ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 31/ मन्त्र 13
ऋषिः - गाथिनो विश्वामित्रः, ऐषीरथीः कुशिको वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - स्वराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
म॒ही यदि॑ धि॒षणा॑ शि॒श्नथे॒ धात्स॑द्यो॒वृधं॑ वि॒भ्वं१॒॑ रोद॑स्योः। गिरो॒ यस्मि॑न्ननव॒द्याः स॑मी॒चीर्विश्वा॒ इन्द्रा॑य॒ तवि॑षी॒रनु॑त्ताः॥
स्वर सहित पद पाठम॒ही । यदि॑ । धि॒षणा॑ । शि॒श्नथे॑ । धात् । स॒द्यः॒ऽवृध॑म् । वि॒ऽभ्व॑म् । रोद॑स्योः । गिरः॑ । यस्मि॑न् । अ॒न॒व॒द्याः । स॒म्ऽई॒चीः । विश्वाः॑ । इन्द्रा॑य । तवि॑षीः । अनु॑त्ताः ॥
स्वर रहित मन्त्र
मही यदि धिषणा शिश्नथे धात्सद्योवृधं विभ्वं१ रोदस्योः। गिरो यस्मिन्ननवद्याः समीचीर्विश्वा इन्द्राय तविषीरनुत्ताः॥
स्वर रहित पद पाठमही। यदि। धिषणा। शिश्नथे। धात्। सद्यःऽवृधम्। विऽभ्वम्। रोदस्योः। गिरः। यस्मिन्। अनवद्याः। सम्ऽईचीः। विश्वाः। इन्द्राय। तविषीः। अनुत्ताः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 31; मन्त्र » 13
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 7; मन्त्र » 3
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अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 7; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे विद्वांसो भवद्भिर्यदि मही धिषणावाग्रोदस्योर्मध्ये सद्योवृधं विभ्वं धात्तर्हीयमविद्यां शिश्नथे सा सङ्ग्राह्या यस्मिन्ननवद्याः समीचीस्तविषीरनुत्ता विश्वा गिर इन्द्राय प्रभवेयुस्स व्यवहारः सदा सेवनीयः ॥१३॥
पदार्थः
(मही) अतीव सत्कर्त्तव्या (यदि) (धिषणा) प्रगल्भा वाक् (शिश्नथे) श्नथति हिनस्ति। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदम्। (धात्) दधाति (सद्योवृधम्) यः सद्यो वर्धयति तम् (विभ्वम्) व्यापकम् (रोदस्योः) द्यावापृथिव्योः (गिरः) वाण्यः (यस्मिन्) (अनवद्याः) अनिन्द्याः (समीचीः) याः समानं सत्यमञ्चन्ति ताः (विश्वाः) अखिलाः (इन्द्राय) परमैश्वर्य्याय (तविषीः) बलयुक्ताः (अनुत्ताः) आनुकूल्येन धृताः ॥१३॥
भावार्थः
ये विद्वांसो विविधविद्यायुक्ता वाचो धृत्वा विभुं परमात्मानं ज्ञातुमिच्छेयुस्ते परमैश्वर्य्यं लभेरन् ॥१३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे विद्वान् जनो ! आप लोगों से (यदि) जो (मही) अत्यन्त सत्कार करने योग्य (धिषणा) प्रगल्भ अर्थात् नहीं रुकनेवाली वाणी (रोदस्योः) अन्तरिक्ष और पृथिवी के मध्य में (सद्योवृधम्) शीघ्र वृद्धिकारक (विभ्वम्) व्यापक को (धात्) धारण करती है तो इस अविद्या का (शिश्नथे) नाश करती है (यस्मिन्) जिसमें (अनवद्याः) निन्दारहित (समीचीः) सत्य को धारण करनेवाली (तविषीः) बलयुक्त (अनुत्ताः) अनुकूलता से धारण की गई (विश्वाः) सम्पूर्ण (गिरः) वाणियाँ (इन्द्राय) परम ऐश्वर्य के लिये समर्थ होवें वह व्यवहार सदा सेवन करने योग्य है ॥१३॥
भावार्थ
जो विद्वान् लोग अनेक प्रकार की विद्याओं से युक्त वाणियों को धारण करके व्यापक परमात्मा के जानने की इच्छा करें, वे बड़े ऐश्वर्य को प्राप्त होवें ॥१३॥
विषय
अजय्यता
पदार्थ
[१] (यदि) = यदि (मही धिषणा) = प्रभुपूजन की वृत्तिवाली बुद्धि (शिश्नथे) = वासनाओं के संहार के लिए [श्रथति हिंसाकर्मा नि० २।१९] उस प्रभु को (धात्) = धारण करती है, जो कि (सद्योवृधम्) = शीघ्र ही उपासक की वृद्धि का कारण बनते हैं, जो (रोदस्योः विभ्वम्) = द्यावापृथिवी में व्याप्त हैं और (यस्मिन्) = जिनमें (अनवद्याः) = अत्यन्त प्रशस्त (गिरः) = ये वेदवाणियाँ (समीचीः) = संगत हैं, तो इस (इन्द्राय) = जितेन्द्रिय पुरुष के लिए (विश्वा:) = सब (तविषी:) = बल (अनुत्ता:) = न धकेले जानेवाले, अर्थात् स्थिर होते हैं । [२] प्रभु उपासक को शीघ्र वृद्धि को प्राप्त करानेवाले हैं। वे सर्वत्र व्याप्त हैं। सब प्रशस्त ज्ञानवाणियों के आधार हैं। यदि हम अपनी बुद्धि को परमात्मा में स्थापित करें, अर्थात् बुद्धि द्वारा प्रभु का ही उपासन करें, तो प्रभु हमें वह शक्ति प्राप्त कराएँगे, जिसे कि कोई भी शत्रु धकेल न सकेगा। हम अपनी शक्ति से शत्रुओं के लिए अजय्य होंगे।
भावार्थ
भावार्थ- हम बुद्धि द्वारा प्रभु का ही उपासन करें। प्रभु हमें उस शक्ति से सम्पन्न करेंगे जो -कि हमें अजय्य बना देगी।
विषय
सर्वथा स्तुत्य प्रभु।
भावार्थ
(यदि) यदि (मही) भारी वाणी और प्रज्ञा तुम लोगों की (यस्मिन्) जिस परमेश्वर के विषय में (शिश्नथे) स्वयं शिथिल हो जाय, उसका वर्णन करने में असमर्थ हो तो भी वह (रोदस्योः) आकाश और पृथिवी में भी (विभ्वं) विविध शक्तियों में विद्यमान व्यापक (सद्योवृधं) अति शीघ्र बढ़ा देने वाले उसी प्रभु परमात्मा को (धातू) बतलाती है। (यस्मिन्) जिस परमेश्वर में (अनवद्याः) निन्दादि दोषों से रहित (विश्वाः) समस्त (गिरः) वाणियें (समीचीः) अच्छी प्रकार संगत होती हैं। और उसी (इन्द्राय) परमैश्वर्यवान् की ही (विश्वाः तविषोः) समस्त ये शक्तियां (अनुत्ताः) स्वयं चल रही हैं। किसी अन्य द्वारा प्रेरित नहीं हैं। (२) शास्य शासकों के बीच विशेष सामर्थ्यवान् पुरुष बड़ी वलवती सेनाएं अपने आश्रय के लिये नियुक्त करे। जिसमें स्तुति संगत हों, सब शक्ति सेनाएं उसी के आधीन रहें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्रः कुशिक एव वा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, १४, १६ विराट् पङ्क्तिः। ३, ६ भुरिक् पङ्क्तिः। २, ५, ६, १५, १७—२० निचृत् त्रिष्टुप्। ४, ७, ८, १०, १२, २१, २२ त्रिष्टुप्। ११, १३ स्वराट् त्रिष्टुप्॥ द्वाविंशत्यृचं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
जे विद्वान लोक अनेक प्रकारच्या विद्यांनी युक्त वाणींना धारण करून व्यापक परमात्म्याला जाणण्याची इच्छा करतात, त्यांना महान ऐश्वर्य प्राप्त होते. ॥ १३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O seeker and celebrant of Indra, nature and divinity, if in the act of exploration, your great intelli gence and penetrative vision were to hold on to the ever expansive spirit of heaven and earth, in which the entire light, words and vision of existence, irreproachable and invincible, he embedded for Indra, then that is the state of sovereignty in research and meditation.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The qualities and acts of the enlightened person are told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned persons ! if you have a venerable and spirited speech which glorifies God who increases strength quickly and earth, then this can dispel all ignorance. Such a speech you must cultivate. You should always have that dealing in which your faultless, correct, equally truthful, appropriate and effective all speeches are directed towards God.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The enlightened persons blessed with words, fall of the knowledge of various sciences, achieve great and true prosperity. They desire to know Omnipresent God.
Foot Notes
(धिषणा ) प्रगल्भा वाक् | धिषणेति वाङ्नाम | ( N.G. 1, 11) वाग् वै धिषणा (मैत्रायणी सं० 3, 1, 8) = Spirited speech. (समीची:) याः समानं सत्यमञ्चन्ति ताः। = Equally going towards truth, absolutely truthful (अनुता:) आनुकूल्येन धृताः = Appropriate held agreeably.
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