (अथर्ववत्) = एक अडिग पुरुष की तरह [न थर्वति] (दैव्येन) = दिव्यगुणों की उत्पत्ति के लिये हितकर (ज्योतिषा) = ज्ञान से इस (सत्यं धूर्वन्तम्) = सत्य की हिंसा करते हुए (अचितम्) = नासमझ यातुधान को (न्योष) = [ नि ओष] नितरां दग्ध करनेवाला हो [उष दाहे ] । ज्ञान के द्वारा इसके यातुधानत्व को समाप्त करके इसे पवित्र जीवनवाला बना दीजिये ।

    भावार्थ

    भावार्थ - राजा ज्ञान प्रसार के द्वारा यातुधानों के यातुधानत्व को समाप्त करके उन्हें दैवी वृत्तिवाला बनाये ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अग्ने) हे तेजस्विन्-अग्रणीः ! (रेभे तत्-चक्षुः प्रति धेहि) अति शब्दं कुर्वति प्रजागणे यथार्थदर्शकं चक्षुर्निपातय तस्यार्त्तनादं शृणु (येन शफारुजं यातुधानं पश्यसि) येन पापकारिणं शफेन वाक्शल्येनान्यान् रुजति पीडयति तम् “धिष्ण्याः शफाः” [काठ० १६।८] “धिषणा वाङ्नाम” [निघ० १।११] यातनाधारकं पापं कुर्वन्तं पश्यसि (अथर्ववत्-दैव्येन ज्योतिषा) प्रजापतिरादित्यवत् “एष आदित्यः प्रजापतिः” [काठ० १२।६] “अथर्वा वै प्रजापतिः” [गो० १।१।४] दिविभवेन प्रखरेण तेजसा (सत्यं धूर्वन्तम्-अचितं न्योष) सत्यं घ्नन्तं मूढं निदह ॥१२॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Agni, cast the same eye of light on the law abiding celebrant of the social order by which you watch the violent and antisocial elements treading on the peace and order of society. As an enlightened power undisturbed at heart, with your divine light and power, light up or burn out the callous and violent destroyer of truth and law.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    प्रजेचा आर्तनाद ऐकून, त्यांची अवस्था पाहून, सूर्याप्रमाणे तेजाने, सत्य नष्ट करणाऱ्या मूढाला जाळून टाकावे. ॥१२॥

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