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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 35 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 35/ मन्त्र 15
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - अपान्नपात् छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अयां॑समग्ने सुक्षि॒तिं जना॒यायां॑समु म॒घव॑द्भ्यः सुवृ॒क्तिम्। विश्वं॒ तद्भ॒द्रं यदव॑न्ति दे॒वा बृ॒हद्व॑देम वि॒दथे॑ सु॒वीराः॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अयां॑सम् । अ॒ग्ने॒ । सु॒ऽक्षि॒तिम् । जना॑य । अयां॑सम् । ऊँ॒ इति॑ । म॒घव॑त्ऽभ्यः । सु॒ऽवृ॒क्तिम् । विश्व॑म् । तत् । भ॒द्रम् । यत् । अव॑न्ति । दे॒वाः । बृ॒हत् । व॒दे॒म॒ । वि॒दथे॑ । सु॒ऽवीराः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयांसमग्ने सुक्षितिं जनायायांसमु मघवद्भ्यः सुवृक्तिम्। विश्वं तद्भद्रं यदवन्ति देवा बृहद्वदेम विदथे सुवीराः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अयांसम्। अग्ने। सुऽक्षितिम्। जनाय। अयांसम्। ऊँ इति। मघवत्ऽभ्यः। सुऽवृक्तिम्। विश्वम्। तत्। भद्रम्। यत्। अवन्ति। देवाः। बृहत्। वदेम। विदथे। सुऽवीराः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 35; मन्त्र » 15
    अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे अग्ने यमयांसं सुक्षितिं सुवृक्तिमु जनायायांसं मघवद्भ्यो यद्भद्रं विश्वं सुवीरा देवा अवन्ति तद्बृहद्विदथे वयं वदेम ॥१५॥

    पदार्थः

    (अयांसम्) अयौ प्राप्तवन्तौ दोर्दण्डौ येन तम् (अग्ने) विद्वन् (सुक्षितिम्) शोभनां भूमिम् (जनाय) (अयांसम्) (उ) वितर्के (मघवद्भ्यः) परमपूजितधनेभ्यः (सुवृक्तिम्) सुष्ठुवृक्तिर्दुष्टकर्मवर्जनं यस्य तम् (विश्वम्) समस्तं जगत् (तत्) (भद्रम्) भन्दनीयं कल्याणरूपम् (यत्) (अवन्ति) रक्षन्ति (देवाः) विद्वांसः (बृहत्) महत् (वदेम) उपदिशेम (विदथे) यज्ञे (सुवीराः) सुष्ठुप्राप्तशरीरबलाः ॥१५॥

    भावार्थः

    ये जना धर्म्याचरणान्सुरक्ष्य दुष्टान् परिदण्ड्य जगत्कल्याणाय महान्त्युत्तमानि कर्माणि कुर्युस्ते सदा सर्वैस्सत्कर्त्तव्यास्स्युरिति ॥१५॥ अत्राग्निमेघापत्यविवाहविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥ इति पञ्चत्रिंशत्तमं सूक्तं चतुर्विंशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (अग्ने) विद्वन् जिस (अयांसम्) जिससे भुजायें प्राप्त हुईं (सुक्षितिम्) जो सुन्दर पृथिवीयुक्त (सुवृक्तिम्) जिसकी दुष्टकर्मों का त्याग करना वृत्ति (उ) और (जनाय) मनुष्यों के लिये वा (अयांसम्) जिससे भुजायें प्राप्त हुईं (मघवद्भ्यः) परम धनवान् मनुष्यों के लिये (यत्) जिस (भद्रम्) कल्याणरूपी (विश्वम्) जगत् की (सुवीराः) सुन्दर वीर अर्थात् प्राप्त हुआ शरीर बल जिनको वे (देवाः) विद्वान् जन (अवन्ति) रक्षा करते हैं (तत्) उसको (बृहत्) बहुत (विदथे) यज्ञ में हम लोग (वदेम) कहें अर्थात् उसको उपदेश दें ॥१५॥

    भावार्थ

    जो जन धर्म के अनुकूल आचरण करनेवालों की अच्छे प्रकार रक्षा और दुष्टों को दण्ड दे जगत् के कल्याण के लिये बड़े-बड़े उत्तम कर्मों को करें, वे सबको सर्वदा सत्कार करने योग्य हैं ॥१५॥ इस सूक्त में अग्नि मेघ अपत्य विवाह और विद्वान् के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्तार्थ के साथ संगति समझनी चाहिये ॥ यह ३५ पैंतीसवाँ सूक्त और २४ चौबीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    सुवृक्ति (पापवर्जन)

    पदार्थ

    १. (अग्ने) = हे परमात्मन्! मैं (जनाय) = अपनी शक्तियों के विकास के लिए (सुक्षितिम्) = उत्तम है निवास व गति जिनके कारण उन आपको [शोभना क्षितिः यस्मात्, क्षि निवासगत्योः] (अयांसम्) = प्राप्त होता हूँ। आपके स्मरण से मेरा जीवन उत्तम बनता है-मैं अपनी शक्तियों का विकास करनेवाला बनता हूँ। २. (उ) = और (मघवद्भ्यः) = अपने ऐश्वर्यों को यज्ञों में विनियुक्त करनेवाले पुरुषों से (सुवृक्तिम्) = अच्छी प्रकार पापवर्जन को (अयांसम्) = प्राप्त करता हूँ। ऐसे पुरुषों के संग में मैं भी यज्ञशील बनता हूँ और इस प्रकार पापों का वर्जन करनेवाला होता हूँ। ३. (विश्वम्) = सब (यद्) = जो (भद्रम्) = शुभ है—कल्याण व सुखजनक है (तद्) = उसको (देवा:) = देववृत्ति के पुरुष (अवन्ति) = अपने में रक्षित करते हैं। हम भी (सुवीराः) = उत्तम वीर बनते हुए (विदथे) = ज्ञानयज्ञों में (बृहद् वदेम) = खूब के स्तोत्रों का उच्चारण करें। प्रभु का स्तवन करते हुए हम अशुभ से अपने को बचानेवाले ही प्रभु हों।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम यज्ञशील पुरुषों का संग करें- प्रभु का स्तवन करें। यही देव बनने का मार्ग है। सारा सूक्त 'शक्ति के नष्ट न होने देने के महत्त्व' को स्पष्ट कर रहा है। यह शक्ति का रक्षण किस प्रकार प्रभु की ओर गमनवाला होता है' इस बात को व्यक्त करते हुए कहते हैं -

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    विषय

    स्त्री पुरुषों के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे ( अग्ने ) अग्रणी ! नायक ! ज्ञानवान् पुरुष ! वा विनीत शिष्य ! ( जनाय ) जनों के कल्याण करने और सन्तान को उत्पन्न करने के लिये ( सुक्षितिं ) उत्तम भूमि को ( अयांसम् ) प्राप्त होने वाले कृषक के समान और ( मघवद्भ्यः ) ऐश्वर्यवान्, गुणवान् पुत्रों को प्राप्त करने के लिये ( सुवृक्तिम् ) उत्तम पापनिवृत्ति के व्रत, ब्रह्मचर्यादि को (अयांसम् ) प्राप्त हुए तुझको ( यद् देवाः अवन्ति ) जो विद्वान्, गुरु आदि पालन करते और ज्ञान से पूर्ण करते हैं ( तत् भद्रं ) वह तेरे लिये बड़ा ही कल्याण और सुखजनक है। हम ( सुवीराः ) उत्तम पुत्रों से युक्त गृहस्थ जन भी ( विदथे ) ज्ञान प्राप्त करने के लिये तुझे ( बृहत् ) बहुत उत्तम ( वदेम ) उपदेश करें । इति चतुर्विंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः॥ अपान्नपाद्देवता॥ छन्दः– १, ४, ६, ७, ९, १०, १२, १३, १५ निचृत् त्रिष्टुप्। ११ विराट् त्रिष्टुप्। १४ त्रिष्टुप्। २, ३, ८ भुरिक् पङ्क्तिः। स्वराट् पङ्क्तिः॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे लोक धर्मानुकूल आचरण करणाऱ्यांचे चांगल्या प्रकारे रक्षण करून दुष्टांना दंड देतात, जगाच्या कल्याणासाठी मोठमोठी कार्ये करतात ते सदैव सर्वांनी सत्कार करण्यायोग्य असतात. ॥ १५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, vital spirit of life in existence, I pray, may I attain a blessed home for the people. May I receive a glorious hymn of divine worship for our people of power and honour from our poets of power and imagination. May we attain all that good and glory which Devas protect and promote. And may we, blest with the brave, sing songs of Divinity in our yajnic projects.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The qualities of learned persons are underlined.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person! may we endowed with good physical and spiritual powers, tell you whose arms are always ready to defend noble persons and their land, about that Great God-at the Yajnas. Such a person has given up all ignoble wicked deeds, and is ever ready to defend good men and righteous wealthy persons. It is always a noble and grand cause that is championed by the truthful and enlightened persons.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those persons always deserve honor who protect the righteous men and women, punish the wicked and are engaged in doing noble deeds in order to bring about the welfare of the world.

    Foot Notes

    (अपांसम्) अपो प्राप्तवन्तौ दोदंण्डी येन तम। = Who has active and strong shoulder or arms. (सुवृक्तिम् ) सुष्ठुवक्तिः दुस्तकर्मवर्जनं यस्य तम्। = Who has given up all ignoble and wicked. deeds. (विदथे) यज्ञे। विदथ इति यज्ञनांम (N.G. 3-17) = On the occasion of Yajnas. (साक्षीतिम्) शोभनां भूमिम्। क्षितिरीतिपृथ्वी (N.G. 1, 1)= Good land.

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