ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 31/ मन्त्र 21
ऋषिः - गाथिनो विश्वामित्रः, ऐषीरथीः कुशिको वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अदे॑दिष्ट वृत्र॒हा गोप॑ति॒र्गा अ॒न्तः कृ॒ष्णाँ अ॑रु॒षैर्धाम॑भिर्गात्। प्र सू॒नृता॑ दि॒शमा॑न ऋ॒तेन॒ दुर॑श्च॒ विश्वा॑ अवृणो॒दप॒ स्वाः॥
स्वर सहित पद पाठअदे॑दिष्ट । वृ॒त्र॒ऽहा । गोऽप॑तिः । गाः । अ॒न्तरिति॑ । कृ॒ष्णान् । अ॒रु॒षैः । धाम॑ऽभिः । गा॒त् । प्र । सू॒नृताः॑ । दि॒शमा॑नः । ऋ॒तेन॑ । दुरः॑ । च॒ । विश्वाः॑ । अ॒वृ॒णो॒त् । अप॑ । स्वाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अदेदिष्ट वृत्रहा गोपतिर्गा अन्तः कृष्णाँ अरुषैर्धामभिर्गात्। प्र सूनृता दिशमान ऋतेन दुरश्च विश्वा अवृणोदप स्वाः॥
स्वर रहित पद पाठअदेदिष्ट। वृत्रऽहा। गोऽपतिः। गाः। अन्तरिति। कृष्णान्। अरुषैः। धामऽभिः। गात्। प्र। सूनृताः। दिशमानः। ऋतेन। दुरः। च। विश्वाः। अवृणोत्। अप। स्वाः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 31; मन्त्र » 21
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 8; मन्त्र » 6
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अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 8; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ के गुरवो भवितुमर्हन्तीत्याह।
अन्वयः
हे विद्वन् यथा वृत्रहा सूर्य्यः किरणैर्जगत्पाति यथा गोपतिर्गा रक्षत्यरुषैर्धामभिः सह कृष्णानन्तर्गाद्दुरश्चाऽपावृणोत् तथर्त्तेन सहिता विश्वाः स्वाः सूनृता वाचः प्रदिशमानोऽदेदिष्ट ॥२१॥
पदार्थः
(अदेदिष्ट) भृशमुपदिशत (वृत्रहा) मेघहा सूर्य्य इव (गोपतिः) गवां पालकाः (गाः) धेनूः (अन्तः) मध्ये (कृष्णान्) कृष्णवर्णान् (अरुषैः) रक्तगुणविशिष्टैरश्वैः। अरुष इत्यश्वना०। निघं० १। १४। (धामभिः) स्थानविशेषैः (गात्) प्राप्नुयात् (प्र) (सूनृताः) सत्यादिलक्षणान्विता वाचः (दिशमानः) उपदिशन्। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदम्। (ऋतेन) सत्येनेव जलेन (दुरः) द्वाराणि (च) (विश्वाः) समग्राः (अवृणोत्) वृणुयात् (अप) दूरीकरणे (स्वाः) स्वकीयाः ॥२१॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपामलङ्कारः। ये सूर्य्यवद्गोपतिवत्पितृवत्सर्वान् रक्षन्ति त एव गुरवो भवितुमर्हन्ति ॥२१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब कौन गुरु होने के योग्य हें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे विद्वान् पुरुष ! जैसे (वृत्रहा) मेघ का नाशक सूर्य्य अपनी किरणों से संसार की रक्षा करता है और जैसे (गोपतिः) गौओं का पालनकर्त्ता (गाः) गौओं की रक्षा करता तथा (अरुषैः) लाल गुण विशिष्ट घोड़ों और (धामभिः) स्थान विशेषों के साथ (कृष्णान्) काले वर्णों को (अन्तः) मध्य में (गात्) प्राप्त होवें (दुरः, च) और द्वारों को (अप, (अवृणोत्) खोलै वैसे (ऋतेन) सत्य के सदृश जल के सहित (विश्वाः) सम्पूर्ण (स्वाः) अपनी (सूनृताः) सत्य आदि लक्षणों से युक्त वाणियों के (प्र, दिशमानः) अच्छे प्रकार उपदेशक (अदेदिष्ट) आप अत्यन्त उपदेश कीजिये ॥२१॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो लोग सूर्य्य गौओं के पालक और पिता के सदृश सबकी रक्षा करते हैं, वे ही गुरुजन होने योग्य हैं ॥२१॥
विषय
वासना- विनाश
पदार्थ
[१] (वृत्रहा) = हमारी वासनाओं को विनष्ट करनेवाले (गोपतिः) = सब ज्ञान की वाणियों के स्वामी प्रभु (गाः) = ज्ञानवाणियों को (अदेदिष्ट) = हमारे लिए देते हैं इन ज्ञानवाणियों का उपदेश हमारे लिए करते हैं। और इस प्रकार इन ज्ञान-वाणियों के (अरुषैः धामभिः) = आरोचमान तेजों से (कृष्णान्) = इन कालिमा को लिए हुए आसुरभावों को (अन्त: गात्) = अन्तर्हित कर देते हैं। प्रभु ज्ञानप्रकाश द्वारा हमारे आसुरभावों को विनष्ट करते हैं। [२] वे प्रभु (ऋतेन) = ऋत के हेतु से, इसलिए कि हमारा जीवन ऋतवाला हो, (सूनृता:) = प्रिय सत्य वेदवाणियों का (प्रदिशमान:) = उपदेश करते हैं (च) = और (विश्वा:) = सब (दुरः) = इन्द्रिय-द्वारों को और (स्वा:) = अपनी उन ज्ञान-वाणियों को [गा:] हमारे लिए (अवृणोत्) = विवृत कर देते हैं-खोल देते हैं। हमारी ज्ञानेन्द्रियों की शक्ति को विकसित करते हैं और हमारे लिए ज्ञानवाणियों को प्राप्त कराते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु ज्ञानदेकर हमारी वासनाओं को विनष्ट करते हैं ।
विषय
सूर्यवत् भूमि पर राजा का शासन और दुष्टदमन का वर्णन।
भावार्थ
जिस प्रकार (वृत्रहा) अन्धकार का नाशक (गोपतिः) किरणों का स्वामी सूर्य (गाः अदेदिष्ट) रश्मियों को दूर २ तक डालता, जगत् को प्रकाशित करता है। और जिस प्रकार (कृष्णान् अन्तः) काले अन्धकारों के भीतर (अरुषैः धामभिः) अति देदीप्यमान प्रकाशों से (गात्) प्रवेश करता और उनको व्याप लेता है। और जिस प्रकार वह (ऋतेन) जल के वर्षण द्वारा (सूनृता दिशमानः) अन्नों को प्रदान करता हुआ (स्वाः विश्वाः दुरः अवृणोत्) अपने सब अन्धकारवारक किरणों को दूर २ तक प्रकट करता है। उसी प्रकार राजा वा सेनापति (वृत्रहा) बढ़ते और घेरते हुए शत्रु का नाश करने हारा वीर पुरुष (गो-पतिः) समस्त भूमियों और आज्ञा वाणियों का स्वामी होकर (गाः अदेदिष्ट) भूमियों पर शासन करे और आज्ञाओं का प्रदान किया करे। इसी प्रकार (वृत्रहा गोपतिः गाः अदेदिष्ट) अज्ञान या विघ्नों का नाशक, वेदवाणियों का पालक विद्वान् शिष्यों को वाणियों का उपदेश करे। सेनापति (अरुषैः धामभिः) देदीप्यमान तेजों से और प्रजाओं का वध न करने वाले राष्ट्र के धारक पोषक उपायों से (कृष्णान् अन्तः गात्) कर्षण करने योग्य, दबाने योग्य दुष्टों के भीतर प्रवेश करे और कर्षक किसान प्रजाओं के भीतर तक पहुंचे, उनका प्रिय बने। इसी प्रकार आचार्य (अरुषैः धामभिः) रोष, ताड़नादि से रहित ज्ञानधारक उपायों से (कृष्णान् अन्तः गात्) अपनी ओर आकर्षण करने योग्य प्रिय शिष्यों के भीतर स्थान प्राप्त करे। राजा (ऋतेन सूनृता दिशमानः) सत्य, न्याय-व्यवस्था और वेद के द्वारा उत्तम सत्य व्यवस्थाओं को देता हुआ और (ऋतेन सूनृता दिशमानः) धनैश्वर्य सहित अधीनों को उत्तम अन्न प्रदान करता हुआ वह (स्वाः) अपनी (विश्वाः दुरः) समस्त शत्रु निवारक सेनाओं और शक्तियों का द्वारों के समान (अप अवृणोत्) प्रकाश करे। इसी प्रकार विद्वान् पुरुष सत्य ज्ञान से युक्त उत्तम वाणियों का उपदेश करता हुआ अपनी समस्त (दुरः) अज्ञान दूर करने वाली वाणियों को हृदय के द्वारों के समान प्रकट रूप से खोल दे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्रः कुशिक एव वा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, १४, १६ विराट् पङ्क्तिः। ३, ६ भुरिक् पङ्क्तिः। २, ५, ६, १५, १७—२० निचृत् त्रिष्टुप्। ४, ७, ८, १०, १२, २१, २२ त्रिष्टुप्। ११, १३ स्वराट् त्रिष्टुप्॥ द्वाविंशत्यृचं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे लोक सूर्य, गोपालक व पित्याप्रमाणे सर्वांचे रक्षण करतात तेच गुरुजन होण्यायोग्य आहेत. ॥ २१ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Just as the sun, lord of light and breaker of the cloud of darkness, shoots its rays of light with its power and splendour, penetrates to the centre of dark energy and dispels the darkness releasing the energy, similarly, O lord of light and power, commanding and revealing your own lights and words of knowledge and the truth of reality, open out all the doors and reveal the secrets of universal knowledge with the power and force of universal law which sustains the world of existence.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Who are capable preceptors is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned person the sun is the slayer of the clouds and protects the world from his rays, as a cowherd protects the kine and a King with his red-hued horses and protects his subjects and drives away all wicked persons. Having darkness (of evil tendencies) in them, the enemies open all gates of (remove) knowledge and happiness. In the same manner, preach well uttering true and sweet words.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those persons only can become true preceptors who protect all like the sun, like cowherd and like the fathers.
Foot Notes
(अदेदिष्ट ) सुशमुपदिशत। = Preach. (वृत्रहा) मेघहा सूर्य्य इव वृत्र इति मेघनाम । (N.G. I, 10)। = Like the sun slayer of the clouds. (अरुषैः) रक्तगुणविशिष्टैरश्वः । अरुष इत्यश्वनाम ( N.G. 1, 4) = Red hued horses.
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