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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 37 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 37/ मन्त्र 3
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - ऋभवः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    त्र्यु॒दा॒यं दे॒वहि॑तं॒ यथा॑ वः॒ स्तोमो॑ वाजा ऋभुक्षणो द॒दे वः॑। जु॒ह्वे म॑नु॒ष्वदुप॑रासु वि॒क्षु यु॒ष्मे सचा॑ बृ॒हद्दि॑वेषु॒ सोम॑म् ॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्रि॒ऽउ॒दा॒यम् । दे॒वऽहि॑तम् । वः॒ । स्तोमः॑ । वा॒जाः॒ । ऋ॒भु॒क्ष॒णः॒ । द॒दे । वः॒ । जु॒ह्वे । म॒नु॒ष्वत् । उप॑रासु । वि॒क्षु । यु॒ष्मे इति॑ । सचा॑ । बृ॒हत्ऽदि॑वेषु । सोम॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्र्युदायं देवहितं यथा वः स्तोमो वाजा ऋभुक्षणो ददे वः। जुह्वे मनुष्वदुपरासु विक्षु युष्मे सचा बृहद्दिवेषु सोमम् ॥३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्रिऽउदायम्। देवऽहितम्। यथा। वः। स्तोमः। वाजाः। ऋभुक्षणः। ददे। वः। जुह्वे। मनुष्वत्। उपरासु। विक्षु। युष्मे इति। सचा। बृहत्ऽदिवेषु। सोमम् ॥३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 37; मन्त्र » 3
    अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 9; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे वाजा ऋभुक्षणो ! यथा वः स्तोमो मां सुखं ददाति तथा युष्मभ्यमानन्दमहं ददे। यथाहं मनुष्वद्व उपरासु विक्षु सचा बृहद्दिवेषु त्र्युदायं देवहितं सोमं जुह्वे युष्मे सुखं प्रयच्छामि तथा मां यूयमाह्वयत सुखं प्रयच्छत ॥३॥

    पदार्थः

    (त्र्युदायम्) यं मनोदेहवचनैरुदायन्ति तम् (देवहितम्) देवेभ्यो हितकरम् (यथा) (वः) युष्माकं युष्मभ्यं वा (स्तोमः) प्रशंसा (वाजाः) अन्नविज्ञानवन्तः (ऋभुक्षणः) महान्तः (ददे) ददामि (वः) युष्मान् (जुह्वे) स्पर्द्धे (मनुष्वत्) विद्वद्वत् (उपरासु) श्रेष्ठासु (विक्षु) मनुष्यादिप्रजासु (युष्मे) युष्मान् (सचा) सत्येन (बृहद्दिवेषु) दिव्येषु पदार्थेषु (सोमम्) ऐश्वर्य्यम् ॥३॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः । हे मनुष्या ! यथा विद्वांसो युष्मभ्यं सुखं ददति युष्माकं हितं चिकीर्षन्ति तथैव यूयमपि तदर्थमाचरत ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (वाजाः) अन्न तथा विज्ञानवाले (ऋभुक्षणः) श्रेष्ठ जनो ! (यथा) जैसे (वः) आप लोगों की वा आप लोगों के लिये (स्तोमः) प्रशंसा मुझको सुख देती है, वैसे आप लोगों के लिये आनन्द को मैं (ददे) देता हूँ और जैसे मैं (मनुष्वत्) विद्वान् के सदृश (वः) आप लोगों को (उपरासु) श्रेष्ठ (विक्षु) मनुष्य आदि प्रजाओं में (सचा) सत्य से (बृहद्दिवेषु) महान् दिव्य पदार्थों में (त्र्युदायम्) मन, देह और वचन इन तीनों से जिसको देते हैं उस (देवहितम्) विद्वानों के लिये हितकारक (सोमम्) ऐश्वर्य्य को (जुह्वे) स्पर्द्धा करता हूँ और (युष्मे) आप लोगों के लिये सुख देता हूँ, वैसे मुझको आप लोग भी बुलाओ और सुख दो ॥३॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । हे मनुष्यो ! जैसे विद्वान् जन आप लोगों के लिये सुख देते हैं और आप लोगों के हित की इच्छा करते हैं, वैसे ही आप लोग भी उनके लिये आचरण करो ॥३॥

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    विषय

    स्तोम और सोम

    पदार्थ

    [१] हे (वाजाः) = शक्तिशाली पुरुषो! (ऋभुक्षणः) = ज्ञानदीप्त पुरुषो ! (यथा) = जिस प्रकार (वः) = आपका (त्र्युदायम्) = तीनों 'शारीरिक, मानस व बौद्धिक' उन्नतियोंवाला देवहितम् देवों में स्थापन हो, सो (वः) = तुम्हारे लिए (स्तोमः ददे) यह स्तोम दिया जाता है। इस स्तोम [= स्तुति] द्वारा तुम सब प्रकार की उन्नति करके अपने को देवों में स्थापित करनेवाले होंगे। यह स्तोम तुम्हें देव बना देगा। प्रभु का स्तवन हमें प्रभु जैसा बनने के लिए प्रेरित करता ही है। [२] (मनुष्वत्) = एक विचारशील व्यक्ति की तरह (उपरासु) = [ उप रमन्ते] प्रभु की उपासना में [स्तोम में] रमण करनेवाली (विक्षु) = प्रज्ञाओं में, (युष्मे सचा) = तुम्हारे साथ (बृहद्दिवेषु) = प्रभूत ज्ञानदीप्तिवाली प्रजाओं में (सोमं जुह्वे) = मैं इस सोम को देता हूँ। यह सोम ही सुरक्षित हुआ हुआ तुम्हारी सब उन्नतियों = का कारण बनेगा।

    भावार्थ

    भावार्थ – हम स्तोम [स्तुति] को अपनाएँ और सोम का [वीर्य का] रक्षण करें। यही विविध [शारीरिक, मानसिक व बौद्धिक] उन्नति का मार्ग है । यही देवत्व प्राप्ति का साधन है।

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    विषय

    ऋभु विद्वानों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे (वाजाः) ज्ञानवान् (ऋभुक्षणः) महान् तेजस्वी पूज्य पुरुषो ! (वः) आप लोगों का (स्तोमः) वचन समूह, स्तुति उपदेश (यथा) जिस प्रकार (त्रि-उदयं देव-हितं ददे) तीनों प्रकार के अभ्युदय के देने वाले विद्वानों के हितकारी सुख का प्रदान करता है, उसी प्रकार मैं भी (स्तोमः) स्तुतिकर्ता, प्रवक्ता होकर तीनों अभ्युदयकारी हितवचन (वः ददे) आप लोगों को दूं । और जिस प्रकार (मनुष्वत्) मननशील विद्वान् के सदृश (उपरासु विक्षु) समीप बसी प्रजाओं के बीच में (सोमम् जुह्वे) अन्नादि पदार्थ दूं उसी प्रकार (वृहद्-दिवेषु) बड़े २ ज्ञानवान् पुरुषों के बीच में मैं (सचा) संगत होकर (युष्मे सोमं जुह्वे) आप लोगों को भी ऐश्वर्यादि प्रदान करूं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः॥ ऋभवो देवता॥ छन्दः– १ विराट् त्रिष्टुप। २ त्रिष्टुप। ३, ८ निचृत् त्रिष्टुप । ४ पंक्तिः ॥ ५, ७ अनुष्टुप ॥ ६ निचृदनुष्टुप् ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो! जसे विद्वान लोक तुम्हाला सुख देतात व तुमच्या हिताची इच्छा करतात, तसेच तुम्हीही त्यांच्याशी वागा. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Rbhus, eminent scholars and miraculous makers, as your threefold gift of science, technology and wealth of power and excellence for the highest of people is a source of bliss and comfort, so do I as one among the same people high and low, dedicated to the vast divinities, offer you the treat of soma, best of wealth and joy as gift, in truth of thought, word and deed, offering loved by the noblest divine souls, the Rbhus.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    More duties of the enlightened ones are narrated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O great men! you are endowed with true knowledge and taking good food. Your praise gives me pleasure, and so I give joy to you (by my humility and service). I seek to acquire wealth by well-considered method, with body and speech, like an enlightened thoughtful person, because he lives in association with good people, and deals truthfully. And with regard to the divine objects, he is beneficent to truthful and highly learned persons. I invoke and give you happiness. You may also kindly invoke me and give happiness and joy.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As leasned hersons give you happiness, and desire to do good to you, you should also reciprocate similarly.

    Foot Notes

    (त्र्युदायम् ) यं मनोदेहवचनंरुदायन्ति तम् । = Which is elevated and acquired by intellectual and physical support and noble speech. (उपरासु) श्रेष्ठासु । उपरा इति दिङ्नाम (NG 1, 6) उपर इति मेघनाम (NG 1, 10) मेघवत् सर्वहितकरीषु सर्वदिग्वासिनीषु श्रेष्ठासु प्रजासु । = Noble. (सचा) सत्येन । सचा इति पदनाम (NG 4, 2) पद-गतौ । = With truth, honestly.

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