ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 55/ मन्त्र 7
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
दे॒वैर्नो॑ दे॒व्यदि॑ति॒र्नि पा॑तु दे॒वस्त्रा॒ता त्रा॑यता॒मप्र॑युच्छन्। न॒हि मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्य धा॒सिमर्हा॑मसि प्र॒मियं॒ सान्व॒ग्नेः ॥७॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वैः । नः॒ । दे॒वी । अदि॑तिः । नि । पा॒तु॒ । दे॒वः । त्रा॒ता । त्रा॒य॒ता॒म् । अप्र॑ऽयुच्छन् । न॒हि । मि॒त्रस्य॑ । वरु॑णस्य । धा॒सिम् । अर्हा॑मसि । प्र॒ऽमिय॑म् । सानु॑ । अ॒ग्नेः ॥
स्वर रहित मन्त्र
देवैर्नो देव्यदितिर्नि पातु देवस्त्राता त्रायतामप्रयुच्छन्। नहि मित्रस्य वरुणस्य धासिमर्हामसि प्रमियं सान्वग्नेः ॥७॥
स्वर रहित पद पाठदेवैः। नः। देवी। अदितिः। नि। पातु। देवः। त्राता। त्रायताम्। अप्रऽयुच्छन्। नहि। मित्रस्य। वरुणस्य। धासिम्। अर्हामसि। प्रऽमियम्। सानु। अग्नेः ॥७॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 55; मन्त्र » 7
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
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अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे विद्वन् ! यथा वयं वरुणस्य मित्रस्याग्नेः सानु धासिं प्रमियं नह्यर्हामसि तथा देवैस्सह देव्यदितिर्नो नि पात्वप्रयुच्छँस्त्राता देवोऽस्माँस्त्रायताम् ॥७॥
पदार्थः
(देवैः) विद्वद्भिः पृथिव्यादिभिस्सह वा (नः) अस्मान् (देवी) देदीप्यमाना विदुषी माता (अदितिः) अखण्डितज्ञाना (नि) (पातु) रक्षतु (देवः) विद्वान् पिता (त्राता) रक्षकः (त्रायताम्) पालयतु (अप्रयुच्छन्) अप्रमाद्यन् (नहि) निषेधे (मित्रस्य) (वरुणस्य) (धासिम्) अन्नम् (अर्हामसि) योग्या भवामः (प्रमियम्) प्रहिंसितुम् (सानु) शिखरम् (अग्नेः) पावकस्य ॥७॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। केनाऽपि मनुष्येण कस्याऽपि जनस्य पदार्थस्य वा हिंसा मादकद्रव्यसेवनञ्च सदैव न कार्य्यं सदा विदुषां मातुः पितुश्च शिक्षा सङ्ग्राह्या ॥७॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्वन् ! जैसे हम लोग (वरुणस्य) श्रेष्ठ पुरुष (मित्रस्य) मित्र और (अग्नेः) अग्नि के (सानु) शिखर और (धासिम्) अन्न के (प्रमियम्) नाश करने को (नहि) नहीं (अर्हामसि) योग्य होते हैं, वैसे (देवैः) विद्वानों वा पृथिवी आदिकों के साथ (देवी) प्रकाशमान विद्यायुक्त माता (अदितिः) अखण्डित ज्ञानवाली (नः) हम लोगों की (नि, पातु) रक्षा करे और (अप्रयुच्छन्) नहीं प्रमाद करता हुआ (त्राता) रक्षा करनेवाला (देवः) विद्वान् पिता हम लोगों का (त्रायताम्) पालन करे ॥७॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। प्रत्येक मनुष्य को चाहिये कि किसी सज्जन वा किसी पदार्थ का नाश और नशा करनेवाले द्रव्य का सेवन सदा ही न करे और सदा विद्वानों और माता-पिता की शिक्षा को ग्रहण करे ॥७॥
विषय
सात्विक अन्न व दिव्य जीवन
पदार्थ
[१] (देवी) = सब व्यवहारों व गतियों को सिद्ध करनेवाली (अदितिः) = स्वास्थ्य की देवी (नः) = हमें (निपातु) = नितरां रक्षित करे । (त्राता देवः) = वह रक्षक प्रभु (अप्रयुच्छन्) = सदा अप्रमत्त होता हुआ (त्रायताम्) = हमारा रक्षण करे, अर्थात् स्वास्थ्य का व प्रभुस्मरण का हम सदा ध्यान करें, इनमें प्रमाद न करें। [२] हम (मित्रस्य) = मित्र के वरुणस्य-वरुण के तथा (अग्ने) = अग्नि के (सानु) = समुच्छ्रित सर्वोन्नत (धासिम्) = आहार को (प्रमियम्) = हिंसित करने के लिए नहि अर्हामसि नहीं योग्य हैं, अर्थात् हम सात्त्विक अन्न का ही प्रयोग करें, जिससे कि हम 'मित्र, वरुण व अग्नि' बनें, सब के साथ स्नेहवाले, निद्वेष व अग्रगतिवाले।
भावार्थ
भावार्थ- हम स्वास्थ्यप्राप्ति व प्रभुस्मरण में अप्रमत्त हों। सात्त्विक अन्न का सेवन करते हुए 'सब के साथ स्नेह करनेवाले, निद्वेष व प्रगतिशील' बनें ।
विषय
अदिति माता रूप स्त्री के कर्त्तव्य
भावार्थ
(देवी) उत्तम गुणों से युक्त स्त्री (अदितिः) अखण्ड चरित्र रहती हुई (नः) हमें (देवैः) अपने उत्तम गुणों से, किरणों से सूर्य के तुल्य (नि पातु) गृह जनों को पालन करे । (देवः) कामनावान् व्यवहारज्ञ पुरुष (त्राता) पालक होकर (अप्र-युच्छन्) किसी प्रकार प्रमाद न करता हुआ (त्रायताम्) सब बन्धुजन की पालना करे। हमें भी (मित्रस्य) स्नेही मित्र (वरुणस्य) सर्वश्रेष्ठ और (अग्नेः) अग्नि के समान ज्ञान प्रकाश से युक्त पुरुष के (सानु धासिम् उपभोग योग्य और दान देने योग्य धारक पोषक अन्न आदि वृत्ति को (प्रमियं नहि अहमसि) कभी नाश न करना चाहिये।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः॥ विश्वेदेवा देवता॥ छन्दः– १ त्रिष्टुप् । २, ४ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ५ भुरिक् पंक्तिः। ६,७ स्वराट् पंक्तिः। ८,९ विराड् गायत्री। १० गायत्री॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. प्रत्येक माणसाने एखाद्या सज्जनाचा किंवा पदार्थाचा नाश करू नये किंवा मादक द्रव्याचे सेवन कधी करू नये व सदैव विद्वान माता-पित्याकडून शिक्षण घ्यावे. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
May divine Aditi, Mother Nature, with all her generous forces nourish and sustain us. May divine saviour save, protect and sustain us without relent and neglect. (So may our mother and father guide, protect and sustain us.) And we must not try, much less even feel, that we can hurt or compromise the high position and favour of Mitra, the friend, Varuna, senior guide and judge, and Agni, leader, fire and vital energy.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject of enlightened persons is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned person ! we can not violate the summit or high teachings and food of a man friendly to all, of a noble most acceptable man and of a glorious purifying leader. In the same manner, let a mother endowed with perfect knowledge protect us along with the enlightened persons or earth etc. and let a highly learned father who is ever attentive preserve us.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
No man should resort to violence against a person or thing (without particular reason) and none should take intoxicants. One should accept the noble teachings of the enlightened persons of father and mother.
Foot Notes
(अदितिः) अखण्डितज्ञानः । अदितिः -अदीना देवायतेति (NKT 4,423) अदितिद्यौरदितिरन्तक्षमदितिर्माता सपिता सपुत्रः ऋ (१८, ९, १०)। = Endowed with inviolable knowledge. (देवी) देदीप्यमाना विदुषी माता । Glorious enlightened mother. (धासिम् ) अन्नम् । धासिमरित्यन्ननाम (NG 2, 7) = Food.
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