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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 2/ मन्त्र 10
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - अग्निः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यस्य॒ त्वम॑ग्ने अध्व॒रं जुजो॑षो दे॒वो मर्त॑स्य॒ सुधि॑तं॒ ररा॑णः। प्री॒तेद॑स॒द्धोत्रा॒ सा य॑वि॒ष्ठासा॑म॒ यस्य॑ विध॒तो वृ॒धासः॑ ॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्य॑ । त्वम् । अ॒ग्ने॒ । अ॒ध्व॒रम् । जुजो॑षः । दे॒वः । मर्त॑स्य । सु॒ऽधि॑तम् । ररा॑णः । प्री॒ता । इत् । अ॒स॒त् । होत्रा॑ । सा । य॒वि॒ष्ठ॒ । असा॑म । यस्य॑ । वि॒ध॒तः । वृ॒धासः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्य त्वमग्ने अध्वरं जुजोषो देवो मर्तस्य सुधितं रराणः। प्रीतेदसद्धोत्रा सा यविष्ठासाम यस्य विधतो वृधासः ॥१०॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यस्य। त्वम्। अग्ने। अध्वरम्। जुजोषः। देवः। मर्तस्य। सुऽधितम्। रराणः। प्रीता। इत्। असत्। होत्रा। सा। यविष्ठ। असाम। यस्य। विधतः। वृधासः॥१०॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 10
    अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 17; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे यविष्ठाऽग्ने ! यस्याऽध्वरं त्वं जुजोषो देवस्सन् यस्य विधतो मर्त्तस्य सुधितं रराणः सा होत्रा प्रीतेद् मय्यसद् वृधासः सन्तो वयमसाम सोऽस्मांस्तथैव सुखयेत् ॥१०॥

    पदार्थः

    (यस्य) (त्वम्) (अग्ने) पावकवद्वर्त्तमान विद्वन् (अध्वरम्) अहिंसनीयव्यवहारम् (जुजोषः) भृशं सेवसे (देवः) दिव्यसुखदाता (मर्त्तस्य) मनुष्यस्य (सुधितम्) सुहितम्। अत्र वर्णव्यत्ययेन हस्य धः। (रराणः) भृशं दाता (प्रीता) प्रसन्ना (इत्) (असत्) भवेत् (होत्रा) ग्राह्या (सा) (यविष्ठ) अतिशयेन युवन् (असाम) भवेम (यस्य) (विधतः) विधानं कुर्वतः (वृधासः) वर्धकास्सन्तः ॥१०॥

    भावार्थः

    यो यस्य सुखं साध्नुयात्तेनापि स सुखेनाऽलङ्कर्त्तव्यः ॥१०॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (यविष्ठ) अति जवान (अग्ने) अग्नि के सदृश वर्त्तमान विद्वान् पुरुष ! (यस्य) जिसके (अध्वरम्) हिंसारहित व्यवहार का (त्वम्) आप (जुजोषः) अत्यन्त सेवन करते हैं (देवः) उत्तम सुख के देनेवाले हुए (यस्य) जिस (विधतः) विधान करनेवाले (मर्त्तस्य) मनुष्य के (सुधितम्) उत्तम हित के (रराणः) अत्यन्त देनेवाले हों उसकी (सा) वह (होत्रा) ग्रहण करने योग्य क्रिया (प्रीता) प्रसन्न (इत्) ही अर्थात् सफल ही मेरे में (असत्) होवे (वृधासः) वृद्धि करनेवाले होते हुए हम लोग (असाम) प्रसिद्ध होवें और वह हम लोगों को वैसे ही सुख देवे ॥१०॥

    भावार्थ

    जो जिसके सुख को साधे उस पुरुष को चाहिये कि उस उपकार करनेवाले पुरुष को भी सुख देवें ॥१०॥

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    विषय

    यज्ञों द्वारा प्रभु प्रियता

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (देवः) = प्रकाशमय (रराण:) = सब आवश्यक वस्तुओं के देनेवाले (त्वम्) = आप (यस्य) = जिस (मर्तस्य) = मनुष्य के (सुधितम्) = उत्तमता से स्थापित किये गये (अध्वरम्) = हिंसा रहित यज्ञात्मक कर्म को (जुजोष:) = प्रीतिपूर्वक सेवन करते हैं। उसकी (सा होत्रा) = यज्ञों में उच्चारण की गई वह वाणी (इत्) = निश्चय से (प्रीते असत्) = प्रीति को देनेवाली हो । उस मनुष्य को यज्ञों में उच्चारण की जानेवाली यह वेदवाणी रुचिकर हो। (२) उस मनुष्य को यह वाणी प्रिय हो, यविष्ठ हे सब बुराइयों को दूर करनेवाले प्रभो ! हम सब देव (विधतः यस्य) = पूजा करनेवाले जिसके (वृधासः) = वृद्धि को करनेवाले (असाम) = हों। चतुर्थ मन्त्र में अर्यमा आदि देवों का उल्लेख था। ये देव जिसकी वृद्धि का कारण बनते हैं, उसे सदा ज्ञान की वाणी प्रिय होती है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम यज्ञ करें। ये यज्ञ प्रभु के लिये प्रिय हों। यज्ञों में उच्चरित वाणी प्रिय हो, इस प्रिय वाणीवाले व्यक्ति को सब देव बढ़ानेवाले हों।

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    विषय

    उपासकों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) विद्वन् ! हे परमेश्वर प्रकाशस्वरूप ! ( त्वं देवः ) तू दानशील, प्रकाशक होकर ( यस्य मर्तस्य ) जिस मरणधर्मा-मनुष्य के ( सुधितम् ) उत्तम रूप से धारण करने योग्य ऐश्वर्य को ( रराणः ) प्रदान करता हुआ तू ( यस्य ) जिसके ( अध्वरं ) यज्ञ या अविनश्वर आत्मा को ( जुजोष ) प्रेम करता है हे ( यविष्ठ ) अति बलवन् ! और हम लोग ( विधतः ) विधान या जगत् निर्माण करने वाले ( यस्य ) जिसके ( वृधासः ) सदा बढ़ाने हारे हों उस पुरुष की (सा) वह ( होत्रा ) आहुति और वाणी ( प्रीता इत् असत् ) अवश्य सबको तृप्त प्रसन्न करती है । इति सप्तदशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः ॥ अग्निदेवता ॥ छन्दः- १, १९ पंक्तिः । १२ निचृत्पंक्तिः । १४ स्वराट् पंक्तिः । २, ४–७, ९, १३, १५, १७, १८, २० निचृत् त्रिष्टुप् । ३, १६ त्रिष्टुप् । ८, १०, ११ विराट् त्रिष्टुप् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो ज्याला सुख देतो त्या पुरुषाने उपकार करणाऱ्या पुरुषालाही सुख द्यावे ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, youthful light of yajnic human action, brilliant and generous giver as you are, whatever mortal offers you the yajna of service, with spirit of sacrifice, love and non-violence, well performed with reverence and faith, you accept and enjoy. May that service and spirit of charity bring him the grace of heaven. May we too be performers and promoters of that yajna, and may that grace be ours too.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject of do's by truthful person is highlighted

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O youthful (energetic) learned person ! you are purifier like the fire. The devout and wiseman serves the non-violent and inviolable dealings and gives divine happiness and welfare. May that acceptable process be cherished by me. May we become promoters of good actions, and may the other persons be equally source of happiness to us.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    He who bestows happiness upon any one, should be made happy by others also.

    Foot Notes

    (सुधितम्) सुहितम् । = Welfare, well-being. (रराणः) भूशं दाता । = Giver of much (wealth or happiness). (होता) ग्राह्या । = Acceptable process or activity.

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