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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 92 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 92/ मन्त्र 14
    ऋषिः - शार्यातो मानवः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    वि॒शामा॒सामभ॑यानामधि॒क्षितं॑ गी॒र्भिरु॒ स्वय॑शसं गृणीमसि । ग्नाभि॒र्विश्वा॑भि॒रदि॑तिमन॒र्वण॑म॒क्तोर्युवा॑नं नृ॒मणा॒ अधा॒ पति॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒शाम् । आ॒साम् । अभ॑यानाम् । अ॒धि॒ऽक्षित॑म् । गीः॒ऽभिः । ऊँ॒ इति॑ । स्वऽय॑शसम् । गृ॒णी॒म॒सि॒ । ग्नाभिः॑ । विश्वा॑भिः । अदि॑तिम् । अ॒न॒र्वण॑म् । अ॒क्तोः । युवा॑नम् । नृ॒ऽमनाः॑ । अध॑ । पति॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विशामासामभयानामधिक्षितं गीर्भिरु स्वयशसं गृणीमसि । ग्नाभिर्विश्वाभिरदितिमनर्वणमक्तोर्युवानं नृमणा अधा पतिम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विशाम् । आसाम् । अभयानाम् । अधिऽक्षितम् । गीःऽभिः । ऊँ इति । स्वऽयशसम् । गृणीमसि । ग्नाभिः । विश्वाभिः । अदितिम् । अनर्वणम् । अक्तोः । युवानम् । नृऽमनाः । अध । पतिम् ॥ १०.९२.१४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 92; मन्त्र » 14
    अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 25; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (आसाम्) इन (अभयानाम्) भयरहित (विशाम्) उपासक प्रजाओं के (अधिक्षितम्) अन्दर निवास करनेवाले (स्वयशसम्) स्वाधार यशवाले (अदितिम्) एकरस (अनर्वणम्) स्वाश्रित (नृमणाः) जीवन्मुक्तों में कृपाभाव से स्वप्रसाददानरूप मनवाले (अध) और (पतिम्) सब जगत् के स्वामी या पालक (अक्तोः-युवानम्) उसी कामना करनेवाले के सङ्गमकर्त्ता परमात्मा को (विश्वाभिः) सब प्रकारवाली (ग्नाभिः) स्तुतिवाणियों से (गृणीमसि) हम स्तुति में लावें ॥१४॥

    भावार्थ

    निर्भय, उपासक, मनुष्यप्रजाओं के अन्दर निवास करनेवाले, स्वाधार, यशस्वी, एकरस, जगत् के स्वामी, उपासकों को चाहनेवाले, उनके साथ सङ्गति करनेवाले परमात्मा की स्तुति करनी चाहिये ॥१४॥

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    विषय

    देवस्तवन द्वारा प्रभु स्तवन

    पदार्थ

    [१] गत मन्त्र के अनुसार आत्मा की ओर चलनेवाली, अतएव (आसाम्) = इन (अभयानाम्) = निर्भय दैवी सम्पत्ति का प्रारम्भ 'अभय' से ही होता है। दैवी सम्पत्ति को अपने में बढ़ाकर ही तो हम प्रभु को अपने में आमन्त्रित करपाते हैं। (विशाम्) = प्रजाओं के (अधिक्षितम्) = अन्दर निवास करनेवाले, (उ) = और (स्वयशसम्) = अपने सृष्टि की उत्पत्ति स्थिति आदि कर्मों से यशस्वी प्रभु को (गीर्भिः) = इन वेदवाणियों से (गृणीमसि) = स्तुत करते हैं । सब से पूर्व हम प्रभु का ही आराधन करते हैं। प्रभु की आराधना ही मनुष्य को निर्भय बनाती है । [२] इसके बाद, (विश्वभिः) = सब (ग्ग्राभिः) = देव-पत्नियों के साथ (अदितिम्) = उस प्रकृतिरूप अदीना देवमाता को हम [गृणीमसि ] स्तुत करते हैं । प्रकृति से बननेवाले ये सूर्य, जल, पृथिवी, वायु आदि सब देव अपनी-अपनी शक्ति से युक्त हैं। ये शक्तियाँ ही उन देवों की 'पत्नी' कहलाती हैं। इन सबके साथ हम इस प्रकृति का स्तवन करते हैं। इनके गुणों का ज्ञान ही इन देवों का स्तवन होता है । [३] (अनर्वणम्) = इस ओषधियों में रस सञ्चार के द्वारा हमें हिंसित न होने देनेवाले (अक्तोः युवानम्) = रात्रि के साथ अपना मेल करनेवाले चन्द्रमा को हम स्तुत करते हैं । इस चन्द्रमा में प्रभु की महिमा को देखते हैं (नृमणा:) = [नृषु अनुग्राहकं मन्ते यस्य] मनुष्यों पर अनुग्राहक मनवाला जो आदित्य है उस आदित्य का हम स्तवन करते हैं। किस प्रकार उदय होकर यह सब में प्राणों का संचार करता है ? [४] (अधा) = और अब इन सब देवों के स्तवन के साथ (पतिम्) = इन सब देवों के स्वामी प्रभु का स्तवन करते हैं । इन देवों के स्तवन से वस्तुतः प्रभु का ही स्तवन होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु का, प्रभु की पत्नीरूप इस प्रकृति का, सब देवों का व देवों द्वारा फिर से प्रभु का स्तवन करते हैं।

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    विषय

    सर्वोपरि शास्ता प्रभु की स्तुति।

    भावार्थ

    (आसाम् अभयानाम् विशाम्) इन भय रहित प्रजाओं के बीच (अधि-क्षितम्) राजा के तुल्य सब के ऊपर शासक रूप से विराजते हुए, (स्व-यशसम्) अपने पराक्रम और बल से यशस्वी, उस प्रभु की हम (गीर्भिः गृणीमसि) नाना वेद-वाणियों से स्तुति करते हैं। उस (अदितिं) अखण्ड, अविनाशी, (अनर्वाणम्) अन्य से न चलने वाले, स्वतन्त्र, (युवानम्) जवान के तुल्य सदा बलशाली, (पतिम्) गृहपति के तुल्य समस्त प्रजाओं के पालक, (नृमनाः) मनुष्यों के बीच ज्ञानी के तुल्य उन पर अनुग्रह करने वाले, प्रभु की (अक्तोः) रात्रि दिन हम (विश्वाभिः नाभिः) समस्त वाणियों से (गृणीमसि) स्तुति करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः शार्यातो मानवः। विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः— १, ६, १२, १४ निचृज्जगती। २, ५, ८, १०, ११, १५ जगती। ३, ४, ९, १३ विराड् जगती। ७ पादनिचृज्जगती। पञ्चदशर्चं सूकम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (आसाम्-अभयानां विशाम्) एतासां भयरहितानामुपासकप्रजानाम् (अधिक्षितम्) अन्तर्निवसन्तं (स्वयशसम्) स्वाधारयशस्विनम् (अदितिम्) एकरसं (अनर्वणम्) स्वाश्रितं (नृमणाः) नृमणसम् “सुपां सु०” [अष्टा० ७।१।३९] इति ‘अम्स्थाने सुः” नृषु जीवन्मुक्तेषु कृपाभावेन स्वप्रसाददानाय मनो यस्य तथाभूतम् “नरो ह वै देवविशः” [जै० १।८९] (अध) अथ च (पतिम्) सर्वस्य जगतः स्वामिनं पालकं वा (अक्तोः-युवानम्) परमात्मानं कामयमानस्य मिश्रयितारं (विश्वाभिः-ग्नाभिः-गृणीमसि) सर्वाभिः स्तुतिवाग्भिः “ग्ना वाङ्नाम” [निघ० १।११] वयं स्तुमः ॥१४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    With songs of praise we celebrate Agni, ruling divine power abiding at heart among these fearless people, the divinity glorious by its own actions. Along with all the world’s divine powers of nature and humanity, we also praise Aditi, imperishable Prakrti, the moon, youthful ruler of the night, and the self- existent, self-refulgent sun, gracious life giver of the people.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    निर्भय, उपासक माणसांमध्ये निवास करणारा, स्वाधार, यशस्वी एकरस, जगाचा स्वामी, उपासकांना इच्छिणारा, त्यांच्याबरोबर संगती करणाऱ्या परमात्म्याची स्तुती केली पाहिजे. ॥१४॥

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