ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 87/ मन्त्र 6
यत्रे॒दानीं॒ पश्य॑सि जातवेद॒स्तिष्ठ॑न्तमग्न उ॒त वा॒ चर॑न्तम् । यद्वा॒न्तरि॑क्षे प॒थिभि॒: पत॑न्तं॒ तमस्ता॑ विध्य॒ शर्वा॒ शिशा॑नः ॥
स्वर सहित पद पाठयत्र॑ । इ॒दानी॑म् । पश्य॑सि । जा॒त॒ऽवे॒दः॒ । तिष्ठ॑न्तम् । अ॒ग्ने॒ । उ॒त । वा॒ । चर॑न्तम् । यत् । वा॒ । अ॒न्तरि॑क्षे । प॒थिऽभिः । पत॑न्तम् । तम् । अस्ता॑ । वि॒ध्य॒ । शर्वा॑ । शिशा॑नः ॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्रेदानीं पश्यसि जातवेदस्तिष्ठन्तमग्न उत वा चरन्तम् । यद्वान्तरिक्षे पथिभि: पतन्तं तमस्ता विध्य शर्वा शिशानः ॥
स्वर रहित पद पाठयत्र । इदानीम् । पश्यसि । जातऽवेदः । तिष्ठन्तम् । अग्ने । उत । वा । चरन्तम् । यत् । वा । अन्तरिक्षे । पथिऽभिः । पतन्तम् । तम् । अस्ता । विध्य । शर्वा । शिशानः ॥ १०.८७.६
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 87; मन्त्र » 6
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
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अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(जातवेदः-अग्ने) हे अवसर के वेत्ता सेनानायक ! (इदानीम्) अब ऐसा कर (यत्र पश्यसि) जिस स्थान पर तू दुष्ट को देखे (तिष्ठन्तम्-उत वा चरन्तम्) ठहरे हुए को-बैठे हुए को और या चलते हुए को यद्वा (अन्तरिक्षे पथिभिः पतन्तम्) अन्तरिक्ष में मार्गों से जाते हुए को तू देखे (अस्ता) अस्त्र फेंकनेवाला तू (तं शिशानः) उसे तेजस्वी होता हुआ (शर्वा विध्य) बाण से बींध ॥६॥
भावार्थ
सेनानायक को चाहिये कि जब भी शत्रु को बैठा हुआ, चलता हुआ या आकाश में देखे, उसे तुरन्त शस्त्रास्त्रों से ताड़ित करे ॥६॥
विषय
सेनापति को आकाश भूमि आदि सर्वत्र दुष्टों के नाश का उपदेश।
भावार्थ
हे (जात-वेदः) धनैश्वर्य के स्वामिन् ! (इदानीं) इस समय (यत्र) जहां भी तू किसी दुष्ट पुरुष को (तिष्ठन्तं पश्यसि) खड़ा देखे, अथवा (चरन्तं पश्यसि) अथवा विचरता देखे, (यत् वा) अथवा (अन्तरिक्षे) अन्तरिक्ष में वा (पथिभिः पतन्तं) भूमि पर मार्गों से जाता हुआ देखे (तम्) उस दुष्ट को, हे (अग्ने) सेनानी ! तू (अस्ता) दुष्टों को उखाड़ने हारा (शिशानः) तीक्षण शासन करता हुआ, नियम व्यवस्थाओं और सैन्य शास्त्रादि को तीव्र रखता हुआ, दुष्टों को (शर्वा) हिंसाकारी साधन, बाण, वा शस्त्र से (विध्य) मार।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः पायुः। देवता–अग्नी रक्षोहा॥ छन्दः— १, ८, १२, १७ त्रिष्टुप्। २, ३, २० विराट् त्रिष्टुप्। ४—७, ९–११, १८, १९ निचृत् त्रिष्टुप्। १३—१६ भुरिक् त्रिष्टुप्। २१ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २२, २३ अनुष्टुप्। २४, २५ निचृदनुष्टुप्॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
ज्ञान द्वारा वासना विनाश
पदार्थ
[१] हे (जातवेदः) = सर्वज्ञ प्रभो ! (अग्ने) = अग्रेणी प्रभो! आप (इदानीम्) = अब (यत्र) = जहाँ भी (तिष्ठन्तम्) = ठहरे हुए, प्रसुप्त अवस्था में पड़े हुए हिंसक विचार को [ यातुधान को] (उत वा) = अथवा (चरन्तम्) = गति करते हुए, अर्थात् जागरित अवस्था में कार्य करते हुए अशुभ विचार को पश्यसि देखते हैं आप (तम्) = उसको विध्य नष्ट करिये। हमारे जागरित व प्रसुप्त सभी अशुभ विचार विनष्ट हो जाएँ। [२] (यद् वा) = अथवा (अन्तरिक्षे) = हृदयान्तरिक्ष में (पथिभिः पतन्तम्) = नाना मार्गों से गति करते हुए, विविधरूपों में प्रकट होते हुए (तम्) = इस यातुधान को (अस्ता) = सुदूर फेंकनेवाले आप (शिशान:) = हमारी बुद्धियों को तीव्र करते हुए (शर्वा) = नाशक शक्ति के द्वारा (विध्य) = बींध डालियेआपकी कृपा से विविध रूपों में हृदय के अन्दर उठनेवाला अशुभ भाव विनष्ट हो जाए।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु कृपा से हमारा ज्ञान बढ़े और अशुभ भाव विनष्ट हो जाएँ ।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(जातवेदः-अग्ने) हे अवसरस्य वेत्तः ! सेनानायक ! (इदानीम्) अधुना एवं कुरु (यत्र पश्यसि) यस्मिन् स्थाने त्वं दुष्टं पश्येः (तिष्ठन्तम्-उत वा चरन्तम्-अन्तरिक्षे पथिभिः पतन्तम्) स्थितं सन्तं गच्छन्तमाकाशे मार्गैर्गच्छन्तं पश्येः (अस्ता) अस्त्रप्रक्षेप्ता सन् (तं शिशानः शर्वा विध्य) त्वं तेजस्वी सन् शरेण विध्य ॥६॥
इंग्लिश (1)
Meaning
And now, whenever you see, O ruler all knowing, Agni, the enemies of life, elements of darkness and destruction, covered in clusters or roaming around or even flying in the sky by paths of air, then sharp, shining and instantly shooting, destroy the enemy with a fatal shot of thunderous missile.
मराठी (1)
भावार्थ
जेव्हा शत्रू थांबलेले, चाललेले किंवा आकाशमार्गाने जात असतील तर सेनानायकाने त्यांना ताबडतोब शस्त्रास्त्रांनी ताडित करावे. ॥६॥
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