ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 35/ मन्त्र 3
ऋषिः - गृत्समदः शौनकः
देवता - अपान्नपात्
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
सम॒न्या यन्त्युप॑ यन्त्य॒न्याः स॑मा॒नमू॒र्वं न॒द्यः॑ पृणन्ति। तमू॒ शुचिं॒ शुच॑यो दीदि॒वांस॑म॒पां नपा॑तं॒ परि॑ तस्थु॒रापः॑॥
स्वर सहित पद पाठसम् । अ॒न्याः । यन्ति॑ । उप॑ । य॒न्ति॒ । अ॒न्याः । स॒मा॒नम् । ऊ॒र्वम् । न॒द्यः॑ । पृ॒ण॒न्ति॒ । तम् । ऊँ॒ इति॑ । शुचि॑म् । शुच॑यः । दी॒दि॒ऽवांस॑म् । अ॒पाम् । नपा॑तम् । परि॑ । त॒स्थुः॒ । आपः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
समन्या यन्त्युप यन्त्यन्याः समानमूर्वं नद्यः पृणन्ति। तमू शुचिं शुचयो दीदिवांसमपां नपातं परि तस्थुरापः॥
स्वर रहित पद पाठसम्। अन्याः। यन्ति। उप। यन्ति। अन्याः। समानम्। ऊर्वम्। नद्यः। पृणन्ति। तम्। ऊँ इति। शुचिम्। शुचयः। दीदिऽवांसम्। अपाम्। नपातम्। परि। तस्थुः। आपः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 35; मन्त्र » 3
अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 22; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 22; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ मेघविषयमाह।
अन्वयः
अन्या नद्यस्समानमूर्वं संयन्ति अन्या उपयन्ति तम्वपां नपातं दीदिवांसं शुचिमग्निं शुचय आपः परि तस्थुस्ताः सर्वान्पृणन्ति ॥३॥
पदार्थः
(सम्) (अन्याः) (यन्ति) प्राप्नुवन्ति (उप) (यन्ति) (अन्याः) (समानम्) तुल्यम् (उर्वम्) दुःखानां हिंसकम् (नद्यः) (पृणन्ति) सुखयन्ति (तम्) (उ) वितर्के (शुचिम्) पवित्रम् (शुचयः) पवित्राः (दीदिवांसम्) देदीप्यमानम् (अपाम्) जलानां मध्ये (नपातम्) नाशरहितमग्निम् (परि) (तस्थुः) तिष्ठन्ति (आपः) जलानि ॥३॥
भावार्थः
यथा नद्यः स्वयं समुद्रं प्राप्य स्थिराः शुद्धोदका जायन्ते यथा आपो मेघमण्डलं प्राप्य दिव्या भवन्ति तथा स्त्र्यभीष्टं पतिं पतिरभीष्टां स्त्रियं च प्राप्य स्थिरमनस्कौ शुद्धभावौ भवतः ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
अब मेघ विषय को अगल मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
जो (अन्याः) और (नद्यः) नदी (समानम्) तुल्य (ऊर्वम्) दुःखों को नष्ट करनेवाले को (संयन्ति) अच्छे प्रकार प्राप्त होतीं वा (अन्याः) और (उप,यन्ति) उसको उसके समीप से प्राप्त होती हैं (तम्, उ) उसी (अपां, नपातम्) जलों के बीच नाशरहित (दीदिवांसम्) अतीव प्रकाशमान (शुचिम्) पवित्र अग्नि को (शुचयः) पवित्र (आपः) जल (परि, तस्थुः) सब ओर से प्राप्त हो स्थिर होते हैं, वे जल सबको (पृणन्ति) तृप्त करते हैं ॥३॥
भावार्थ
जैसे नदी आप समुद्र को प्राप्त होकर स्थिर और शुद्ध जलवाली होती हैं, जैसे जल मेघमण्डल को प्राप्त होकर दिव्य होते हैं, वैसे स्त्री अभीष्ट पति और पति अभीष्ट स्त्री को पाकर स्थिरचित्त होते हैं ॥३॥
विषय
'आश्चर्यवत् पश्यति का कश्चिदेनम्'
पदार्थ
१. (अन्याः) = कुछ विलक्षण पुरुष ही (संयन्ति) = इस संसार में मिलकर चलते हैं। सामान्यतः प्रकृति के वरण के परिणामस्वरूप परस्पर वैर-विरोध में ही लोगों का जीवन बीत जाता है। (अन्याः) = उनमें भी कुछ ही व्यक्ति (उपयन्ति) = उस परमात्मा की ओर आनेवाले होते हैं–परमात्मा के उपासक बनते हैं। (नद्यः) = ये प्रभु के स्तोता (समानम्) [सम्यक् आनयति] = उस प्राणित करनेवाले (ऊर्वम्) = विशाल प्रभु को (पृणन्ति) = अपने नियत कर्मों को करने के द्वारा प्रीणित करते हैं । २. (तम् उ) = उस प्रभु के स्तोता को ही जो कि (शुचिम्) = पवित्र जीवनवाला बनता है, तथा (दीदिवांसम्) = ज्ञान से दीप्त होता है, जो (अपां न पात्) = यथासम्भव रेतः कणों का पतन नहीं होने देता, इस स्तोता को (शुचयः) = शरीर, मन व बुद्धि को पवित्र बनानेवाले (आपः) = रेत: कण (परितस्थुः) = [परिवृत्य तस्थुः सा०] घेर कर ठहरते हैं। इसके रेत: कण शरीर में सर्वत्र व्याप्त होकर स्थित होते हैं। इन्हीं के कारण उसका जीवन पवित्र व आधि-व्याधि से शून्य बनता है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु की ओर झुकाव विरल ही व्यक्तियों का होता है। ये प्रभु को अपने नियत कर्मों के करने से प्रीणित करते हैं। रेतः कणों का शरीर में ही संयम करते हैं। इन्हीं से इनका जीवन स्वस्थ होता है।
विषय
उसकी उपासना ।
भावार्थ
जिस प्रकार ( अन्याः ) कुछ नदियां ( संयन्ति ) एक साथ मिलकर चलती हैं । और ( अन्याः उपयन्ति ) दूसरी नदियां भी अकेली ही जा मिलती हैं और वे सब मिलकर ( समान ऊर्वं ) एक समान महान् समुद्र को ( पृणन्ति ) पूरती हैं और ( परि तस्थुः ) सब उसके चारों ओर से नदियें आ मिलतीं और चारों ओर जुड़ी रहती हैं । उसी अकार ( अन्याः नद्यः ) कुछ प्रार्थना और स्तुतिशील प्रजाएं ( संयन्ति ) एक साथ मिलकर प्रभु की उपासना करती हैं और (अन्याः उपयन्ति ) दूसरी श्रद्धायुक्त प्रजाएं भी उनके समीप आतीं और सब मिलकर (ऊर्वं) उस दुःखों के नाश करने वाले परमेश्वर को ( पृणन्ति ) स्तुतियों से पूर्ण करती हैं, उसकी महिमा बढ़ाती हैं । ( तम् उ ) उस ( शुचिं ) अति पवित्र ( दीदिवांसम् ) देदीप्यमान ( अपां नपातम् ) प्रकृति के परमाणुओं, लोकों और प्रजाओं के बीच स्वयं नाश न होने और उनको भी नाश न होने देने वाले उनके स्वामी परमेश्वर को ( शुचयः ) शुद्ध पवित्र चित्त होकर ( आपः ) सब उसको प्राप्त हुई जीव प्रजाएं ( परितस्थुः ) उसके आश्रय पर स्थित हों, उसकी उपासना करें । ( २ ) जिस प्रकार नदियां परस्पर मिलकर समुद्र को प्राप्त होती हैं, और जिस प्रकार ( आपः अपां नपातं ) जल मेघ को प्राप्त होते हैं उसी प्रकार ( नद्यः ) गुणों से समृद्ध स्त्रियां ( समानं ) अपने गुणों में समान, तुल्य वीर्य, तुल्य विद्यावान्, अनुरूप ( ऊर्वं ) पालक पति को ( पृणन्ति ) पूर्ण करें । पुरुष स्वयं आधा है स्त्रियां मिलकर उसको पूर्ण करती हैं । स्त्रियां दो प्रकार से प्राप्त होती हैं ( १ ) ( संयन्ति अन्याः ) कुछ स्त्रियां स्वयं इच्छापूर्वक संगत हो जाती हैं ( अन्याः उपयन्ति ) दूसरी स्त्रियां पिता आदि द्वारा पति को प्राप्त होती हैं। दोनों दशाओं में भी वे ( समानं ) मान आदर सहित, एवं समान कोटि के विद्या बल गुणों से अनुरूप को ही वे प्राप्त हों । पुरुष भी शुचि, अर्थात् पवित्र, धर्मात्मा, ईमानदार ( दीदिवांसं ) उज्ज्वल रूप यश वाला ( अपां न-पातम् ) वीर्यों और प्राणों को नाश न करने वाला, ब्रह्मचारी, और ‘अपः’ अर्थात् ज्ञानों का पालक हो । ऐसे पुरुष को ही स्त्रियां ( परि तस्थुः ) सब प्रकार से अपना आश्रय बनाया करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः॥ अपान्नपाद्देवता॥ छन्दः– १, ४, ६, ७, ९, १०, १२, १३, १५ निचृत् त्रिष्टुप्। ११ विराट् त्रिष्टुप्। १४ त्रिष्टुप्। २, ३, ८ भुरिक् पङ्क्तिः। स्वराट् पङ्क्तिः॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
जशी नदी स्वतः समुद्राला मिळते व स्थिर आणि शुद्ध जलयुक्त होते. जसे जल मेघमंडलातून दिव्य बनते, तसे स्त्री यथायोग्य पती व पुरुष यथायोग्य पत्नी प्राप्त करून स्थिर चित्त व शुद्ध भावयुक्त बनतात. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Some of these streams of water and currents of energy flow together. Some others flow close by them, and all of them together join and flow into the ocean to fullness. And these clear and purest streams of water and water energy all round abide by that pure, bright and blazing child of the waters, imperishable agni, fire and electric energy of the water power. (This mantra describes the dynamic circuit flow of energy and its imperishable form in the state of conservation.)
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Now the subject of cloud is narrated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The water of the rivers remove hardships and miseries of all without any distinction at their proximity. Out of those waters, emerges glazing fire/energy which is holy and accomplishes the desires of all from all directions.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The rivers merge in the sea and thus they become part of pure water. Same way the bunches of clouds reach the human beings and their usefulness (Divinity) is established. Let married couple get pleasures from each other like the clouds and water.
Foot Notes
(यन्ति ) प्राप्नुवन्ति = Receive. (ऊवंम् ) दुःखानां हिंसकम् = Remover of agonies and miseries. (पुणन्ति) सुखयन्ति = Make happy. (दोदिवांसम्) देदीप्यमानम् = Glazing. (नपातम्) नाशरहितमग्निम् । = Eternal.
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