ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 82/ मन्त्र 8
य इ॒मे उ॒भे अह॑नी पु॒र एत्यप्र॑युच्छन्। स्वा॒धीर्दे॒वः स॑वि॒ता ॥८॥
स्वर सहित पद पाठयः । इ॒मे इति॑ । उ॒भे इति॑ । अह॑नी॒ इति॑ । पु॒रः । एति॑ । अप्र॑ऽयुच्छन् । सु॒ऽआ॒धीः । दे॒वः । स॒वि॒ता ॥
स्वर रहित मन्त्र
य इमे उभे अहनी पुर एत्यप्रयुच्छन्। स्वाधीर्देवः सविता ॥८॥
स्वर रहित पद पाठयः। इमे । उभे इति। अहनी इति। पुरः। एति। अप्रऽयुच्छन्। सुऽआधीः। देवः। सविता ॥८॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 82; मन्त्र » 8
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 26; मन्त्र » 3
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अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 26; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः कथं वर्त्तितव्यमित्याह ॥
अन्वयः
योऽप्रयुच्छन् मनुष्यो यथा स्वाधीर्देवः सविता सत्ये वर्त्तते तथेमे उभे अहनी सत्येन पुर एति स एव भाग्यशाली भवति ॥८॥
पदार्थः
(यः) (इमे) (उभे) (अहनी) रात्रिदिने (पुरः) (एति) प्राप्नोति (अप्रयुच्छन्) प्रमादमकुर्वन् (स्वाधीः) सुष्ठ्वाधीयते येन सः (देवः) द्योतमानः (सविता) सत्कर्मसु प्रेरकः ॥८॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । यथा परमेश्वरः स्वकीयान्नियमान् यथावद्रक्षति तथैव मनुष्या अपि सुनियमान् यथावद्रक्षन्तु ॥८॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्य कैसा वर्त्ताव करें, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
(यः) जो (अप्रयुच्छन्) प्रमाद को नहीं करता हुआ मनुष्य जैसे (स्वाधीः) उत्तम प्रकार स्थापन किया जाता है जिससे वह (देवः) प्रकाशमान (सविता) श्रेष्ठ कर्म्मों में प्रेरणा करनेवाला सत्य में वर्त्तमान है, वैसे (इमे) इन (उभे) दोनों (अहनी) रात्रि और दिनों को सत्य से (पुरः) आगे (एति) प्राप्त होता है, वही भाग्यशाली होता है ॥८॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । जैसे परमेश्वर अपने नियमों की यथायोग्य रक्षा करता है, वैसे ही मनुष्य भी श्रेष्ठ नियमों की यथावत् रक्षा करें ॥८॥
विषय
सर्वोपास्य सर्वसाक्षी प्रभु
भावार्थ
भा० - जिस प्रकार ( सविता उभे अहनी अप्रयुच्छन् पुरः एति ) सूर्य दिन रात्रि दोनों के पूर्व प्रमादरहित होकर आता है उसी प्रकार ( सविता ) सर्वोत्पादक परमेश्वर ( देवः ) सर्वप्रकाशक, सर्वसुखदाता ( सु-आधीः ) सुखपूर्वक, उत्तम रीति से जगत् को प्रकृति में, मातृगर्भ में पिता के समान अव्यय बीज का आधान करने वाला प्रभु ( इमे ) इन ( अहनी ) कभी नाश न होने वाले जीव और प्रकृति ( उभे ) दोनों अनादि पदार्थों के ( पुरः ) पूर्व ही ( अप्रयुच्छन् ) संतत प्रमाद-रहित सर्व साक्षी होकर ( एति ) व्याप्त रहता है । वही परमेश्वर सबको उपासना करने योग्य है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
श्यावाश्व आत्रेय ऋषिः । सविता देवता ॥ छन्दः – १ निचृदनुष्टुप् । २, ४, ९ निचृद् गायत्री । ३, ५, ६, ७ गायत्री । ८ विराड् गायत्री ।। नवर्चं सूक्तम् ॥
विषय
मार्गदर्शक प्रभु
पदार्थ
[१] गतमन्त्र के अनुसार वरणीय (यः) = जो प्रभु हैं, वे (अप्रयुच्छन्) = किसी प्रकार का प्रमाद न करते हुए (इने उभे अहनी) = इन दोनों दिन-रातों में (पुरः एति) = हमारे आगे चलते हैं। ये प्रभु हमारे लिये मार्गदर्शक होते हैं। प्रभु का स्मरण हमें सदा सत्पथ का दर्शन करानेवाला होता है। [२] ये प्रभु (स्वाधी:) = ['शोभना ध्यानः, सुकर्मा वा' सा०] शोभन आध्यानवाले व सुकर्मा हैं। वस्तुतः प्रभु का स्मरण हमें सदा शुभ बुद्धिवाला व शुभ कर्मोंवाला बनाता है। (देवः) = वे प्रभु प्रकाशमय हैं । सविता उपासक को सदा सत्प्रेरणा प्राप्त करानेवाले हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- वे प्रभु दिन-रात हमें उत्तम प्रेरणा प्राप्त करा रहे हैं। उनकी उपासना में हमें शोभन ध्यान व कर्मवाले बनते हैं।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा परमेश्वर स्वतःच्या नियमांचे यथायोग्य रक्षण करतो. तसेच माणसांनीही श्रेष्ठ नियमांचे यथायोग्य रक्षण करावे. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
We adore and worship self-refulgent, self- existent lord of creation, Savita, who transcends both the day and night of existence and self-abides without relent.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should men behave is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
That man alone is fortunate who being ever vigilant or without sluggishness proceeds with truth day and night. Like God who keeps all in proper order, he is Refulgent and Impeller in noble actions.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As God guards all His Eternal Laws properly, so men should also duly observe their laws and rules.
Foot Notes
(अप्रयुच्छन्) प्रमादमकुर्वन। = Not showing sluggishness. (स्वाधी:) सुष्ठुवाधीयते येन सः। = He who keeps all objects in proper order.
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