ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 55/ मन्त्र 3
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
प्र प॒स्त्या॒३॒॑मदि॑तिं॒ सिन्धु॑म॒र्कैः स्व॒स्तिमी॑ळे स॒ख्याय॑ दे॒वीम्। उ॒भे यथा॑ नो॒ अह॑नी नि॒पात॑ उ॒षासा॒नक्ता॑ करता॒मद॑ब्धे ॥३॥
स्वर सहित पद पाठप्र । प॒स्त्या॑म् । अदि॑तिम् । सिन्धु॑म् । अ॒र्कैः । स्व॒स्तिम् । ई॒ळे॒ । स॒ख्याय॑ । दे॒वीम् । उ॒भे इति॑ । यथा॑ । नः॒ । अह॑नी॒ इति॑ । नि॒ऽपातः॑ । उ॒षसा॒नक्ता॑ । क॒र॒ता॒म् । अद॑ब्धे॒ इति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र पस्त्या३मदितिं सिन्धुमर्कैः स्वस्तिमीळे सख्याय देवीम्। उभे यथा नो अहनी निपात उषासानक्ता करतामदब्धे ॥३॥
स्वर रहित पद पाठप्र। पस्त्याम्। अदितिम्। सिन्धुम्। अर्कैः। स्वस्तिम्। ईळे। सख्याय। देवीम्। उभे इति। यथा। नः। अहनी इति। निऽपातः। उषसानक्ता। करताम्। अदब्धे इति ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 55; मन्त्र » 3
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 6; मन्त्र » 3
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अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 6; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ विद्वद्विषये गार्हस्थ्यकर्माह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यथोभे अहनी उषासानक्ता अदब्धे करतां तथा नो निपातोऽहमर्कैरदितिं पस्त्यां सिन्धुं स्वस्ति सख्याय देवीं प्रेळे ॥३॥
पदार्थः
(प्र) (पस्त्याम्) गृहम् (अदितिम्) अखण्डिताम् (सिन्धुम्) नदीम् (अर्कैः) मन्त्रैः (स्वस्तिम्) सुखम् (ईळे) अध्यन्विच्छामि (सख्याय) मित्रभावाय (देवीम्) कमनीयां विदुषीं स्त्रियम् (उभे) (यथा) (नः) अस्माकम् (अहनी) रात्रिदिने (निपातः) यो नितरां पाति (उषासानक्ता) रात्रिदिवसौ (करताम्) (अदब्धे) अहिंसिते ॥३॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः । यथा रात्रिदिने सम्बद्धे वर्त्तित्वा सर्वव्यवहारसिद्धे निमित्ते भवतस्तथाऽऽवां विहितौ सखिवद्वर्त्तमानौ स्त्रीपुरुषौ श्रेष्ठं गृहं पुष्कलं सुखं सर्वदोन्नयेय ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
अब विद्वानों के विषय में गृहस्थ के कर्म को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (यथा) जैसे (उभे) दोनों (अहनी) रात्रि और दिन (उषासानक्ता) रात्रि और दिन को (अदब्धे) नहीं हिंसित (करताम्) करें, वैसे (नः) हम लोगों का अर्थात् अपना (निपातः) अतिशय पालन करनेवाला मैं (अर्कैः) मन्त्रों से (अदितिम्) खण्डरहित (पस्त्याम्) गृह और (सिन्धुम्) नदी की (स्वस्तिम्) सुख की और (सख्याय) मित्रपने के लिये (देवीम्) सुन्दर विद्यायुक्त स्त्री की (प्र, ईळे) विशेष इच्छा करता हूँ ॥३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । जैसे रात्रि और दिन मिले हुए वर्ताव करके सम्पूर्ण व्यवहार में कारण होते हैं, वैसे हम दोनों विशेष करके हित चाहते हुए मित्र के सदृश वर्तमान स्त्री और पुरुष उत्तम गृह और बहुत सुख की सदा उन्नति करें ॥३॥
विषय
[घर को उत्तम बनाना] गृह देवता की उपासना
पदार्थ
[१] (पस्त्यां देवीम्) = गृह का उत्तम निर्माण करनेवाली देवी को (सख्याय) = मित्रता के लिए मैं (ईडे) = स्तुत करता हूँ। घर को उत्तम बनाने के नियमों का मैं पालन करता हूँ। (अदितिम्) = [अ दिति = खण्डन] स्वास्थ्य की देवी का मैं आराधन करता हूँ । (सिन्धुम्) = [स्यन्दते] प्रवाहमय इन रेत: कणों का मैं स्तवन करता हूँ। रेतः कणों के गुणों का ध्यान करके मैं इनके रक्षण के लिए यत्नशील होता हूँ। (अर्कैः) = मन्त्रों द्वारा मैं (स्वस्तिम्) = कल्याण की देवी का पूजन करता हूँ। ये स्तुति मन्त्र मुझे कल्याण के मार्ग से भटकने नहीं देते। [२] इन सब का मैं आराधन करता हूँ (यथा) = जिससे (उभे) = दोनों दिन-रात (नः) = हमें (निपात:) = नितरां रक्षित करते हैं। (अदब्धे) = अहिंसित होते हुए (उषासानक्ता) = दिन-रात हमारे लिए शुभों को ही (करताम्) = करनेवाले हों। दिन-रात का अहिंसित होना यही है कि हम समय को व्यर्थ में व्ययित न करके उनका सदुपयोग ही करें। [३] सब से मुख्य गृहस्थ धर्म यही है कि हम गृह को उत्तम बनाएँ । यही गृह देवता की उपासना है। इसके लिए स्वास्थ्य को ठीक रखना आवश्यक है। यही अदिति का उपासन है। स्वास्थ्य के लिए रेतः कणों का रक्षण आवश्यक है। यही सिन्धु की उपासना है। ऐसा होने पर ही कल्याण होता है। यही स्वस्ति का उपासन हो जाता है।
भावार्थ
भावार्थ- हम घर को अच्छा बनाएँ। स्वस्थ रहें। रेतः कणों का रक्षण करें। प्रभु-स्मरणपूर्वक कल्याण के मार्ग पर चलें। इस प्रकार प्रभु दिन-रात हमारा कल्याण ही करेंगे।
विषय
स्त्री माननीया है, वह सब सुखों की जननी है ।
भावार्थ
मैं (पस्त्याम्) साक्षात् गृहस्वरूप, (अदितिम्) माता स्वरूप, (सिन्धुम्) प्रेम सम्बन्ध से बांधने वाली, (सख्याय) मित्र भाव के लिये (स्वस्तिं) सुख कल्याण करने वाली, स्त्री का (अर्कैः) आदर सत्कार युक्त वचनों से (ईळे) सत्कार-सन्मान करूं। जिससे (नः) हमारे बीच में (उषासानक्ता) दिन रात्रि के समान कामना युक्त स्त्री और अव्यक्त भाव वाला पुरुष (उभे) दोनों ही (अहनी) जीवन में पीड़ित, दुखी न रहते हुए (अदब्धे) अहिंसित, चिरजीव होकर (निपातः) एक दूसरे की नित्य रक्षा करते रहें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः॥ विश्वेदेवा देवता॥ छन्दः– १ त्रिष्टुप् । २, ४ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ५ भुरिक् पंक्तिः। ६,७ स्वराट् पंक्तिः। ८,९ विराड् गायत्री। १० गायत्री॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे रात्र व दिवस व्यवहाराचे कारण असतात तसे आम्ही दोघे स्त्री व पुरुष हितकारक मित्राप्रमाणे उत्तम गृह व सुख सदैव वाढवू. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
I praise the divine Aditi, Mother Nature and imperishable Eternity, blessed home of existence and the ocean, with songs of celebration for the sake of friendship and the gift of welfare and happiness, and I pray that just as the two protect and sustain us day and night, so may the night and the dawns, both intrepidable, nourish and sustain us.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of the learned householders are told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! the day and night (time) when passed properly make the coming dawn and night inviolable auspicious. So protecting all, I desire to have perfectly happy home, with the help of the mantras. A highly learned lady should be there as wife for true friendship at the home, who should be wise, close and doing welfare of all kinds.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The day and night are related with each other, and are the cause of the accomplishment of all dealings. So let us duly married couple-husband and wife-being sincere friends have a good home and abundance of happiness.
Foot Notes
(अदितिम् ) अखण्डिताम् =Inviolable. (पस्त्याम्) गृहम् । पस्त्यमिति गृहनाम (NG 3, 4) अत्र स्त्रीलिङ्गप्रदीनः । = Home. (अर्कैः ) मन्त्रैः । अर्को मन्त्रो भवति यदनेनाचंन्ति (NKT 5, 1, 4) = With mantras. (देवीम् ) कमनीयां विदुषीं स्त्रियम् । दिवुधातोः काव्यर्थमादाय कमनीयेति व्याख्यानाद् द्योतनार्थमादाय् विदुषीति व्याख्या विद्यादान कारणाद्वा । देवो दानाद् वा दीपनाइ वाद्योतनाद् वा (NKT. 7, 4, 16 ) विद्वांसो हि देवा: (Stph Brahman 3, 7, 3, 10) = Desirable highly learned wife.
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