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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 31/ मन्त्र 9
    ऋषिः - गाथिनो विश्वामित्रः, ऐषीरथीः कुशिको वा देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    नि ग॑व्य॒ता मन॑सा सेदुर॒र्कैः कृ॑ण्वा॒नासो॑ अमृत॒त्वाय॑ गा॒तुम्। इ॒दं चि॒न्नु सद॑नं॒ भूर्ये॑षां॒ येन॒ मासाँ॒ असि॑षासन्नृ॒तेन॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नि । ग॒व्य॒ता । मन॑सा । से॒दुः॒ । अ॒र्कैः । कृ॒ण्वा॒नासः॑ । अ॒मृ॒त॒ऽत्वाय॑ । गा॒तुम् । इ॒दम् । चि॒त् । नु । सद॑नम् । भूरि॑ । ए॒षा॒म् । येन॑ । मासा॑न् । असि॑सासन् । ऋ॒तेन॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नि गव्यता मनसा सेदुरर्कैः कृण्वानासो अमृतत्वाय गातुम्। इदं चिन्नु सदनं भूर्येषां येन मासाँ असिषासन्नृतेन॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नि। गव्यता। मनसा। सेदुः। अर्कैः। कृण्वानासः। अमृतऽत्वाय। गातुम्। इदम्। चित्। नु। सदनम्। भूरि। एषाम्। येन। मासान्। असिसासन्। ऋतेन॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 31; मन्त्र » 9
    अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 6; मन्त्र » 4
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ मोक्षमिच्छुभिः किं कार्यमित्याह।

    अन्वयः

    हे मनुष्या यथा कृण्वानासो गव्यता मनसार्कैः सहाऽमृतत्वाय गातुं निसेदुरिदं चिद्भूरि सदनं सेदुर्येनर्त्तेन मासानसिषासँस्तेनैषां कल्याणं नु जायते ॥९॥

    पदार्थः

    (नि) नित्यम् (गव्यता) आत्मनो गौरिवाचरता (मनसा) अन्तःकरणेन (सेदुः) प्राप्नुयुः (अर्कैः) अर्चनीयैर्विद्वद्भिः सह (कृण्वानासः) कुर्वन्तः (अमृतत्वाय) अमृतस्य मोक्षस्य भावाय (गातुम्) प्रशंसितां भूमिम्। गातुरिति पृथिवीना०। निघं० १। १। (इदम्) (चित्) अपि (नु) सद्यः (सदनम्) सीदन्ति यत्र तत् (भूरि) बहु (एषाम्) वर्त्तमानानाम् (येन) (मासान्) चैत्रादीन् (असिषासन्) विभक्तुमिच्छन्तु (ऋतेन) सत्याचरणेन ॥९॥

    भावार्थः

    यदि मनुष्या मोक्षमिच्छेयुस्तर्हि तैर्विद्वत्सङ्गधर्माऽनुष्ठानं कृत्वाऽधर्मत्यागं विधाय सद्योऽन्तःकरणात्मशुद्धिः सम्पादनीया ॥९॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब मोक्ष की इच्छा करनेवालों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जैसे (कृण्वानासः) करते हुए जन (गव्यता) अपनी वाणी के सदृश (मनसा) अन्तःकरण से (अर्कैः) सत्कार करने योग्य विद्वानों के साथ (अमृतत्वाय) मोक्ष के होने के लिये (गातुम्) प्रशंसायुक्त भूमि को (नि, सेदुः) प्राप्त होवें तथा (इदम्) इस (चित्) भी (भूरि) बहुत (सदनम्) प्राप्त होने योग्य स्थान को प्राप्त होवें (येन) जिस (ऋतेन) सत्य आचरण से (मासान्) चैत्र आदि महीनों के (असिषासन्) विभाग करने की इच्छा करें, उससे (एषाम्) इन पुरुषों का कल्याण (नु) शीघ्र होता है ॥९॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य लोग मोक्ष की इच्छा करें, तो विद्वानों का सङ्ग धर्म का अनुष्ठान और अधर्म का त्याग करके शीघ्र ही अन्तःकरण और आत्मा की शुद्धि करें ॥९॥

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    विषय

    मोक्ष मार्ग

    पदार्थ

    [१] (अमृतत्वाय) = मोक्षप्राप्ति के लिए नीरोग पद की प्राप्ति के लिए गव्यता उत्तम ज्ञानेन्द्रियों की प्राप्ति की कामनावाले (मनसा) = मन से (अर्कैः) = स्तुति मन्त्रों के साथ (निसेदुः) = उपासना में निषण्ण होते हैं। नीरोगता व अन्ततः मोक्षप्राप्ति का मार्ग यह है कि– [क] मन में इन्द्रियों को पवित्र बनाने की कामना करें, [ख] प्रभु की अर्चना के साधनभूत मन्त्रों को अपनाएँ, [ग] सदा नियमितरूप से उपासना में बैठें। [२] (एषाम्) = इनका (इदम्) = यह (सदनम्) = उपासना में बैठना, (चित् नु) = निश्चय से (भूरि) = अत्यन्त उत्तम पोषण करनेवाला है [भृ=धारण पोषणयोः] । यह उपासना में स्थित होना वह है ये न जिस से (मासान्) = मासों को, काल विभागों को (ऋतेन) = ऋत द्वारा (असिषासन्) = सेवन करने की कामनावाले होते हैं। उपासना के होने पर इनका सारा समय ऋत व्यवहारपूर्वक बीतता है-उपासना इनके जीवन में से अमृत को दूर कर देती है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु का उपासन हमें ऋत [सत्य] की ओर ले चलता है। यह ऋत हमारी नीरोगता व मोक्ष का कारण होता है।

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    विषय

    विद्वानों का नियमानुसार व्रताचरण, और आराधना।

    भावार्थ

    विद्वान् पुरुष (गव्यता मनसा) वाणी के समान स्तुति शील चित्त से (अमृतत्वाय) अमृत अर्थात् मोक्ष को प्राप्त करने के लिये (अर्कैः) अर्चना करने योग्य, स्तुतियोग्य विद्वानों सहित या मन्त्रों से (गातुम् कृण्वानासः) उत्तम मार्ग या भूमि या स्तुति को करते हुए (नि सेदुः) नियम से स्थिर होकर विराजें। (एषां) इन विद्वानों का (इदं चित् नु) यही उत्तम (भूरि) बहुत बड़ा (सदनं) आश्रय या प्रतिष्ठा है (येन) जिस (ऋतेन) सत्य, धर्माचरण के बल से (मा-सान्) मासों या काल के नाना भागों को (असिषासन्) विभक्त करते हैं। भिन्न २ मास के लिये वे भिन्न २ व्रताचरण की व्यवस्था कर लेते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्रः कुशिक एव वा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, १४, १६ विराट् पङ्क्तिः। ३, ६ भुरिक् पङ्क्तिः। २, ५, ६, १५, १७—२० निचृत् त्रिष्टुप्। ४, ७, ८, १०, १२, २१, २२ त्रिष्टुप्। ११, १३ स्वराट् त्रिष्टुप्॥ द्वाविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जी माणसे मोक्षाची इच्छा धरतात त्यांनी विद्वानांचा संग व धर्माचे अनुष्ठान करावे. अधर्माचा त्याग करून ताबडतोब अंतःकरण व आत्म्याची शुद्धी करावी. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Let those who carve a path to immortality for themselves sit on the holy seats of yajna with earnest desire and sincere mind offering hymns of praise and prayer to Indra. For sure, this yajna is their expansive seat of action by which, through observance of right conduct and self-sacrifice, they can try to realise their year round objective of spirituality over the months in succession.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The men should desire of attaining the emancipation.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The active men discharge their duties and associate themselves with the venerable enlightened persons, in they order to attain emancipation. With upright mind like a cow, dwell upon the admirable land and live in the suitable vast houses. They divide their timetable month-wise, and season-wise and act truthfully. They verily enjoy happiness and peace.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    If men desire to attain emancipation, they should associate themselves with the enlightened persons, should practice righteousness, give up all un-righteousness and purify their souls.

    Foot Notes

    (अर्कै:) अर्चनीयैविद्वभ्दिः सह । = With the venerable enlightened persons. (गातुम् ) प्रशसितां भूमिम् । गातुरिति षृथिवीनाम (N.G. 1-1 ) = Land, earth.

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