ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 32/ मन्त्र 2
ऋषिः - गृत्समदः शौनकः
देवता - इन्द्रस्त्वष्टा वा
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
मा नो॒ गुह्या॒ रिप॑ आ॒योरह॑न्दभ॒न्मा न॑ आ॒भ्यो री॑रधो दु॒च्छुना॑भ्यः। मा नो॒ वि यौः॑ स॒ख्या वि॒द्धि तस्य॑ नः सुम्नाय॒ता मन॑सा॒ तत्त्वे॑महे॥
स्वर सहित पद पाठमा । नः॒ । गुह्याः॑ । रिपः॑ । आ॒योः । अह॑न् । द॒भ॒न् । मा । नः॒ । आ॒भ्यः । री॒र॒धः॒ । दु॒च्छुना॑भ्यः । मा । नः॒ । वि । यौः॑ । स॒ख्या । वि॒द्धि । तस्य॑ । नः॒ । सु॒म्न॒ऽय॒ता । मन॑सा । तत् । त्वा॒ । ई॒म॒हे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
मा नो गुह्या रिप आयोरहन्दभन्मा न आभ्यो रीरधो दुच्छुनाभ्यः। मा नो वि यौः सख्या विद्धि तस्य नः सुम्नायता मनसा तत्त्वेमहे॥
स्वर रहित पद पाठमा। नः। गुह्याः। रिपः। आयोः। अहन्। दभन्। मा। नः। आभ्यः। रीरधः। दुच्छुनाभ्यः। मा। नः। वि। यौः। सख्या। विद्धि। तस्य। नः। सुम्नऽयता। मनसा। तत्। त्वा। ईमहे॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 32; मन्त्र » 2
अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
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अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ विदुषां मित्रत्वमाह।
अन्वयः
यानि नो गुह्या सख्याऽऽयोरहन्मा दभन्। रिपश्च मा दभ्नीयाद्यथाहं कस्य चिन्मनुष्यस्य सुखं न दभ्नुयां तथा हे सेनेश त्वमाभ्यो दुच्छुनाभ्यो नो मा रीरधो मा नो वियौः सुम्नायता मनसा नो विद्धि तस्य सज्जनस्य सुखं मा वियौस्तस्माद्वयं तत्त्वेमहे ॥२॥
पदार्थः
(मा) निषेधे (नः) अस्माकम् (गुह्या) गुप्तानि रहस्यानि (रिपः) पृथिवी। रिप इति पृथिवीना० निघं० १। १ (आयोः) मनुष्यस्य सुखम् (अहन्) अहनि दिवसे (दभन्) दभ्नुयुः (मा) (नः) (आभ्यः) पृथिवीभ्यः (रीरधः) हिंस्यात् (दुच्छुनाभ्यः) दुःखकारिणीभ्यः शत्रुसेनाभ्यः (मा) (नः) अस्मान् (वि) (यौ) पृथक् कुर्याः (सख्या) सख्युः कर्माणि (विद्धि) जानीहि (तस्य) (नः) अस्माकम् (सुम्नायता) आत्मनः सुम्नं सुखमिच्छता (मनसा) अन्तःकरणेन (तत्) तम् (त्वा) त्वाम् (ईमहे) याचामहे ॥२॥
भावार्थः
सर्वैर्मनुष्यैरेवं सदैवेषितव्यं यदस्माभिः कस्यचित्सुखहानिः कदाचिन्न कर्त्तव्या मित्रताभङ्गो नैव विधेयः शत्रुसेनाभ्यः सर्वे सज्जनाः सदा रक्षणीयाः सततं सत्पुरुषेभ्यः सुखं याचनीयञ्च ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
अब विद्वानों की मित्रता को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
जो (नः) हमारे (गुह्या) गुप्त एकान्त के (सख्या) मित्रपन के काम (आयोः) मनुष्य के सुख को (अहन्) किसी दिन में (मा,दभन्) मत नष्ट करें (रिपः) और पृथिवी (मा) मत नष्ट करें वा जैसे मैं किसी मनुष्य के सुख को न नष्ट करूँ। वैसे हे सेनापति ! आप (आभ्यः) इन पृथिवी वा (दुच्छुनाभ्यः) दुःखकारिणी शत्रु की सेनाओं से (नः) हम लोगों को (मा,रीरधः) मत नष्ट करें (मा) मत (नः) हम लोगों को (मनसा) अन्तःकरण से (वि,यौः) अलग करें वा (सुम्नायता) अपने को सुख की इच्छा करते हुए (नः) हम लोगों को (विद्धि) जानो (तस्य) उस सज्जन के सुख को (मा) मत नष्ट करो, इस कारण हम लोग उक्त कर्म और आपको (ईमहे) याचते हैं ॥२॥
भावार्थ
सब मनुष्यों को इस प्रकार सदा इच्छा करनी चाहिये कि किसी के सुख की हानि कभी न करनी चाहिये, मित्रता का भङ्ग न करना चाहिये, सब सज्जनों की सदा रक्षा करनी चाहिये, निरन्तर सज्जनों के लिये सुख माँगना चाहिये ॥२॥
विषय
अटूट मित्रता
पदार्थ
१. हे प्रभो ! (सुम्नायता) = [सुम्न Hymn] स्तुति की कामनावाले (मनसा) = मन से (त्वा तत् ईमहे) = आपसे यही चाहते हैं कि [क] (न:) = हमें (आयोः) = मनुष्य के (गुह्या:) = हृदयरूप गुहा में ही छिपकर रहनेवाले (रिपः) = हिंसक काम आदि शत्रु (अहन्) = इस जीवन के दिनों में (मा दभन्) = हिंसित करनेवाले न हों। हम इन शत्रुओं के वश में न हो जाएँ। [ख] आप (नः) = हमें (आभ्यः) = इन (दुच्छुनाभ्यः) = दुर्गतियों के लिए (मा रीरधः) = मत वशीभूत करिए। हम दुराचारों के काबू में न हो जाएँ । ३. इन दोनों बातों से भी बड़ी बात तो यह है कि (नः) = हमारी (सख्या) = [सख्यानि] मित्रता को (मा वियौः) = अपने से (पृथक्) = मत करिए। हम सदा आपके मित्र बने रहें । कभी यह मित्रता टूटे नहीं। (तस्य विद्धि) = इस बात का आप अवश्य ध्यान करिए। हमारी सर्वोपरि कामना यही है कि हम आपके मित्र बने रहें ।
भावार्थ
भावार्थ - हम अन्तः शत्रुओं से हिंसित न हों। हम दुराचारों के वशीभूत न हों। हमारी प्रभु से मित्रता बनी रहे ।
विषय
प्रभु से उत्तम उत्तम प्रार्थनाएं ।
भावार्थ
हे परमेश्वर ! हे राजन् ! विद्वन् ! ( आयोः ) मनुष्य के ( गुह्याः ) छुपे ( रिपः ) पाप, हिंसा आदि ( नः ) हमें ( अहन् ) किसी दिन भी ( मा दभन् ) पीड़ित न करें। ( आभ्यः ) इन ( दुःच्छुनाभ्यः ) दुःखदायी, सुखनाशक विपत्तियों या परसेनाओं के द्वारा ( नः मा रीरधः ) पीड़ित न कर, उनके वश न होने दे । ( नः सख्या ) हमारे परस्पर के मैत्रीभावों को ( मा वि यौः ) मत टूटने दे, प्रजा में फूट मत पैदा कर । प्रत्युत ( नः ) हमारे ( तस्य ) उस मैत्री भाव को तू भी जान और प्राप्त कर । ( सुम्नायता मनसा ) सुख की इच्छा वाले चित्त से ( तत् त्वाम् ) तुझ को हम (ईमहे) याचना प्रार्थना करते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः ॥ १, द्यावापृथिव्यौ । २, ३ इन्द्रस्त्वष्टा वा । ४,५ राका । ६,७ सिनीवाली । ८ लिङ्कोत्का देवता ॥ छन्दः– १ जगती । ३ निचृज्जगती । ४,५ विराड् जगती । २ त्रिष्टुप् ६ अनुष्टुप् । ७ विराडनुष्टुप् । ८ निचृदनुष्टुप् ॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
सर्व माणसांनी या प्रकारची इच्छा करावी की आम्ही कुणाचे सुख नष्ट करता कामा नये. मित्रत्व नष्ट करता कामा नये. सर्व सज्जनांचे सदैव रक्षण केले पाहिजे व सज्जनांसाठी सुखाची सतत याचना केली पाहिजे. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
May the secret intrigues of hostile men never hurt us in the day or night, nor may the earth hurt the joy of humanity with calamities. Nor must anyone alienate us from our friends. Indra, know our friends and our friendships with a gracious mind. For this reason of peace, friendship, and well-being, we offer our worship and prayers to you, O lord of earth and heaven.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The friendship with the learned is dealt below.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
I do not like to disturb any day the happiness of those who are my confidants and are the real friends. The same way we call upon our commander of the army to save us from the wretched enemy armies and never keep us off from his attention. You take us to be seekers of the happiness and never spoil or perish the happiness of a gentleman. For this, we seek you.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The people should never desire to harm any one and not should break away from the bond of friendship. All the gentlemen should be protected and happiness should be sought for them.
Foot Notes
(गुह्या) गुप्तानि रहस्यानि। = Secret and confidential matters. (रिपः) पृथ्वी। = The earth. (रोरधः) हिन्स्यात् = Spoil or kill. (दुच्छनाभ्यः) दुःखकारिणीभ्यः शत्रुसेनाभ्यः । = Wretched enemy armies ( सुम्नंयता) आत्मनः। = By the seeker of happiness.
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