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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 92 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 92/ मन्त्र 12
    ऋषिः - शार्यातो मानवः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    उ॒त स्य न॑ उ॒शिजा॑मुर्वि॒या क॒विरहि॑: शृणोतु बु॒ध्न्यो॒३॒॑ हवी॑मनि । सूर्या॒मासा॑ वि॒चर॑न्ता दिवि॒क्षिता॑ धि॒या श॑मीनहुषी अ॒स्य बो॑धतम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । स्यः । नः॒ । उ॒शिजा॑म् । उ॒र्वि॒या । क॒विः । अहिः॑ । शृ॒णो॒तु॒ । बु॒ध्न्यः॑ । हवी॑मनि । सूर्या॒मासा॑ । वि॒ऽचर॑न्ता । दि॒वि॒ऽक्षिता॑ । धि॒या । श॒मी॒न॒हु॒षी॒ इति॑ । अ॒स्य । बो॒ध॒त॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत स्य न उशिजामुर्विया कविरहि: शृणोतु बुध्न्यो३ हवीमनि । सूर्यामासा विचरन्ता दिविक्षिता धिया शमीनहुषी अस्य बोधतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत । स्यः । नः । उशिजाम् । उर्विया । कविः । अहिः । शृणोतु । बुध्न्यः । हवीमनि । सूर्यामासा । विऽचरन्ता । दिविऽक्षिता । धिया । शमीनहुषी इति । अस्य । बोधतम् ॥ १०.९२.१२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 92; मन्त्र » 12
    अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 25; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (उत स्यः) हाँ वह परमात्मा (उशिजां नः) हम कामना करनेवालों की (उर्विया) बहुत प्रकारवाली स्तुति को (अहिः) व्यापक (बुध्न्यः) जगत् के मूल प्रकृति को साधनेवाला (कविः) सर्वज्ञ हुआ (हवीमनि) अध्यात्मयज्ञ में (शृणोतु) मुझे स्वीकार करे (दिवि क्षिता) आकाश में स्थित (सूर्यामासा) सूर्य चन्द्रमा के समान (शमीनहुषी) कर्म में बँधे स्त्री-पुरुष (धिया) ध्यानक्रिया से (अस्य) इस परमात्मा को (बोधतम्) जानें ॥१२॥

    भावार्थ

    जगत् के मूल प्रकृति का अधिकारकर्ता सर्वज्ञ परमात्मा हम कामना करनेवालों की बहुत प्रकार से की हुई स्तुति को स्वीकार करता है तथा सूर्य चन्द्रमा के समान नियम कर्म में बँधे स्त्री-पुरुष ध्यान से परमात्मा को जानें ॥१२॥

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    विषय

    प्रभु हमारी प्रार्थना को सुनें

    पदार्थ

    [१] (उत) = और (स्यः) = वह (कवि) = क्रान्तदर्शी - सर्वज्ञ प्रभु, (अहि:) = कभी भी हीन न होनेवाला, (बुध्न्यः) = सबके मूल में विद्यमान सर्वाश्रय प्रभु (नः) = हम (उशिजाम्) = मेधावियों की (हवीमनि) = पुकार के होने पर (उर्विया) = खूब ही (शृणोतु) = सुने। हम मेधावी बनकर प्रभु का आराधन करें, जिससे हमारी आराधना उस सर्वज्ञ, अहीन, सर्वाश्रय प्रभु के द्वारा अवश्य सुनी जाए। प्रभु सर्वज्ञ होने से हमारी आवश्यकता को हमारी अपेक्षा अधिक ठीक ही जानते हैं। 'अहीन' होने से वे हमारी प्रार्थना को पूर्ण करने की क्षमता रखते हैं। सर्वाश्रय होने से आधार देने योग्य को वे आधार देते ही हैं। [२] (दिविक्षिता) = द्युलोक में निवास करनेवाले, (विचरन्ता) = विभिन्न मार्गों में गति करते हुए (सूर्यामासा) = सूर्य और चन्द्र [ चन्द्रमा:- माः ] तथा (शमीनहुषी) = [ शमी - कर्म] सब कर्मों की आधारभूत यह पृथिवी तथा [नह बन्धने] लोक-लोकान्तरों को अपने में बाँधनेवाला यह द्युलोक (धिया) = बुद्धि के द्वारा (अस्य) = हमारी इस प्रार्थना को (बोधतम्) = जानें । अर्थात् सूर्य, चन्द्र, द्युलोक तथा पृथ्वीलोक सभी हमारे अनुकूल होकर हमारी बुद्धि को बढ़ानेवाले हों, जिस बुद्धि से हम अभीष्ट पुरुषार्थों को सिद्ध कर पायें।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम समझदार बनकर प्रभु का आराधन करें, प्रभु हमारी प्रार्थना को सुनें। सूर्य, चन्द्र, द्युलोक व पृथ्वीलोक हमारी बुद्धि को बढ़ानेवाले हों।

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    विषय

    सर्वव्यापक प्रभु से अनेक प्रार्थनाएं।

    भावार्थ

    (उत) और (उशिजां नः) उत्तम कामना वाले हमारी (उर्विया) बहुत २ स्तुति को (स्यः) वह (कविः) क्रान्तदर्शी अन्तर्यामी, (अहिः बुध्न्यः) सर्वाश्रय, सर्वव्यापक ज्ञानी प्रभु (हवीमनि) यज्ञ में (शृणोतु) श्रवण करे। और (सूर्यामासा) सूर्य और चन्द्र के तुल्य प्रकाशमान्, प्रतापी और आह्लादक जन, (दिविक्षिता) ज्ञान में निवास करने वाले, वा (दिवि क्षिता धिया विचरन्ता) आकाश और भूमि में बुद्धि और कर्म सामर्थ्य से विचरण करते हुए, विविध सुखों को भोगते हुए, उत्तम स्त्री पुरुष वर्ग (शमी-नहुषी) कर्मों द्वारा बद्ध रह कर (अस्य बोधतम्) इस प्रभु वा आत्मा का ज्ञान करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः शार्यातो मानवः। विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः— १, ६, १२, १४ निचृज्जगती। २, ५, ८, १०, ११, १५ जगती। ३, ४, ९, १३ विराड् जगती। ७ पादनिचृज्जगती। पञ्चदशर्चं सूकम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (उत स्यः) अपि च स परमात्मा (उशिजां नः) कामयमानानाम् ‘उशिग् वष्टेः कान्तिकर्मणः’ [निरु० ६।१०] ‘उशिक् कामयमानः’ [ऋ० १।६०।४ दयानन्दः] (उर्विया) बहुप्रकारां स्तुतिम् ‘उरु बहुनाम’ [निघ० ३।१] ‘अम् स्थाने’ इया प्रत्ययश्छान्दसः (अहिः-बुध्न्यः कविः) व्यापकः ‘अहिरयनात्’ [निरु० २।१७] बुध्नं मूलं जगतो मूलं प्रकृतिस्तत्र साधुः साधयिता परमात्मा क्रान्तदर्शी सर्वज्ञः (हवीमनि) अध्यात्मयज्ञे (शृणोतु) यां स्वीकरोतु (दिविक्षिता) आकाशे स्थितौ (सूर्यामासा) सूर्याचन्द्रमसौ (विचरन्ता) विचरन्ताविव (शमीनहुषी) कर्मबद्धौ, स्त्रीपुरुषौ (धिया) ध्यानक्रियया (अस्य बोधतम्) एवं परमात्मानम् ‘द्वितीयास्थाने षष्ठी व्यत्ययेन’ जानीतम् ॥१२॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    And may that Ahirbudhnya, omnipresent, omniscient and all watching lord of expansive Prakrti, listen to our profuse prayer and adoration offered in our yajna with unbounded love and faith. And may the sun and moon, both stationed in heaven and moving in space, acknowledge our homage with their sensitive natural perception, and may the heaven and earth too acknowledge our homage.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जगाच्या मूळ प्रकृतीचा अधिकारकर्ता सर्वज्ञ परमात्मा कामना करणारी आमची स्तुती स्वीकारतो. त्यासाठी सूर्य, चंद्राप्रमाणे नियम कर्मात बंधित स्त्री-पुरुषांनी ध्यानाने परमात्म्याला जाणावे. ॥१२॥

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