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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 37 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 37/ मन्त्र 8
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - ऋभवः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    तं नो॑ वाजा ऋभुक्षण॒ इन्द्र॒ नास॑त्या र॒यिम्। समश्वं॑ चर्ष॒णिभ्य॒ आ पु॒रु श॑स्त म॒घत्त॑ये ॥८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । नः॒ । वा॒जाः॒ । ऋ॒भु॒क्ष॒णः॒ । इन्द्र॑ । नास॑त्या । र॒यिम् । सम् । अश्व॑म् । च॒र्ष॒णिऽभ्यः॑ । आ । पु॒रु । श॒स्त॒ । म॒घत्त॑ये ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तं नो वाजा ऋभुक्षण इन्द्र नासत्या रयिम्। समश्वं चर्षणिभ्य आ पुरु शस्त मघत्तये ॥८॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम्। नः। वाजाः। ऋभुक्षणः। इन्द्र। नासत्या। रयिम्। सम्। अश्वम्। चर्षणिऽभ्यः। आ। पुरु। शस्त। मघत्तये ॥८॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 37; मन्त्र » 8
    अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 10; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे वाजा ऋभुक्षणो ! यूयं यथा नासत्या तथा नश्चर्षणिभ्यो मघत्तये तमश्वं रयिं पुरु समादत्त। हे इन्द्र ! त्वमेताञ्छस्त ॥८॥

    पदार्थः

    (तम्) (नः) अस्मभ्यम् (वाजाः) दातारः (ऋभुक्षणः) महान्तः (इन्द्र) परमैश्वर्य्ययुक्त (नासत्या) अविद्यमानासत्याचारौ सभान्यायेशौ (रयिम्) धनम् (सम्) (अश्वम्) महान्तम् (चर्षणिभ्यः) मनुष्येभ्यः (आ) समन्तात् (पुरु) बहु (शस्त) प्रशंसत (मघत्तये) पूजितधनप्राप्तये ॥८॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यै राज्ञो राजपुरुषेभ्यश्च धनोन्नतिः सदा कार्या येन बहुविधं सुखं भवेदिति ॥८॥ अत्र विद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥८॥ इति सप्तत्रिंशत्तमं सूक्तं दशमो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (वाजाः) देनेवाले ! (ऋभुक्षणः) बड़े ! आप लोग जैसे (नासत्या) असत्याचार से रहित सभा और न्याय के ईश वैसे (नः) हम (चर्षणिभ्यः) मनुष्यों के अर्थ (मघत्तये) श्रेष्ठ धन की प्राप्ति के लिये (तम्) उस (अश्वम्) बड़े (रयिम्) धन को (पुरु) बहुत (सम्) उत्तम प्रकार (आ) ग्रहण करिये। और हे (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्य्य से युक्त ! आप इन लोगों की (शस्त) प्रशंसा कीजिये ॥८॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि राजा और राजपुरुषों से धन की उन्नति सदा करें, जिससे बहुत प्रकार का सुख होवे ॥८॥ इस सूक्त में विद्वानों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछिले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥८॥ यह सैंतीसवाँ सूक्त और दशवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    मघत्तये

    पदार्थ

    [१] हे (वाजा:) = शक्तिशाली (ऋभुक्षण:) = ज्ञानदीप्ति में निवास करनेवाले पुरुषो! हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (नासत्या) = प्राणापानो! आप सब (नः चर्षणिभ्यः) = हम श्रमशील मनुष्यों के लिए (तम्) = उस (समश्वम्) = उत्तम इन्द्रियाश्वों से संगत [युक्त] (पुरु) = पालन व पूरण करनेवाले (रयिम्) = धन को आशस्त उपदिष्ट करो। हमें उस मार्ग का ज्ञान दो, जिससे कि हम इस ऐश्वर्य को प्राप्त कर सकें। [२] हमें आप धन दो। इसलिए दो कि (मघत्तये) = हम इन मघों (ऐश्वर्यों) का अत्यन्त दान कर सकें। धन हमारा पालन व पूरण करनेवाला हो। हमारी इन्द्रियों की शक्ति को बढ़ानेवाला हो। हमें दान के लिये समर्थ करनेवाला हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम धन प्राप्त करें। यह धन हमें शक्तिशाली ज्ञानदीप्त बनाए। इसे प्राप्त करके हम जीवनयात्रा को ठीक प्रकार चलाते हुए प्रभुप्रवण हों। प्राणापान की शक्ति को बढ़ाएँ। इन्द्रियों को निर्बल न होने दें। दानशील हों। अगले सूक्त का प्रथम मन्त्र प्रभु के दानों का उल्लेख करता है और अगले मन्त्रों में 'दधिक्रा' नाम से 'मन' का उल्लेख है -

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    विषय

    उत्तम सुवर्ण रत्नादि के आभूषण धारण करने का उपदेश।

    भावार्थ

    हे (वाजाः) दानशील, ऐश्वर्यवान् लोगो ! हे (ऋभुक्षणः) बड़े लोगो ! हे (इन्द्र) शत्रुहन्तः ! हे (नासत्या) असत्याचरण न करने हारे सभापति, न्यायपति ! आप लोग (नः चर्षणिभ्यः) हम लोगों को (तं अश्वं रयिं) उस महान् धन की (सम् आ शस्त) अच्छी प्रकार प्रशंसा व उपदेश करें । जो (पुरु) बहुतों को पालन करने में समर्थ और (मघत्तये) उत्तम धन दान करने के लिये हो । इति दशमो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः॥ ऋभवो देवता॥ छन्दः– १ विराट् त्रिष्टुप। २ त्रिष्टुप। ३, ८ निचृत् त्रिष्टुप । ४ पंक्तिः ॥ ५, ७ अनुष्टुप ॥ ६ निचृदनुष्टुप् ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी राजा व राजपुरुषाकडून धन वाढवून घ्यावे. ज्यामुळे पुष्कळ सुख मिळेल. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Rbhus, leaders and pioneers of vision and progress, O lord ruler of the world, Indra, never failing, ever true, teach us, give us that order of wealth and speedy progress with power and horse which leads the people to honour and prosperity in life to the full.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of the enlightened persons are highlighted.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O liberal donors ! you are wisemen. Give our men various and abundant wealth for the attainment of admirable riches. The absolutely truthful president of the Council of ministers and chief justice are of this nature. O prosperous king ! you praise these wisemen.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is the duty of all men to help in the advancement of the fiscal power of the State, so that people may enjoy various kinds of happiness.

    Translator's Notes

    The liberal givers of food stuff and other requisite things may be called वाजाः । (नासत्या ) सत्यावेव नासत्यावित्मौर्णनाभ: (NKT. 6, 3, 13)।

    Foot Notes

    (वाजाः ) दातारः । वाज इति मन्ननाम (NG 2, 7) = Donors. (नासत्या ) अविद्यामानासत्याचारौ सभान्यायेशौ । The President of the Council of ministers and Chief justice.

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