ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 87/ मन्त्र 25
प्रत्य॑ग्ने॒ हर॑सा॒ हर॑: शृणी॒हि वि॒श्वत॒: प्रति॑ । या॒तु॒धान॑स्य र॒क्षसो॒ बलं॒ वि रु॑ज वी॒र्य॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठप्रति॑ । अ॒ग्ने॒ । हर॑सा । हरः॑ । शृ॒णी॒हि । वि॒श्वतः॑ । प्रति॑ । या॒तु॒ऽधान॑स्य । र॒क्षसः॑ । बल॑म् । वि । रु॒ज॒ । वी॒र्य॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रत्यग्ने हरसा हर: शृणीहि विश्वत: प्रति । यातुधानस्य रक्षसो बलं वि रुज वीर्यम् ॥
स्वर रहित पद पाठप्रति । अग्ने । हरसा । हरः । शृणीहि । विश्वतः । प्रति । यातुऽधानस्य । रक्षसः । बलम् । वि । रुज । वीर्यम् ॥ १०.८७.२५
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 87; मन्त्र » 25
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 9; मन्त्र » 5
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अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 9; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अग्ने) हे तेजस्वी नायक ! (यातुधानस्य रक्षसः) यातनाधारक राक्षस के (हरः) प्रहारक गर्व को (हरसा) अपने प्रहारक तेज से (प्रति शृणीहि) उलट कर नष्ट कर (बलं वीर्यं वि रुज) बल और प्रताप को भङ्ग कर ॥२५॥
भावार्थ
पीड़ा देनेवाले दुष्ट के बल को राष्ट्र का नायक अपने शस्त्रबल और प्रताप से नष्ट करे ॥२५॥
विषय
उनको विविध उपायों से दण्डित करने का आदेश।
भावार्थ
हे (अग्ने) तेजस्विन् ! तू (रक्षसः हरः) दुष्ट पुरुष के तेज को (विश्वतः) सब प्रकार से अपने (हरसा) तेज से (प्रति शृणीहि) नष्ट कर। और (यातु-धानस्य) प्रजा पीड़क दुष्ट पुरुष के (बलं) बल को और (वीर्यम्) वीर्य, सामर्थ्य को (वि-रुज) विविध उपायों से नष्ट कर। इति नवमो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः पायुः। देवता–अग्नी रक्षोहा॥ छन्दः— १, ८, १२, १७ त्रिष्टुप्। २, ३, २० विराट् त्रिष्टुप्। ४—७, ९–११, १८, १९ निचृत् त्रिष्टुप्। १३—१६ भुरिक् त्रिष्टुप्। २१ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २२, २३ अनुष्टुप्। २४, २५ निचृदनुष्टुप्॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
में प्रभु-स्थापन द्वारा रिक्तता का न होने देना
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) परमात्मन् ! (रक्षसः हरः बलम्) = राक्षसी भावों के हरणात्मक तेज को (हरसा) = अपने तेज से (विश्वतः प्रति) = सब ओर से प्रति (शृणीहि) = नष्ट करिये। काम आदि आसुरभाव अत्यन्त प्रबल हैं, परन्तु प्रभु के तेज के सामने इनका तेज तुच्छ हो जाता है। [२] इस (यातुधानस्य) = पीड़ा का आधान करनेवाले (रक्षसः) = राक्षसी भाव के (वीर्यम्) = सामर्थ्य को (विरुज) = विशेषरूप से भग्न कर दीजिये । आपके तेज को धारण करके हम आसुरभावों के तेज को नष्ट करनेवाले हों ।
भावार्थ
भावार्थ - हम प्रभु का हृदयों में धारण करें। परिणामतः हमारे हृदय रिक्त न होंगे और उनमें आसुरभावों के लिये स्थान ही न होगा। सारे सूक्त में भिन्न-भिन्न प्रकार से यही कहा गया है कि हम प्रभु का धारण करेंगे तो हमारे राक्षसीभाव स्वतः नष्ट हो जाएँगे। इन राक्षसी भावों को नष्ट करके मनुष्य उत्कृष्ट मूर्धावाला ज्ञानी अथवा उन्नति के शिखर पर पहुँचा हुआ 'मूर्धन्वान्' बनता है। यह अंग-प्रत्यंगों में रसवाला होने के कारण 'आंगिरस' होता है। तथा सुन्दर दिव्य गुणोंवाला बनकर 'वामदेव्य' कहलाता है। यही अगले सूक्त का 'ऋषि' है। यह प्रार्थना करता है कि-
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अग्ने) हे तेजस्विन् नायक ! (यातुधानस्य रक्षसः) यातनाधारकस्य राक्षसस्य (हरः) प्रहारकं गर्वं (हरसा) स्वकीयेन प्रहारकतेजसा (प्रति शृणीहि) प्रतिकृत्य नाशय (बलं वीर्यं वि रुज) बलं प्रतापं च पीडय भङ्गं कुरु ॥२५॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, universal spirit of light and fire, creator, protector and destroyer, refulgent ruler of nature, life and society, with your love and passion for life and goodness and with your wrath against evil, sabotage and negativity, seize, cripple and all round destroy the strength, vigour, valour and resistance of the negative and destructive forces of evil and wickedness, lurking, working and persisting in nature, life and society. Save the good and destroy the demons.
मराठी (1)
भावार्थ
राष्ट्रनायकाने कष्ट देणाऱ्या दुष्टाचे बल आपल्या शस्त्र, बल व पराक्रमाने नष्ट करावे. ॥२५॥
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