ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 35/ मन्त्र 5
ऋषिः - गृत्समदः शौनकः
देवता - अपान्नपात्
छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
अ॒स्मै ति॒स्रो अ॑व्य॒थ्याय॒ नारी॑र्दे॒वाय॑ दे॒वीर्दि॑धिष॒न्त्यन्न॑म्। कृता॑इ॒वोप॒ हि प्र॑स॒र्स्रे अ॒प्सु स पी॒यूषं॑ धयति पूर्व॒सूना॑म्॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स्मै । ति॒स्रः । अ॒व्य॒थ्याय॑ । नारीः॑ । दे॒वाय॑ । दे॒वीः । दि॒धि॒ष॒न्ति॒ । अन्न॑म् । कृता॑ऽइव । उप॑ । हि । प्र॒ऽस॒र्स्रे । अ॒प्ऽसु । सः । पी॒यूष॑म् । ध॒य॒ति॒ । पू॒र्व॒ऽसूना॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्मै तिस्रो अव्यथ्याय नारीर्देवाय देवीर्दिधिषन्त्यन्नम्। कृताइवोप हि प्रसर्स्रे अप्सु स पीयूषं धयति पूर्वसूनाम्॥
स्वर रहित पद पाठअस्मै। तिस्रः। अव्यथ्याय। नारीः। देवाय। देवीः। दिधिषन्ति। अन्नम्। कृताऽइव। उप। हि। प्रऽसर्स्रे। अप्ऽसु। सः। पीयूषम्। धयति। पूर्वऽसूनाम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 35; मन्त्र » 5
अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 22; मन्त्र » 5
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अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 22; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे मनुष्या याः कृता इव तिस्रो देवीर्नारीरस्मा अव्यथ्याय देवायान्नं दिधिषन्ति अप्सूप प्रसर्स्रे तासां पूर्वसूनां स सन्तानो हि पीयूषन्धयति पिबति ॥५॥
पदार्थः
(अस्मै) (तिस्रः) त्रित्वसङ्ख्याकाः (अव्यथ्याय) व्यथितुमनर्हाय (नारीः) स्त्रियः (देवाय) कामाय विदुषे (देवीः) देदीप्यमानाः स्त्रियः (दिधिषन्ति) धरन्ति (अन्नम्) (कृता इव) यथा निष्पन्नाः (उप) (हि) किल (प्रसर्स्रे) प्रसर्पयन्ति (अप्सु) अन्तरिक्षप्रदेशेषु (सः) (पीयूषम्) अमृतमिव दुग्धं (धयति) पिबति (पूर्वसूनाम्) याः पूर्वमपत्यानि सूयन्ते तासाम् ॥५॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। त्रिविधा हि उत्तममध्यमकनिष्ठत्वभेदेन नार्यो भवन्ति याश्च समानपतयो भूत्वा यदि विधवाः स्युस्तर्हि सन्तानोत्पादनाय स्वसदृशेभ्यो वीर्यङ्गृहीत्वा धर्मेण सन्तानानुत्पादयन्तु यदि सन्तानेप्सवो न स्युस्तर्हि ब्रह्मचर्ये तिष्ठन्तु ॥५॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जो (कृता इव) निष्पन्न हुई सी (तिस्रः) तीन (देवीः) निरन्तर प्रकाशमान (नारीः) स्त्री हमलोगों के (अव्यथ्याय) व्यथन अर्थात् नष्ट करने को नहीं योग्य (देवाय) काम के लिये (अन्नम्) अन्न (दिधिषन्ति) धारण करती हैं तथा जो (अप्सु) अन्तरिक्ष प्रदेशों में जल (उप,प्रसर्स्रे) अच्छे प्रकार पास में बहते हैं उन (पूर्वसूनाम्) पहले सन्तानों को उत्पन्न करनेवालियों का (सः) वह विद्वान् सन्तान (हि) ही (पीयूषम्) अमृत के समान दुग्ध को (धयति) पीता है ॥५॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। तीन प्रकार की निश्चय स्त्रियाँ होती हैं, जो समान पतियोंवाली होकर विधवा हों, तो सन्तानों की उत्पत्ति के लिये अपने समान पुरुषों से वीर्य लेकर धर्म से सन्तानों को उत्पन्न करें। जो सन्तानों की विशेष इच्छा न हो तो ब्रह्मचर्य में स्थिर हों ॥५॥
विषय
तीन पलियाँ [ज्ञानामृत का पान]
पदार्थ
१. (अस्मै) = गतमन्त्र में वर्णित इस (अव्यथ्याय) = शक्तिशाली होने के कारण न थकनेवाले- अनथक रूप में कर्म करनेवाले (देवाय) = दिव्यवृत्तिवाले पुरुष के लिए (तिस्रः) = तीनों (देवीः) = ज्ञानप्रकाश को देनेवाली (नारीः) = उन्नतिपथ पर ले-चलनेवाली 'ऋग्-यजुः-साम' रूप वाणियाँ [नृ नये] = (अन्नम्) = ज्ञानरूप भोजन को (दिधिषन्ति) = धारण करती हैं। 'परीमेगाम् अनेषत' इस मन्त्र में वेदवाणी रूप गौ के साथ परिणय का उल्लेख है । इस प्रकार ये 'ऋग्, यजु, साम' रूप वाणियाँ मनुष्य की पत्नी बनती हैं। प्रभु की ये पुत्रीरूप हैं । सो प्रभु इस अव्यथ्य नर के 'श्वशुर' हो जाते हैं । २. (अप्सु) = रेतः कणों का रक्षण होने पर (हि) = निश्चय से (कृताः इव) = अध्यात्म संग्राम में विजय के उपहाररूप में ये वेदवाणियाँ (उप प्रसस्त्रे) = इसमें विजेता के समीप उपस्थित होती हैं। (सः) = वह विजेता (पूर्वसूनाम्) = सृष्टि के प्रारम्भ में जिनको जन्म दिया गया है, उन वेदवाणियों के (पीयूषम्) = ज्ञानामृत को (धयति) = पीता है। इस ज्ञानामृत के पान से वह अमृत बनता है।
भावार्थ
भावार्थ- रेतः कणों का रक्षण होने पर 'ऋग्, यजुः व साम' रूप वाणियाँ मनुष्य का मार्गदर्शन करनेवाली होती हैं। यह उनके ज्ञानामृत का पान करता है।
विषय
उत्तम स्त्रियों के स्वयंवर का प्रकार ।
भावार्थ
( अस्मै ) उस ( अव्यथ्याय ) पीड़ा न देने योग्य, कठोर वचन और अपमान आदि न करने योग्य एवं स्वयं भी स्त्रियों को पीड़ा न देने वाले ( देवाय ) कामना योग्य पुरुष के लिये, या ( अव्यथ्याय देवाय ) व्यथा, देह और चित्त को पीड़ा और संताप न देने के लिये और चित्त और देह के संताप और पीड़ा को दूर करने के लिये उपयोगी ( देवाय ) काम्य सुख को प्राप्त करने के लिये ( तिस्रः देवीः ) तीनों प्रकार की कामनावती, पुरुष एवं संतान को चाहने वाली ( नारीः ) नारियां ( अन्नं दिधिषन्ति ) अन्न अर्थात् उपभोग्य पदार्थों को धारण करें, वे ( कृताः इव ) सन्तानार्थिनी स्त्रियां भी विवाहित स्त्रियों के समान ही ( उप प्रसर्स्त्रे) समान गुण के पुरुषों को प्राप्त हों । इस प्रकार ( सः ) वह उत्पन्न सन्तान ( पूर्वसूनाम् ) पूर्व सन्तान उत्पन्न करने वाली माताओं का भी ( पीयूषं ) पुष्टिकारक दुग्ध ( धयति ) पान कर सकता है। इति द्वाविंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः॥ अपान्नपाद्देवता॥ छन्दः– १, ४, ६, ७, ९, १०, १२, १३, १५ निचृत् त्रिष्टुप्। ११ विराट् त्रिष्टुप्। १४ त्रिष्टुप्। २, ३, ८ भुरिक् पङ्क्तिः। स्वराट् पङ्क्तिः॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. तीन प्रकारच्या स्त्रिया असतात. उत्तम, मध्यम, कनिष्ठ. यापैकी ज्या विधवा असतात त्यांनी संतानांच्या उत्पत्तीसाठी आपल्यासारख्याच पुरुषाचे वीर्य घेऊन धर्माने (नियोग) संतती उत्पन्न करावी व ज्यांना संततीची विशेष इच्छा नसेल त्यांनी ब्रह्मचर्य पालन करावे. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
For this Apam-napat, liquid and fiery energy of waters, brilliant, generous and inviolable divinity, three brilliant and generous streams of dynamic energy, Ila, Sarasvati, Mahi, eternal, universal and specific forms of divine energy, flow and bear food for his sustenance and growth. They move like young maidens approaching their man for the continuance of life and vital energy. They move on and on like three divinities, reflections of the divine will in the cosmic oceans of time and space, and he, the fiery creative energy, drinks the milk of life from the three motherly powers.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
About the couples of married matches said.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Women of three kinds are desirous of three main pleasures i.e. sexual happiness, seeking love of the husband and for the progeny. They prepare good food for their husbands. The husbands are never to be insulted in any way and they should be loved by them. They go on assignments as birds go to the firmament. Their children drink milk of their mothers, which is like the nectar.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Women are of three kinds-good, mediocre and low. The best women are those who have good suitable husbands and who discharge their duties to them faithfully. Unfortunately, or by accident if they lost their husbands and do not desire to have progeny, they may remain in Brahmacharya and may not marry. But who desire to have progeny after becoming widows, they may resort publicly to have niyoga (sexual union for procreation) with suitable virile persons in the prescribed form. Thus they may beget a progeny and may not go astray morally.
Foot Notes
Sayanacharya and many other commentators have taken तिस्त्रो देवी: to mean इडासरस्वती भारख्याख्या: Rishi Dayananda interprets इडा as प्रशंसितुयर्हा Admirable सरस्वती as बहु विद्यायुक्तमाता यजुः २०-३२ विद्यायुक्ता स्त्री | very learned mother or wife. भारती as शुभान् गृणान् धरन्ती virtuous teacher or preacher. So these three goddesses may also stand for a highly learned mother or wife, teacher and preacher, the first of them feeding with material food and the last two with knowledge and spiritual. (दिधिषन्ति ) थरन्ति = Uphold. (अप्सु ) अन्तरिक्षप्रदेशेषु । आप इत्यन्तरिक्षनाम (NG. 1-3) = In the middle region or firmament.
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